पंजाबियों को पता है कि विपरीत हालात से कैसे निपटा जाता है। उन्होंने विभाजन के बाद ऐसा किया और बाद में सन 1993 में समाप्त हुए आतंक और उग्रवाद के समय भी ऐसा ही किया।
ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर प्रसारित छह कड़ियों वाले धारावाहिक ‘कोहरा’ का मुख्य किरदार एक ऐसा संवाद बोलता है जो पंजाब की स्थितियों पर एकदम सटीक बैठता है। यकीनन ऐसी कड़वी सच्चाई अक्सर तब बोली जाती है जब बोलने वाला और सुनने वाला दोनों ‘सिद्धावस्था’ में हों। ‘कोहरा’ का निर्देशन रणदीप झा ने किया है और इसके सह-निर्माता सुदीप शर्मा हैं।
सब इंसपेक्टर बलबीर सिंह की भूमिका निभा रहे सुविंदर विकी अपने साथी सहायक सब इंसपेक्टर अमरपाल गरुंडी (किरदार निभाया है वरुण सोबती ने) से कहते हैं, ‘तैनू पता है पंजाब दी ट्रैजडी की है? साड्डा मिट्टी पावो एटीट्यूड। अस्सी केस सॉल्व नइयो करना। बस बंद करणा है।’ (तुम्हें पता है पंजाब की सबसे बड़ी त्रासदी क्या है? हमारा सच को दबा कर आगे बढ़ने का रवैया। हम केस हल नहीं करना चाहते। बल्कि उसे बंद करके निपटाना चाहते हैं)।
जाहिर है यहां संदर्भ कई हत्याओं के मामले की गंभीर जांच से संबंधित है। जहां भावनाओं का जाल है, कामुकता के पहलू हैं, प्रवासन है और चार भयानक बेकार पंजाबी सिख परिवार हैं। बलबीर बता रहा है कि वह अपने उच्च अधिकारियों के दबाव में है जो चाहते हैं कि छोटे मोटे संदिग्धों पर आरोप लगाकर मामला बंद कर दिया जाए जबकि उसे लगता है कि वास्तविक अपराधी कहीं ऊंची श्रेणी के हैं।
हाल ही में पंजाब पर आधारित कई फिल्में और ओटीटी सीरियल आए हैं। यहां-वहां नजर आने वाले आइटम नंबर की बात तो छोड़ ही दें। कोहरा इस मायने में खास है कि यह इस अहम सीमावर्ती राज्य में दो दशक के ठहराव और अपेक्षाकृत पराभव पर ऐसी नजर डालती है जो शायद हाल के दिनों में पढ़ने सुनने को न मिली हो।
यह अत्यंत रचनात्मक अंतर्दृष्टि प्रदान करती है कि जिसे देखकर आपको लगता है कि कैसे इन्हीं प्रमुख फिल्मकारों में से एक ने उड़ता पंजाब जैसी बेवकूफाना फिल्म बनाई थी।
इस सीरीज में भी वही चीजें हैं: मादक पदार्थ, हॉर्मोंस, वर्ग, पितृसत्ता, पुरुषवाद और अपराध। परंतु यह सब बिना शोरशराबे के और बिना बढ़ाचढ़ाकर दिखाया गया है। यह हकीकत के करीब नजर आता है और हमें सोचने पर विवश करता है। खासकर ऐसे समय में जबकि हमने देखा है कि पंजाब में एक नई सरकार नए विचारों को अपनाने का प्रयास कर रही है और प्रधानमंत्री अपने हर बड़े भाषण में सिखों को संबोधित करने का प्रयास कर रहे हैं।
पंजाब को लेकर चिंता करना अच्छी बात है लेकिन केवल सहानुभूति जताने से समस्याएं हल नहीं होंगी। एकजुटता दिखाने, 20,000 नए रोजगार देने का वादा करने, मुफ्त बिजली या धर्म की सराहना करने आदि से बात नहीं बनेगी। बलबीर के शब्दों में यह सब मिट्टी डालने जैसी हरकत होगी।
कोहरा में जिन तमाम त्रासदियों का जिक्र है उनकी जड़ें बीती चौथाई सदी में पंजाब के ठहराव और पराभव में निहित हैं। पंजाबियों को पता है कि मुश्किलों का सामना कैसे किया जाता है। उन्होंने विभाजन के बाद ऐसा किया और बाद में आतंक और चरमपंथ के दौर में भी जो 1993 में समाप्त हुआ।
उसके बाद राज्य बेपटरी हो गया। यह सन 1991 के बाद की औद्योगिक क्रांति का लाभ नहीं उठा पाया। सन 1999-2000 तक यह प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश का सबसे समृद्ध राज्य था। अब यह 13वें या 12वें स्थान पर है। 1.69 लाख रुपये की प्रति व्यक्ति आय के साथ पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश से भी पीछे छूट गया है। कभी पंजाब से अलग हुए इन राज्यों की प्रति व्यक्ति आय क्रमश: 2.65 लाख रुपये और 2 लाख रुपये है।
तेलंगाना 2.7 लाख रुपये के साथ सूची में सबसे ऊपर है। उसके बाद कर्नाटक, हरियाणा, तमिलनाडु और गुजरात आते हैं। इनमें से हर राज्य का शहरीकरण हुआ है लेकिन उन्होंने ऐसे बड़े शहरी केंद्र भी बनाए हैं जो नई अर्थव्यवस्था के उद्योगों को आकर्षित करने वाले साबित हुए हैं।
बीते 10 वर्षों के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी वृद्धि का किस्सा भी ऐसा ही है। एक लाख करोड़ रुपये से अधिक की अर्थव्यवस्था वाले 21 बड़े राज्यों में पंजाब नीचे से छठे स्थान पर है और उसने 5 फीसदी की जीडीपी वृद्धि हासिल की है। इसी दशक में गुजरात 8.4 फीसदी के साथ शीर्ष पर रहा जबकि कर्नाटक और हरियाणा 7.3 फीसदी और 6.7 फीसदी के साथ दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे।
आपको यह भी बता दें कि ‘बीमारू’ राज्यों में गिने जाने वाले मध्य प्रदेश को हरियाणा के साथ चौथा स्थान मिला है। जबकि वृद्धि के चार्ट पर पंजाब और बिहार एक समान पिछड़े हुए हैं।
पंजाब कृषि में उलझा रहा है। वहां कई शहर हैं लेकिन सभी संकेतकों पर वह एक ग्रामीण राज्य नजर आता है। यश चोपड़ा की फिल्मों समेत पॉपुलर कल्चर यानी लोकप्रिय सांस्कृतिक माध्यमों ने पंजाब के हरे-भरे खेतों, सरसों, संगीत आदि को बेहद रूमानी अंदाज में पेश किया परंतु इससे यह हकीकत नहीं बदलती है कि पंजाब की हालत खराब है और वह अतीत गौरव में जी रहा है। अब उसका सामना हकीकत से हो रहा है जहां एक छोर पर मादक पदार्थ हैं तो दूसरे छोर पर प्रवास के लिए पागलपन।
विनिर्माण, सेवा और परिधान तथा होजरी जैसे बड़े रोजगार निर्माता क्षेत्रों का विस्तार रुका या उनका पराभव हुआ। पंजाब के राज्य जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी केवल 30 फीसदी रह गई है जो राजस्थान के बराबर और मध्य प्रदेश (44 फीसदी) तथा आंध्र प्रदेश (36 फीसदी) से कम है। इन सभी राज्यों में पंजाब के साथ एक बात की समानता है: उन्होंने भी निवेश, प्रतिभाओं और वृद्धि के लिए नए शहरी केंद्र नहीं स्थापित किए।
खेती के मामले में पंजाब अब मध्य प्रदेश से भी काफी पीछे है। खेल सहित तमाम क्षेत्रों में जिस रवैये ने पंजाब को पीछे धकेला, कृषि में भी वही कारक प्रमुख रहा। पंजाब कृषि कानून आंदोलन का विरोध करने वालों में सबसे आगे था और यह तथ्य भी इस बात को रेखांकित करता है।
पंजाब के समान कृषि सुधार की आवश्यकता अन्य किसी राज्य को नहीं क्योंकि उसके किसानों की प्रतिभा और उद्यमिता की बदौलत ही हरित क्रांति उत्पन्न हुई थी। इसके बावजूद उसने ही सबसे अधिक विरोध किया। इसके लिए भी वहां की राजनीति, दशकों की हताशा और वहां के युवाओं में बाहर जाने की बलवती इच्छा जिम्मेदार है।
पंजाब की यह धूसर तस्वीर किसी ऐसे व्यक्ति को नजर नहीं आएगी जो वहां कुछ समय के लिए आया हो। पंजाब में गरीबी नजर नहीं आती। वहां झुग्गियां नहीं हैं, गांवों में कच्चे घर नहीं हैं। इस बात का समर्थन करते आंकड़े भी हैं।
वहां गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोग 4.75 फीसदी के साथ न्यूनतम हैं। बड़े राज्यों में केवल तमिलनाडु और केरल का ही प्रदर्शन बेहतर है। गरीबी का यह आंकड़ा नीति आयोग की ताजा बहुआयामी गरीबी संबंधी रिपोर्ट और रेटिंग से है। तो समस्या कहां है?
पंजाब देश में सबसे कम असमानता वाले राज्यों में शामिल है। परंतु अगर समग्र जीडीपी में ठहराव है तो यह बात भी सही है कि वहां अमीरों की संख्या भी कम होगी।
मेरा यह स्तंभ द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित इलाहाबाद विश्वविद्यालय की शिक्षिता स्मृति सुमन के एक लेख से भी प्रेरित है जिन्होंने पंजाब की दिक्कतों को रेखांकित करने के लिए दो बार नवउदारवादी शब्द का इस्तेमाल किया है। हमने आंकड़े तलाशे तो मामला उलटा नजर आया। अत्यधिक नवउदारवाद का शिकार होने के बजाय पंजाब कृषि-सामंती पितृसत्ता की जकड़ में नजर आता है। राज्य को इससे निजात पाने के लिए जरूर नवउदारवाद की आवश्यकता है। या फिर गरीबी, असमानता और अमीरों की अनुपस्थिति के मद्देनजर आप इसे समाजवादी स्वप्नलोक के रूप में भी देख सकते हैं। परंतु पंजाबी इससे पीछा छुड़ाना चाहते हैं।
जालंधर के निकट लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के पास एक गुरुद्वारा है जो पूरी तरह प्रवासियों को समर्पित है। वहां आकर लोग छोटे विमानों की अनुकृति रखते हैं ताकि वाहेगुरु उन्हें जल्दी ही बाहर जाने का टिकट, वीसा और पासपोर्ट दिलाएं।
गत सप्ताह स्वर्ण मंदिर में ऐसा किए जाने पर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने श्री अकाल तख्त साहिब की सलाह पर श्रद्धालुओं से कहा कि वे दोबारा ऐसा न करें। ये तो बस विमानों की प्रतिकृति हैं जो कुछ सौ रुपये में आती हैं।
कोहरा की वीरा सोनी तो ढूंढे गए ब्रिटेन के एक अनिवासी भारतीय से विवाह करने के लिए अपने उस प्रेमी को छोड़ने को तैयार है जिसे वह प्यार करती है। जब उसकी हत्या हो जाती है तो वह एक पखवाड़े के भीतर कनाडा के एक अनिवासी को अपनाने के लिए तैयार है। पंजाब के नेताओं ने उसे नीचा दिखाया है और इसीलिए वहां के लोग बाहर निकलना चाहते हैं।