संयुक्त अरब अमीरात द्वारा जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज के 28वें संस्करण (COP28) की मेजबानी को लेकर कई सवाल खड़े किए गए थे। कॉप28 के अध्यक्ष सुल्तान अल-जाबेर अबू धाबी नैशनल ऑयल कंपनी के प्रमुख भी हैं और इस बात ने कई लोगों को चिंतित कर दिया था कि जीवाश्म ईंधन की खपत का बचाव इस कॉप में जरूरत से कहीं बड़ी भूमिका निभा सकता है।
परंतु सख्त बातचीत के बाद एक दिन की देरी से हुई कॉप28 घोषणा में एक कदम आगे बढ़ने में मदद मिली। हालांकि यह घोषणा अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया द्वारा समर्थित छोटे द्वीपीय राज्यों की सभी जीवाश्म ईंधन को ‘चरणबद्ध तरीके से समाप्त’ या ‘चरणबद्ध ढंग से कम’ करने की मांग को पूरा नहीं कर सकी, लेकिन अंतत: इसने सभी देशों का आह्वान किया कि वे ईंधन व्यवस्था में जीवाश्म ईंधन से दूर जाएं।
यह काम व्यवस्थित और न्यायसंगत तरीके से करने की बात कही गई। यह भी कहा गया कि इस ‘अहम दशक में इसकी गति तेज’ की जाए। यह भाषा इस सप्ताह के आरंभ की तुलना में अधिक दबाव वाली है। उस समय कुछ देश खासकर सऊदी अरब जीवाश्म ईंधन से संबंधित किसी भी बात को रोकने को लेकर प्रतिबद्ध नजर आ रहा था।
परंतु कॉप28 के बिना किसी मसौदा निर्णय के समाप्त हो जाने की आशंकाओं के बीच आखिरकार एक सहमति बनी। यह आशंका इसलिए उत्पन्न हुई थी कि कुछ वार्ताकारों ने बिना जीवाश्म ईंधन के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था।
बहरहाल, कॉप28 के अंतिम मसौदे के दो तत्त्व मौजूदा जीवाश्म ईंधन कंपनियों और निर्यातकों की रुचि का विषय हैं। पहला, यह कि ‘दूरी बनाने’ की बात ऊर्जा क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन तक सीमित है। कई बड़ी पेट्रोकेमिकल्स कंपनियों की भविष्य की योजनाएं तरल से केमिकल्स पाइपलाइन पर केंद्रित हैं।
उदाहरण के लिए सऊदी अरब की अरामको ने 2022 में प्रति दिन 1.15 करोड़ बैरल कच्चे तेल का उत्पादन किया। उसका अनुमान है कि 2030 तक 40 लाख बैरल रोजाना के बराबर हिस्सा केमिकल उत्पादन के लिए अलग रखा जाएगा। दूसरा, अंतिम मसौदे में एक खास संदर्भ ईंधन बदलाव से संबंधित है। यह प्राकृतिक गैस से संबंधित है। यह परिशोधित पेट्रोलियम की तुलना में 70 फीसदी कार्बन और एंथ्रेसाइट कोयले की तुलना में 50 फीसदी उत्सर्जन करती है।
इन वार्ताओं में भारत सरकार की वास्तविक स्थिति का अनुमान केवल नतीजों से ही लगाया जा सकता है। यह बात ध्यान देने लायक है कि अंतिम बातों में कोयले से बनी बिजली से जुड़ी भाषा को शिथिल कर दिया गया। इसमें कोयले का इस्तेमाल चरणबद्ध ढंग से कम करने की गति बढ़ाने की बात कही गई जबकि पहले कहा गया था कि कोयले का इस्तेमाल तेजी से कम किया जाएगा और नई कोयला आधारित बिजली परियोजनाओं को मंजूरी देने पर रोक लगाई जाएगी।
शायद यह बदलाव भारतीय वार्ताकारों की ओर से जताई गई चिंताओं की वजह से किया गया, जिन्होंने बहुपक्षीय जलवायु मंचों पर घरेलू कोयला क्षेत्र का बचाव करना जारी रखा है।
उल्लेखनीय बात है कि भारत ने नाभिकीय ऊर्जा, जलवायु और स्वास्थ्य समझौतों पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, लेकिन आगे चलकर भारत के नीति निर्माता इस विषय में अपनी स्थिति की समीक्षा कर सकते हैं। उस लिहाज से भारत और चीन ने अंतिम शब्दावली को सीधे तौर पर जीवाश्म ईंधन बदलाव से जोड़ा ताकि 2050 तक विशुद्ध शून्य का लक्ष्य हासिल किया जा सके। यह घरेलू लक्ष्यों से दशकों पहले है।
दो अन्य उल्लेखनीय रियायतों में 2030 तक वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को काफी हद तक कम करने के संदर्भ की अनुमति देना भी शामिल है। चूंकि यह पशुपालन से जुड़ा है, इसलिए भारत में यह राजनीतिक दृष्टि से बहुत संवेदनशील मसला है। वे समझौते जिन्हें विकासशील देशों को भी अगले वर्ष अगले दौर के लक्ष्य में प्रोत्साहित करना चाहिए, उन्हें भी महत्त्वाकांक्षी, अर्थव्यवस्था व्यापी उत्सर्जन कटौती लक्ष्य के साथ सामने आना चाहिए।
यह कार्बन डाइऑक्साइड और ऊर्जा क्षेत्र पर संकीर्ण ध्यान से काफी अलग है। जाहिर है समझौते की भाषा हर किसी को संतुष्ट नहीं करेगी, लेकिन यह एक अग्रगामी कदम है। जीवाश्म ईंधन का अंत पहले भी वैश्विक सहमति का हिस्सा नहीं रहा है और कॉप28 अनुमान से अधिक सफल रहा है।