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Opinion: कंपनियों को जिम्मेदार बनाता है कर्ज

बड़ी भारतीय कंपनियों के कर्ज लेने में काफी कमी आई है। इससे जहां कंपनियों के प्रबंधक सुरक्षित महसूस करते हैं, वहीं यह अर्थव्यवस्था के लिए बहुत अच्छी बात नहीं है।

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अजय शाह   
Last Updated- July 26, 2023 | 10:33 PM IST

कर्ज कंपनियों को जिम्मेदार और गतिशील बनाने का काम भी करता है। कंपनियों का पूरी तरह कर्ज मुक्त होना कई बार बहुत बेहतर स्थिति नहीं मानी जाती है। बता रहे हैं अजय शाह

बड़ी भारतीय कंपनियों के कर्ज लेने में काफी कमी आई है। इससे जहां कंपनियों के प्रबंधक सुरक्षित महसूस करते हैं, वहीं यह अर्थव्यवस्था के लिए बहुत अच्छी बात नहीं है। डेट यानी कर्ज एक ऐसा उपाय है जो कंपनियों में अनुशासन लाता है। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती है कि प्रबंधक मेहनत करें, जो अंशधारकों और समाज के हित में साबित होती है।

ऋण से इक्विटी पर प्रतिफल बेहतर होता है जो अंशधारकों के लिए लाभदायक है। कर्जग्रस्त कंपनियां दिवालिया हो जाती हैं जो रचनात्मक विध्वंस का हिस्सा है। ऐसी अर्थव्यवस्था जहां बड़ी कंपनियों पर कम कर्ज होता है वहां विविधता की कमी का जोखिम रहता है। अंशधारकों और बोर्ड को भी फर्म इस बात पर ध्यान देना चाहिए।

आर्थिक सुधारों के शुरुआती दिनों से भारत के गैर-वित्तीय कॉर्पोरेट क्षेत्र ने उधारी से दूरी बनाए रखी। सन 1991-92 में उनका ऋण-इक्विटी अनुपात 1.85 के साथ उच्चतम स्तर पर था। ताजा आंकड़ों की बात करें तो 2021-22 में यह 0.89 रहा और बाद के वर्षों में इसमें और कमी आई। आमतौर पर बाजार मूल्य के स्तर पर बैलेंस शीट की प्रस्तुति बेहतर होती है।

ऐसे में डेट प्रतिफल का मूल्य नए सिरे से तय करने में मामूली बदलाव आएगा तथा शुद्ध मूल्य भी बाजार पूंजीकरण के हिसाब से नए सिरे से तय होगा। जब हम ऋण के औद्योगिक ढांचे पर नजर डालते हैं तो केवल बिजली जैसे कुछ ही उद्योगों में ही ऐसा नजर आता है, बाकी जगहों पर यह आश्चर्यजनक रूप से कम स्तर पर है।

ऐसी स्थिति क्यों बनी इस बारे में काफी चर्चा हो चुकी है। इसके लिए जो स्पष्टीकरण दिए जाते हैं उनमें ऐसी बातें शामिल हैं: कम निवेश वाले वृहद आर्थिक माहौल में कम मांग, दिवालिया होने की लागत की आशंका के चलते कम मांग और बैंक कर्मचारियों में भय के कारण कम आपूर्ति। उनमें यह भय सर्वोच्च न्यायालय के 2016 के एक निर्णय से फैला जो भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम से संबद्ध है।

कहा जा सकता है कि कंपनियां उच्च ऋण कि दिक्कतों से निपट रही हैं लेकिन 1.85 का डेट-इक्विटी अनुपात तो 1991-92 में पाया गया था जो बहुत पुरानी बात है।

कुछ लोग कम या लगभग शून्य ऋण को सतत वृद्धि के लिए अच्छी बुनियाद मानते हैं। क्या अधिक ऋण संबंधी रणनीति से जुड़ी दिक्कतों का हल शून्य ऋण है? क्या यह भारतीय कारोबारों के अनुकूल है? कम स्तर का कॉर्पोरेट ऋण आर्थिक जीवंतता पर क्या असर डालता है? यहां तीन समस्याएं चिह्नित की जा सकती हैं:

डेट से अनुशासन आता है: कंपनियों की एक बुनियादी विशेषता है अंशधारकों के हितों और प्रबंधकों के हितों का टकराव। प्रबंधक कम प्रयास से अधिक पैसा चाहते हैं और वे चाहते हैं कि फर्म उनकी क्षमाताओं के अधीन रहे ताकि उनके पास जरूरी शक्ति बनी रहे।

अंशधारक चाहते हैं कि कंपनी का प्रदर्शन अच्छा बना रहे। इस विवाद में कर्ज लिया जाना अंशधारकों के लिए बेहतर होता है। कम कर्ज वाली कंपनी में प्रबंधक मनमानी कर सकते हैं। जब कर्ज मौजूद होता है तब प्रबंधकों पर दबाव होता है कि वे उसे चुकाने के लिए जरूरी नकदी जुटाएं। ऋण प्रबंधकों को अधिक मेहनती बनाता है। इससे आर्थिक जीवंतता आती है।

प्रबंधकों के पास हिस्सेदारी है या नहीं इससे इतर ऋण की उपस्थिति उन्हें काम करने पर विवश करती है। यह भारत के लिए खास महत्त्व रखता है क्योंकि यहां बोर्ड उतना सक्रिय नहीं रहता जबकि उसे प्रबंधकों से जवाबदेही तलब करनी चाहिए।

रचनात्मक विनाश: एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था वह है जहां फर्म नाकाम भी होती रहें। इस विफलता में कर्ज और उसे चुकाने में चूक का अहम योगदान होता है। एक बार जब कर्ज प्राय: समाप्त हो जाता है तो कई कम गुणवत्ता वाली कंपनियां भी लंबे समय तक बनी रह सकती हैं। यह संचालन की समस्या से जुड़ा मामला है और एक बार जब बोर्ड कमजोर हो और कर्ज न हो तो प्रबंधक राहत की सांस लेते हैं। यह बात आर्थिक माहौल पर असर डालती है।

इक्विटी पर प्रतिफल: सामान्य कॉर्पोरेट फाइनैंस व्यवस्था में एक सफल कारोबार कर्ज बढ़ाकर इक्विटी पर बेहतरीन प्रतिफल पाता है। देश में कई कारोबार उतने सक्षम नहीं हैं। अंशधारकों को शेयर पर कमजोर प्रतिफल मिलता है क्योंकि उन पर पर्याप्त कर्ज नहीं है। प्रबंधकों पर भी अधिक दबाव नहीं रहता है। व्यापक समाज की बात करें तो आर्थिक हालात मुश्किल होते हैं। कम कर्ज वाले माहौल के सबसे बड़ा लाभार्थी वे प्रबंधक होते हैं जो कंपनी पर नियंत्रण रखते हैं।

भारतीय कारोबारी जगत में हर व्यक्ति को अतिरिक्त नकदी के जोखिम पता हैं लेकिन यहां हमारा मुख्य मुद्दा है कम ऋण से जुड़ी समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करना। हमारे यहां इसके जोखिम से सभी वाकिफ हैं।

इस समस्या को हल करना प्राथमिक रूप से कंपनियों के दबदबे वाले अंशधारकों तथा उन बोर्ड पर होता है जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। कंपनियों के बोर्ड के बेहतर काम करने के लिए यह आवश्यक है। जब बोर्ड कंपनियों के वित्तीय ढांचे की निगरानी नहीं करते हैं तो अक्षम काम को लेकर आग्रह बढ़ता है। भारत में अब हमें ऐसी भी स्थितियां देखने को मिलती हैं जहां कंपनी का सीईओ ही बड़ा अंशधारक नहीं होता। ऐसे हालात में अंशधारकों और बोर्ड सदस्यों को पहल करनी होगी।

ऐसी नीति लागू करने में दिक्कतें भी सामने आएंगी। दिवालिया प्रक्रिया कमजोर तरीके से काम करती है और अतार्किक स्तर की दिवालिया लागत थोपती है। ये कारक बताते हैं कि कर्ज का उचित स्तर कम है, न कि ऊंचा। विभिन्न कंपनियों की बात करें तो कर्ज की आपूर्ति के क्षेत्र में भी अनेक दिक्कतें हैं। बैंक, बॉन्ड बाजार, विदेशी उधारी आदि सभी कमजोर आर्थिक नीति से प्रभावित होते हैं।

गैर वित्तीय कंपनियों की बात करें तो कम कर्ज से मध्यम कर्ज की स्थिति में जाना मुश्किल होगा। कंपनियों के वित्त विभागों तथा ग्रुप धारिता वाली कंपनियों को विशेषज्ञता विकसित करनी होगी ताकि इस दिशा में जरूरी रणनीति बना सकें तथा उसका क्रियान्वयन कर सकें।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published : July 26, 2023 | 10:33 PM IST