कोलकाता की यात्रा के दौरान मैं कुछ पुराने दोस्तों के साथ एक बार में गया। वहां कॉलेज के कुछ छात्र हो-हल्ला करते हुए बीयर पी रहे थे। हमने जिस शांतिपूर्ण माहौल की कल्पना की थी, वहां वैसा माहौल नहीं था। तब मैंने उनसे बात करने की कोशिश की। इनमें से एक ने बताया कि दाम कम होने के कारण वे लोग हर महीने दो दफा इस बार में आते हैं। उनमें से कोई काम नहीं करता और सभी नौकरी ढूंढ रहे हैं।
आखिर बार में अक्सर आने के लिए उनके पास पैसे कहां से आते हैं? असल में यह इतना मुश्किल नहीं है। वे लोन ऐप से पैसे लेते हैं। ऐप से 1,500 रुपये जैसी छोटी राशि भी मिल सकती है। फिर वे इस ऋण रकम को ट्यूशन पढ़ाकर या अपने अभिभावकों से मिले पैसे से चुका देते हैं।
अक्सर, यह भी होता है कि वे समय से पहले ही इस ऋण का भुगतान कर देते हैं जिससे उनको क्रेडिट स्कोर बेहतर करने में मदद मिलती है।
दिल्ली के मेरे एक दोस्त ने बताया कि उन्हें भी कुछ ऐसे ही युवा मिले जो इस तरह कर्ज लेते हैं। मुंबई में भी मैं कुछ लोगों को जानता हूं ( इनमें घरों में काम करने वाली बाई और कुक होते हैं) जो अपने बच्चों के जन्मदिन पर केक खरीदने के लिए ऋण देने वाले ऐप से कर्ज लेते हैं।
कर्ज की रकम तो छोटी होती है लेकिन ब्याज दर बहुत ज्यादा होती है और संभव है कि यह 30 से 60 फीसदी के बीच या इससे भी कहीं ज्यादा हो। आमतौर पर, कर्ज लेने वाले इस तरह के लोग ब्याज दर की परवाह नहीं करते और वे मुख्य तौर पर किस्त (मूलधन और ब्याज) को देखते हैं और चुकाने के लिए उनके पास पैसे आएंगे या नहीं, इसी के आधार पर वे ऋण का फैसला करते हैं।
मान लीजिए कि एक सब्जी बेचने वाली सुबह थोक बाजार से सामान खरीदने के लिए लगभग 2,000 रुपये उधार लेती है और सामान खुदरा में लगभग 3,000 रुपये में बेच देती है। ऐसे में शाम को वह खुशी-खुशी 2,000 रुपये के ऋण पर 20 रुपये ब्याज चुका देती है। मतलब कि रोजाना एक फीसदी (वास्तव में आधे दिन के लिए) की ब्याज दर के हिसाब से सालाना वह 365 प्रतिशत ब्याज चुका रही है!
सवाल यह है कि आखिर सब्जी बेचने वाले लोग साहूकार को इतना ब्याज क्यों चुकाते हैं? इसका कारण बिल्कुल साफ है यानी सहूलियत। उन्हें छोटे ऋण की यह सहूलियत बैंकिंग व्यवस्था में नहीं मिलती। इसके अलावा, पारंपरिक बैंकिंग व्यवस्था में ऋण लेने वालों की क्रेडिट पात्रता भी देखी जाती है। वहीं साहूकार या कर्ज देने वाले विकल्प में यह सब झंझट नहीं होता है और उन्हें पैसा तुरंत मिल जाता है। वे मुनाफा और राजस्व साझेदारी के बिजनेस में होते हैं।
डिजिटल ऋण देने वाले ऐप वास्तव में तकनीकी साहूकार हैं। हम इन्हें ‘अभी लो, बाद में चुकाओ’, ‘तनख्वाह की एवज में मिलने वाला कर्ज’ (वेतनभोगी वर्ग के लिए), आसान ऋण या जरूरत से ज्यादा ब्याज वसूलने वाला ऋण कह सकते हैं।
कुछ ऐप ग्राहकों की अलग-अलग दो श्रेणियों के लिए काम करते हैं जिसके तहत कोई बिना किसी गारंटी के 500 रुपये से 5,000 रुपये तक का व्यक्तिगत ऋण ऊंची ब्याज दर पर ले सकता है और वेतन पाने वाले लोगों को (उनके वेतन का चैक जमानत का काम करता है) कम ब्याज दर पर 5,000 रुपये से 50,000 रुपये तक का ऋण मिल जाता है। अगर ये लोग समय पर ऋण चुका देते हैं तो उनका क्रेडिट स्कोर बढ़ जाता है और मुमकिन है कि भविष्य में बैंकिंग तंत्र उन्हें ऋण देने के योग्य मान ले।
भारत के वित्तीय क्षेत्र की जो तस्वीर सामने आ रही है,उसमें दिख रहा है कि गरीब और बेरोजगार युवा जोखिम को समझे बगैर इस तरह के उपभोग ऋण ले रहे हैं। तो फिर ऐसे में क्या किया जा सकता है? सूदखोरी ऋण अधिनियम, 1918 ऐसे मामलों में अदालत के हस्तक्षेप की बात करता है, लेकिन यह झांसा देकर दिए गए उधार या सूदखोरी के मकसद से दिए जाने वाले ऋण को परिभाषित नहीं करता है।
इसमें ब्याज दर 30 प्रतिशत, 60 प्रतिशत या इससे भी अधिक है, इसको लेकर स्पष्टता नहीं है। यह कानून अदालतों को यह अधिकार देता है कि अधिक ब्याज दर वसूलने और कर्ज लेने वालों के प्रति यह अनुचित हो तो वह हस्तक्षेप करे। जाहिर है, हर चीज संदर्भ पर निर्भर करती है। हालांकि यह कानून निजी ऋणों के मामलों के लिए ही है।
बैंकों और वित्तीय संस्थानों का नियमन भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के नियमों के तहत किया जाता है। बैंकिंग नियमन अधिनियम, 1949 की धारा 21ए कहती है कि अगर आपने किसी बैंक या वित्तीय संस्थान से ऋण लिया है और आपको लगता है कि ब्याज दर बहुत ज्यादा है तब भी वह अदालत की जांच के दायरे में नहीं आएगा।
अगस्त 2008 में राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने फैसला दिया था कि क्रेडिट कार्ड ऋण पर सालाना 30 फीसदी से ज्यादा ब्याज लेना एक अनुचित कारोबारी तरीका है। लेकिन, बैंकों ने इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही उच्चतम न्यायालय में अपील करके स्थगन आदेश ले लिया।
भारत में मार्च 2022 तक सूक्ष्म ऋणों पर ब्याज की सीमा तय थी। लेकिन अब उन ऋणों की ब्याज दरें बाजार के हिसाब से तय होती हैं। बैंक और ऋण देने वाले ऐप दोनों किसी भी ब्याज दर पर ऋण दे सकते हैं, बशर्ते वे सारी जानकारी स्पष्ट रूप से ऋण लेने वाले को दें।
इसका मतलब यह है कि कर्ज देने वाला अगर ज्यादा ब्याज दर वसूल रहा है और उसने पूरी पारदर्शिता से ऋण की लागत की जानकारी दे दी है और कर्ज लेने वाले को कोई एतराज नहीं है तब आरबीआई इस मामले में कुछ भी नहीं कर सकता है। यह अलग बात है कि कर्ज लेने वाले इसके जोखिम को समझे बिना ही कर्ज के जंजाल में फंस रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि नियामक ने अपनी आंखें पूरी तरह से बंद कर रखी हैं। उसे भी पता है कि कुछ निष्क्रिय गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां अपना लाइसेंस ऋण देने वाले ऐप को दे रही हैं।
आरबीआई के एक कार्यसमूह ने डिजिटल मंचों पर ऋण लेने-देने को लेकर दो प्रमुख सिफारिशें की हैं। इसके मुताबिक एक स्वतंत्र निकाय-डिजिटल इंडिया ट्रस्ट एजेंसी (डिजिटा) का गठन किया जाए जो डिजिटल ऐप की तकनीकी साख का सत्यापन करे।
इसके अलावा अनियमित ऋण गतिविधि प्रतिबंध अधिनियम (बुला) की सिफारिश की गई है, जिसके तहत उन सभी मंचों और इकाइयों को लाया जाए जिन्हें केंद्रीय बैंक ने किसी भी व्यक्ति को ऋण देने की अनुमति नहीं दे रखी है। ऐसा कब तक होगा, इसका इंतजार करना होगा। तब तक यह मानना ही होगा कि डिजिटल ऋण के क्षेत्र में स्पष्ट नियम और कानून नहीं हैं।
(लेखक जन स्माल फाइनेंस बैंक में वरिष्ठ सलाहकार हैं।)