लेख

बाढ़ और जल संकट की चेतावनी: नदियों का संरक्षण आर्थिक स्थिरता के लिए जरूरी

पिछले कुछ महीनों के दौरान मॉनसून देश भर में छाया और शहरों में बाढ़ का पानी घुसने की घटनाएं बढ़ती गईं। इससे पता चलता है कि यह संकट कितना गहरा गया है।

Published by
अमित कपूर   
विवेक देवरॉय   
Last Updated- September 20, 2024 | 10:00 PM IST

पर्यावरण संरक्षण और शहरी विकास के बीच विरोधाभास पर न जाने कितनी बार बहस हो चुकी है। अक्सर ऐसी बहसों और चर्चाओं का अंत प्रकृति और मानव के बीच सामंजस्य बनाए रखने पर जोर देने वाले भाषणों के साथ होता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन से जुड़े संकट गहराने के बाद ये बहसें हमें आगाह करने लगी हैं और इनमें भविष्य के खतरों की चेतावनी भी मिलने लगी है।

पिछले कुछ महीनों के दौरान मॉनसून देश भर में छाया और शहरों में बाढ़ का पानी घुसने की घटनाएं बढ़ती गईं। इससे पता चलता है कि यह संकट कितना गहरा गया है और इस पर काम करना कितना जरूरी है। नदी क्षेत्रों में अतिक्रमण के नतीजे काफी भयावह होते हैं और यह बात वडोदरा तथा विजयवाड़ा में हाल में आई बाढ़ से सिद्ध हो चुकी है।

पिछले महीने वडोदरा के कई हिस्से पानी में डूब गए और खबरों के अनुसार तीन दिन तक वहां 8 से 12 फुट ऊंचा पानी भरा रहा। इसके कारण शहर में बिजली गुल रही, टेलीफोन तथा इंटरनेट नेटवर्क ठप हो गया और रिहायशी इलाकों में मगरमच्छ तथा सांप पहुंच गए। इस स्थिति के लिए विश्वामित्री नदी के इर्द-गिर्द अतिक्रमण को बड़ा कारण बताया जा रहा है। लगभग एक सदी पुराने जलाशय अजवा और प्रतापपुरा अतिक्रमण के कारण लबालब भर गए और इनसे निकला पानी नदी का जल स्तर बढ़ाने लगा।

इसी तरह विजयवाड़ा में हाल में आई बाढ़ का प्रमुख कारण बुडामेरु नदी से जुड़ी नहर के इर्द-गिर्द अतिक्रमण बताया जा रहा है। स्थिति इतनी गंभीर थी कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडु को इस नहर से अतिक्रमण हटाने के लिए ‘ऑपरेशन बुडामेरु’ की घोषणा करनी पड़ी। राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली भी मॉनसून में यमुना का जल स्तर बढ़ने के कारण लगातार बाढ़ की चपेट में आ रही है।

दिल्ली विकास प्राधिकरण के 2021 के मास्टर प्लान के अनुसार दिल्ली में यमुना का बाढ़ क्षेत्र करीब 97 वर्ग किलोमीटर में है, जो दिल्ली के कुल क्षेत्रफल का लगभग 7 प्रतिशत बैठता है। किंतु मास्टर प्लान में कहा गया है कि यमुना नदी के दोनों तरफ अतिक्रमण बढ़ने से शहर में इसका बहाव बहुत संकरा हो गया है। वृद्धि की प्रक्रिया और शहरी केंद्रों में बदलाव की सीधी मार मानव बस्तियों और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को झेलनी पड़ रही है। पारिस्थितिक संतुलन के लिहाज से महत्त्वपूर्ण नदी के बेसिन पर इस तरह के अतिक्रमण से कई गंभीर पर्यावरणीय और सामाजिक परिणाम हो सकते हैं।

आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने नगरीय नियोजन (म्युनिसिपल प्लानिंग) और विकास प्राधिकरणों के लिए 2021 में नदी केंद्रित शहरी नियोजन दिशानिर्देश जारी किए, जिनका उद्देश्य नदी के नजदीक होने वाले विकास पर नियंत्रण रखते हुए टिकाऊ नदी प्रबंधन सुनिश्चित करना था। शहरों में आबादी बढ़ने एवं शहरों की सीमाओं का विस्तार होने का सीधा नतीजा प्राकृतिक संसाधनों खासकर नदियों के आवश्यकता से अधिक इस्तेमाल और शोषण के रूप में दिख रहा है। यह स्थिति बदतर होती जा रही है। प्रदूषण स्तर बढ़ने और शहरों में पानी की मांग पूरी करने के लिए नदियों के जल के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण नदी से सटे निचले इलाकों को नुकसान पहुंच रहा है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष 2022 में एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन में सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में 603 नदियों का जायजा लिया गया, जिनमें 279 नदियों में 311 हिस्से प्रदूषित पाए गए थे। अपशिष्ट पदार्थों के नदियों में पहुंचने, अवैध निर्माण, ड्रेजिंग (नदी सतह की सफाई) के जरिये नदियों से अधिक पानी लेने और उनका रास्ता बदलने के कारण जल की गुणवत्ता, जल तंत्र एवं भूमिगत जल की गुणवत्ता पर लगातार असर हो रहा है।

शहरीकरण की रफ्तार बढ़ने से भूमि उपयोग के तौर-तरीकों में बदलाव आ रहा है, जिससे नदियों के बेसिन भी बदल रहे हैं। नदियों के बेसिन के साथ छेड़-छाड़ का तात्कालिक असर बाढ़ की विभीषिका के रूप में दिख रहा है। दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में तेजी के साथ शहरीकरण होने से नदियों के किनारे अतिक्रमण बढ़ गया है और जल जमाव एवं बाढ़ वाले क्षेत्रों में आवासीय एवं वाणिज्यिक इलाके तैयार कर दिए गए हैं।

नतीजा यह हुआ है कि मॉनसून के दौरान इन प्राकृतिक क्षेत्रों की जल सोखने की क्षमता कम हो गई है। नदियों के बेसिन में बिगड़ाव के कारण स्वच्छ जल की कमी का संकट उत्पन्न हो रहा है। भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां जल संकट बढ़ता जा रहा है। यहां दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है मगर कुल वैश्विक जल संसाधन का 4 प्रतिशत हिस्सा ही यहां पर है। जल के अनियोजित इस्तेमाल, प्रदूषण और नदियों के कुप्रबंधन के कारण जल संकट की आशंका प्रबल हो गई है। स्वच्छ जल क्षेत्र तेजी से कम हो रहे हैं, जिससे पानी की किल्लत और भी बढ़ती जा रही है।

नदियों का सिकुड़ना एवं क्षरण उन बड़ी चुनौतियों में शामिल हैं, जिन पर देश को तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। हम अपने शहरों को 2050 तक देश की 50 प्रतिशत आबादी संभालने के लिहाज से तैयार कर रहे हैं, इसलिए नदी पुनरुद्धार और पुनर्ग्रहण के मॉडलों को शहरों के डिजाइन में शामिल करना जरूरी हो गया है। इन मॉडलों में नदियों का जल सूखने की समस्या का समाधान, नदियों का सौंदर्य बढ़ाना, इसके प्रति जागरूकता बढ़ाना और नदी के जल की गुणवत्ता बेहतर करने के लिए जल निकासी की टिकाऊ व्यवस्था लागू करना शामिल हैं।

पर्यावरण संरक्षण, जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम खत्म करने तथा टिकाऊ विकास से जुड़े लक्ष्यों की पूर्ति पर भी नदियों के बेसिन का संरक्षण गहरा असर डालता है। नदियां स्वच्छ जल देती हैं, किसी भी स्थान की जलवायु को नियंत्रण में रखती हैं, जैव विविधता के केंद्र तैयार करती हैं और कृषि तथा आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं। पर्यावरण और आर्थिकी के लिहाज से भारत का भविष्य नदी तंत्र को सुरक्षा दिए बगैर और उसका पुनरुद्धार किए बगैर महफूज नहीं है।

नदियों के बेसिन को नुकसान पहुंचने के खतरे देखकर तत्काल कई मोर्चों पर ध्यान देने की जरूरत है। इसके लिए शहरी विकास में अधिक सख्त नियमन होना चाहिए और जमीन के इस्तेमाल के कानून भी सख्त होने चाहिए ताकि प्राकृतिक जल निकासी तंत्र का अतिक्रमण नहीं हो।

साथ ही नदियों के किनारे वन क्षेत्र तैयार करने, महत्त्वपूर्ण जल संभरणों में सुरक्षित क्षेत्र बनाने और जल प्रबंधन के टिकाऊ तरीके लागू करने जैसे उपायों के जरिये नदी तंत्र को सुधारना भी होगा। जल संसाधनों के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक बनाना और सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करना भी नितांत जरूरी है।

(कपूर इंस्टीट्यूट फॉर कंपटीटिवनेस के अध्यक्ष हैं और देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष हैं। आलेख में जेसिका दुग्गल का भी योगदान)

First Published : September 20, 2024 | 9:39 PM IST