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एक सितंबर को थ्यानचिन से लौटने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ट्वीट करके अफगानिस्तान में आए भूकंप को लेकर दुख प्रकट किया। इस पर ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने भी ट्वीट के जरिये प्रतिक्रिया दी। सिंह अकाल तख्त और तख्त श्री दमदमा साहिब गुरुद्वारा के पूर्व मुख्य पुजारी हैं। वह खुद को सिखों की धार्मिक राजनीति का दावेदार मानते हैं जो शिरोमणि अकाली दल द्वारा खतरनाक ढंग से विभाजित हो चुका है। इस राजनीतिक-धार्मिक निर्वात में ज्ञानी नवां (नए) अकाली दल के प्रमुख के रूप में अपनी जगह तलाश रहे हैं।
वह खुद को टूटे धड़े का नेता कहे जाने पर आपत्ति करते हैं। वह जोर देकर कहते हैं कि सुखबीर सिंह बादल का अकाली दल टूटा हुआ धड़ा है। इसके अलावा सिख राजनीति में तीसरी ताकत है अमृतपाल सिंह का शिरोमणि अकाली दल (वारिस पंजाब दे) । खतरनाक ताकतें खासकर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) इसका लाभ ले रही हैं।
वह अक्सर ट्वीट करते हैं और वह भी पंजाबी (गुरमुखी) में। अब उनके ट्वीट में बाढ़ की विभीषिका ही नजर आती है। नई दिल्ली का विरोध सिख धार्मिक राजनीति के केंद्र में है और ज्ञानी जी ने तुरंत अफगानिस्तान पर प्रधानमंत्री के ट्वीट को लपक लिया और लिखा, ‘प्रधानमंत्री जी, यह अच्छी बात है कि आपने अफगानिस्तान से सहानुभूति जताई है लेकिन पंजाब भी देश का हिस्सा है। जहां करीब 1,500 गांव और 3,00,000 लोग 17 अगस्त से ही बुरी तरह प्रभावित हैं। आपका पंजाब पर ध्यान नहीं देना बहुत कष्टप्रद है।’
इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री को तीन पन्नों का खत लिखा और उसे अपने एक्स हैंडल पर शेयर कर दिया। अब हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री ने वापस आते ही तत्काल पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान से बात की और हर प्रकार के सहयोग का वादा किया। केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया। वह पैदल चले और कई बार घुटनों तक पानी में भी। परंतु पंजाबियों के लिए यह कोई सांत्वना नहीं है।
दशक के अपने सबसे कठिन समय में वह उम्मीद कर रहे होंगे कि प्रधानमंत्री वहां आएंगे। भले ही वह भारतीय जनता पार्टी से हैं, जिनके लिए आमतौर पर पंजाब के सिख मतदान नहीं करते। अगर प्रधानमंत्री पिता, बड़े भाई जैसे या सभी भारतीयों के लिए परिवार के मुखिया जैसे हैं तो वह क्यों नहीं आए? क्या हम पंजाबी (खासकर सिख) परिवार के सदस्य नहीं हैं? अगर उनके पास बिहार जाने का समय है तो वह पंजाब क्यों नहीं आ सकते? तीन कृषि कानूनों के समय जो अलगाव का भाव उत्पन्न हुआ था वह इससे बढ़ रहा है। सिख समुदाय के लिए यह दिल्ली के पुराने संदेहपूर्ण व्यवहार की ही पुष्टि है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस तरह अब तक हमने ‘आंखों से ओझल, दिल से दूर’ की उपमा पूर्वोत्तर के संदर्भ में इस्तेमाल की है, वही उपमा अब एक ऐसे राज्य पर भी लागू होती दिख रही है जो भौगोलिक रूप से बेहद करीब है, राजनीतिक रूप से संवेदनशील है, और रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण भी। वरना प्रधानमंत्री लौटते ही सबसे पहले यहां आते। भाजपा जैसी चतुर पार्टी की इस समझ के आधार पर दो संभावित कारण हो सकते हैं। पहला यह कि पार्टी और प्रधानमंत्री उस राज्य और उसके सिख समुदाय से नाराज हैं, क्योंकि दिल्ली में कृषि कानूनों के खिलाफ जो आंदोलन हुआ था, उसमें मुख्य भूमिका इसी समुदाय की थी। वहीं विदेश में बसे कुछ सिखों द्वारा चलाए जा रहे अलगाववादी अभियानों ने इस पीड़ा को और बढ़ा दिया है।
तथ्य यह है कि उस समय भी केंद्र और राज्य (तब कांग्रेस) सरकारों के बीच संवाद और विश्वसनीयता की कमी वजह बनी थी। तब ‘किसान नेता’ हर तरफ से वहां आ गए। इनमें वैचारिक वाम, धार्मिक दक्षिण से लेकर अराजकतावादी तक सभी शामिल थे।
इसके चलते केंद्र से भारी नाराजगी हो गई। भाजपा में सबकुछ जीत लेने की मानसिकता है। वे हर उस राज्य में जीतना चाहते हैं जहां उनका कोई खास कद नहीं रहा। तमिलनाडु, तेलंगाना, केरल और पश्चिम बंगाल के उदाहरण हमारे सामने हैं। इन चारों राज्यों पर उसका खासा जोर था। असम, त्रिपुरा और मणिपुर में पार्टी दशकों तक संघ प्रचारकों की कड़ी मेहनत के बाद जीतने में कामयाब रही। लेकिन पंजाब क्यों नहीं?
पंजाब में भाजपा केवल एक बार सत्ता में रही और वह भी शिरोमणि अकाली दल के कनिष्ठ साझेदार के रूप में। यह कदम अटल बिहारी वाजेपयी ने 1990 के दशक में उठाया था। भाजपा के मौजूदा नेतृत्व ने पंजाब में अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। पार्टी को किसी सीट पर जीत तो नहीं मिली लेकिन उसका मत प्रतिशत 2022 के विधान सभा चुनाव के 6.6 फीसदी से तीन गुना होकर 2024 के लोक सभा चुनाव में 18.56 फीसदी हो गया। अकाली दल का मत प्रतिशत उससे कम यानी 13.2 फीसदी रहा। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों को 26-26 प्रतिशत मत मिले।
भाजपा निरंतर चुनाव के लिए काम करने वाला दल है और उसके कमांडर सोच सकते हैं कि अगर सिखों के वोट शिरोमणि अकाली दल, कांग्रेस और कट्टरपंथियों में बंट गए और हिंदू मत एकजुट हो गए तो पार्टी सत्ता में आ सकती है। जिन जगहों पर मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं वहां हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करके चुनाव जीतना आसान है लेकिन पंजाब में यह संभव नहीं है। वहां सिख बहुसंख्यक हैं।
पिछले लोक सभा चुनाव में भी अकाली दल का प्रदर्शन इतना खराब इसलिए रहा क्योंकि उसके आधे वोट यानी करीब 13 फीसदी वोट कट्टरपंथियों को चले गए। चाहे किसी को पसंद हो या नहीं, पंजाब इस समय एक गंभीर समस्या का सामना कर रहा है। वह है कट्टरपंथियों की बढ़ती लोकप्रियता। यह स्थिति तब पैदा हुई है जब अकाली दल के प्रति लोगों का मोहभंग बढ़ रहा है और भाजपा को ध्रुवीकरण करने वाली पार्टी के रूप में देखा जा रहा है।
अनेक नए यूट्यूब चैनल और सोशल मीडिया हैंडल दुष्प्रचार कर रहे हैं। वे चालाकी से यह संदेश दे रहे हैं कि मुस्लिम और सिख दोनों एकेश्वरवादी हैं इसलिए उनके बीच कोई वास्तविक समस्या नहीं है। असल दिक्कत हिंदुओं की वजह से है और सिखों को अलग ढंग से सोचने की आवश्यकता है। यह दुष्प्रचार पंजाबियत का भी कार्ड खेलता है। यानी साझा संस्कृति, भाषा, संगीत और सीमाओं के पार के सांस्कृतिक रिश्ते की।
मैंने इनमें से कई देखे हैं। इनमें से कई लोकप्रिय पॉडकास्ट कनाडा और ब्रिटेन के सिखों द्वारा संचालित हैं। वे बेहद दबे ढंग से राजनीति की बातें करते हैं। मैंने कनाडा से प्रसारित 66 मिनट का एक शो देखा जहां एंकर पाकिस्तानी वायुसेना के एक पुराने अधिकारी से ऑपरेशन सिंदूर के बारे में बात कर रहा था। इसमें भारतीय वायुसेना की खूब तारीफ की गई थी लेकिन साथ ही एक संदेश भी था कि पाकिस्तान की छोटी सी वायु सेना ने कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। पंजाब में यह सब खूब देखा जा रहा है। आईएसआई और उसकी जनसंपर्क शाखा को सिख और पंजाब आसान शिकार नजर आ रहे हैं।
जो राष्ट्र अपने इतिहास से नहीं सीखता, उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। लगभग 60 वर्ष पहले मिजोरम (तब असम का लुशाई हिल्स जिला) में बांस के फूलों के कारण चूहों के जरिये भुखमरी की हालत बन गई थी। बांस के फूलों में मौजूद एल्कलॉइड ने चूहों को अत्यधिक प्रजननशील बना दिया और उन्होंने अनाज के सारे भंडार खा लिए, जिससे लोग भुखमरी का शिकार हो गए।
जब राज्य सरकार असहाय हो गई और केंद्र बहुत दूर था, तब ललडेंगा, जो अपनी बटालियन में समस्याओं के बाद सेना से निकाले गए थे, वे सामने आए और मिजोरम नेशनल फैमिन फ्रंट (एमएनएफएफ) की स्थापना की। यह संगठन 1966 की शुरुआत में मिजो नेशनल फ्रंट बन गया और अगले दो दशकों तक चीन और पाकिस्तान के सहयोग से उग्रवाद चलाता रहा।
भारत को वही गलती फिर नहीं दोहरानी चाहिए और इस बार यह पंजाब के संदर्भ में है। एक आपदा वास्तव में केंद्र सरकार, प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के लिए पंजाब के साथ खड़े होने का एक बड़ा अवसर है। राजनीतिक रूप से भाजपा के लिए यह एक अवसर है कि वे राज्य के साथ ऐसा रिश्ता बनाएं जैसा पहले कभी नहीं था। भारत की यह जिम्मेदारी है कि वह पंजाब और उसके लोगों के लिए हर संभव प्रयास करे। उनके स्नेह और योगदान के बिना भारतीय गणराज्य अकल्पनीय है।