टी एन नाइनन ने 9 जुलाई को बिज़नेस स्टैंडर्ड में एक आलेख लिखा था, जिसमें उन्होंने बुनियादी ढांचे पर मोटे निवेश और यातायात में कम वृद्धि पर अचरज जाहिर किया था। इस चिंता से एक और सवाल पैदा होता है कि ऊंची वृद्धि हासिल करने में बुनियादी ढांचे में निवेश की क्या भूमिका है? 1990 के दशक के प्रारंभ में तर्क दिया जाता था कि बुनियादी ढांचे पर ज्यादा निवेश से ज्यादा वृद्धि होगी। आज दिक्कतें कहीं और नजर आती हैं।
भारत का वैश्वीकरण से मेल 1990 के दशक के प्रारंभ में शुरू हुआ। हमने बाहरी दुनिया को लेकर अपना संदेह त्याग दिया और वैश्वीकरण की राह की अड़चनें हटा दीं। इसकी 1991 से 2011 के बीच तगड़ी वृद्धि में अहम भूमिका रही। जब व्यापार और पूंजी नियंत्रणों को हटाया गया तो आर्थिक स्वतंत्रता, पश्चिम का विरोध, आत्मनिर्भरता और निर्यात को लेकर निराशावाद जैसे विषयों के बारे में दशकों की रूढि़वादिता अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन से गलत साबित हो गई।
अधिकांश वैश्विक उत्पादन ‘वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं’ में होता है। वैश्विक कंपनियां (जिनमें भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी शामिल हैं) कम लागत आने वाली जगहों पर ही उत्पादन करती हैं। कलपुर्जे और सब-असेंबली दुनिया भर में फैल गई हैं क्योंकि उत्पादन कम लागत वाली जगहों पर चरणबद्ध तरीके से होता है। भारत को अपने यहां सस्ते श्रम के रूप में बढ़त हासिल है। इसका मतलब है कि देश के सुदूरवर्ती इलाकों में बहुत से अच्छे उत्पादन स्थान हैं। इसके लिए अच्छे बुनियादी ढांचे की जरूरत है ताकि माल का भारत के बंदरगाहों या हवाई अड्डों पर और फिर उत्पादन केंद्रों तक कम लागत में आवागमन संभव हो सके।
इस कहानी में यह दावा किया जाता है कि सुदूरवर्ती इलाकों में संपर्क मार्ग बनाने से कंपनियां आएंगी। ये कंपनियां वहां कलपुर्जे और सब-असेंबली भेजेंगी, कम वेतन में कामगार भर्ती करेंगी, जो कुछ निश्चित कार्य करेंगे और फिर इन क्षेत्रों से सब-असेंबली या तैयार माल उत्पादन केंद्रों या दुनिया भर के बाजारों को भेज देंगी। इस कहानी के हिसाब से बुनियादी ढांचे में निवेश से निजी निवेश और फिर निरंतर रोजगार की स्थितियां पैदा होती हैं।
बुनियादी ढांचे में निवेश अपने आप लगातार रोजगार या वृद्धि पैदा नहीं करता है। यह एक लक्ष्य को हासिल करने का साधन है। यह ऐसी दशाएं पैदा करता है, जिसमें निजी निवेश रोजगार वृद्धि पैदा करता है। निजी निवेश से सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि और समृद्धि होती है, जिससे रोजगार पैदा होते हैं। बुनियादी ढांचे में निवेश का असर तभी दिखता है, जब इसके बाद निजी निवेश हो।
1990 और 2000 के दशक के बेहतरीन विशेषज्ञों ने खुद को उन संस्थागत ढांचों की स्थापना के लिए समर्पित किया था, जिनके जरिये बुनियादी ढांचे में सुधार किया जा सके। हम उन लोगों के योगदान की प्रशंसा करते हैं, जिन्होंने दूरसंचार में सरकारी नियंत्रण खत्म किया और भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण, दिल्ली मेट्रो, कोचीन हवाई अड्डे तथा जवाहरलाल नेहरू पत्तन न्यास में विभिन्न प्रतिस्पर्धी टर्मिनल की स्थापना की।
शुरुआती वर्षों में एक संस्थागत ढांचा स्थापित किया गया और फिर इसमें अच्छी मात्रा में पूंजी लगाई गई। इसके नतीजे हमें अपने आसपास देखने को मिल रहे हैं। बंबई और दिल्ली में अच्छे हवाई अड्डे और कुछ अच्छी मेट्रो लाइनें हैं। पिछले छह साल के दौरान राजमार्गों के निर्माण में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है। हवाई जहाज के टिकट काफी सस्ते हो गए हैं, इसलिए मध्यम वर्ग उड़ान भर रहा है। अब सभी जगह बैंडविड्थ उपलब्धता संतोषजनक है, जिससे आईटी और आईटीईएस उद्योग पिछले काफी समय से कनेक्टिविटी में दिक्कतों को भूल गए हैं। व्यापक बुनियादी ढांचा उद्योग लगातार धीरे-धीरे बढ़ रहा है और नई परिसंपत्तियों का निर्माण कर रहा है। लेकिन अब एक कदम पीछे हटने और मुख्य प्रस्ताव पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। क्या बाध्यकारी अवरोध-ऐटम और इलेक्ट्रॉन की गति में घर्षण है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था को रोक रहा है? सबसे बड़ी परेशानी वाला तथ्य यह है कि निजी निवेश की लय खत्म हो गई है, जो 2011 में शुरू हुई थी। अगर हमने यह माना है कि बुनियादी ढांचे के निर्माण का निजी निवेश पर असर पड़ेगा तो निजी निवेश के नतीजे अलग आने चाहिए थे।
परिवहन की कम लागत से हमेशा मदद मिलती है, लेकिन इससे फिर बहुत सी चीजें होती हैं। क्षेत्रीय दृष्टिकोण शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल पर ज्यादा खर्च के प्रस्ताव पैदा करते हैं। आर्थिक सोच के लिए जरूरी है कि वह बाध्यकारी अवरोध को चिह्नित करे और दूर करे। ऐसा सोचना सही लगता है कि 1990 के दशक में वैश्वीकरण की समर्थक नीतियों ने वैश्विक मूल्य श्रृंखला में निजी निवेश के लिए नई संभावनाएं पैदा कीं और उस समय परिवहन में अड़चनें बंधनकारक अवरोध थे। वर्ष 2011 से बुनियादी ढांचे में बढ़ोतरी और निजी निवेश की वृद्धि में गिरावट के सरल ग्राफ दर्शाते हैं कि आज यह स्थिति नहीं है।
इस तर्क में कोई भी पूर्ण निजी निवेश वाली परियोजनाओं में दखल नहीं देता है। अगर किसी निजी व्यक्ति को लगता है कि इक्विटी पर अच्छा प्रतिफल अर्जित किया जा सकता है तो उसे हमेशा जोखिम लेने और एक परिसंपत्ति बनाने की काबिलियत रखनी चाहिए। अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि वह कोई परिसंपत्ति बनाने में पैसा कमा सकता है तो उसका ऐसा करने के लिए हमेशा स्वागत किया जाना चाहिए।
लेकिन यह तर्क सार्वजनिक व्यय के मामले में आड़े आता है। सार्वजनिक धन को खर्च करने में बड़ी बाधा है। यह बाधा सार्वजनिक कोष की सीमांत लागत है, जिसमें सरकार के एक रुपया खर्च करने की अर्थव्यवस्था पर शायद 3 रुपये लागत आती है। किसी भी सार्वजनिक खर्च के प्रस्ताव को लेकर हमें इस बात को लेकर सुनिश्चित होना चाहिए कि समाज को कुल लाभ बहुत बड़ा होगा, जो करदाता द्वारा चुकाए जाने वाले धन का तीन गुना से अधिक होगा । इसे सार्वजनिक बुनियादी ढांचे पर व्यय में लागू करना मुश्किल है। भारत में बुनियादी ढांचा बढ़ाने वाली सरकार की अगुआई वाली पहलों में चीनी समस्या का संकेत है, जिसमें तेजी से बढ़ते अकुशल सरकारी निवेश से अर्थव्यवस्था के पूंजी-उत्पादन अनुपात में वृद्धि घट रही है। 2011 के बाद की अवधि में निजी निवेश की वृद्धि में नरमी क्यों आई? हमें बंधनकारक अड़चनों को चिह्नित और समाधान करने की जरूरत है। विजय केलकर और मैंने इस पर एक किताब लिखी थी। हमारा मत है कि निजी क्षेत्र की राह में बाधा दखलंदाजी वाली सरकार, नीतिगत जोखिम, सार्वजनिक प्रणाली में खामियां जैसे कर प्रणाली तथा नियामकों जैसी सख्त सरकारी एजेंसियों का कानून का पालन नहीं करना हैं।
भारत में कच्चे माल को सुदूरवर्ती इलाकों में पहुंचाने और फिर सब-असेंबली को बाहर ले जाना अब कोई अड़चन नहीं है। समस्या कर प्रणाली, पूंजी नियंत्रणों, कानूनी जोखिम और अचानक नीतिगत बदलावों और एजेंसियों एवं नियामकों से संबंधित डरों में है। इसके अलावा हमें यह अचरज कराना चाहिए कि रोजगार कम क्यों हैं, लेकिन आबादी के कुछ हिस्सों में वेतन अधिक है। शायद कल्याणकारी कार्यक्रम श्रम की आपूर्ति में गड़बड़ी पैदा कर रहे हैं। बहुत से गैर-आर्थिक कारक महिला श्रम की आपूर्ति में बाधा हैं। अगर महिला श्रम की आपूर्ति बढ़ जाए तो वेतन को घटाने में मदद मिलेगी और ज्यादा निवेश एवं रोजगार को बढ़ावा मिलेगा।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधार्थी हैं)