लेख

जीएसटी सुधार पर दूरदर्शी सोच की दरकार

राजस्व में कमी के डर से जीएसटी दरों को वाजिब बनाने से हिचकना दूरदर्शिता की कमी को दर्शाता है। बता रहे हैं एम गोविंद राव

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एम गोविंद राव   
Last Updated- September 23, 2024 | 10:29 PM IST

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) परिषद की बैठक में अब कुछ खास नहीं रह गया है। आम तौर पर इनमें जीएसटी दरों में कुछ फेरबदल किया जाता है और फौरी जरूरतों के हिसाब से छोटे-मोटे प्रशासनिक बदलाव किए जाते हैं। मगर कर संरचना में व्यापक सुधार कर इसे श्रेष्ठ बनाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया जाता।

लगता है कि जीएसटी परिषद मानती है कि कर प्रणाली अब स्थापित हो गई है, इससे जुड़े लोग इसके अभ्यस्त हो चुके हैं तथा इसे स्वीकार भी कर चुके हैं। परिषद की बैठकों में निर्णय फौरी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं और पूरी कवायद मामूली सुधार तक ही सीमित रहती है। यानी जीएसटी परिषद की बैठक में दीर्घकालिक फैसले नहीं लिए जाते हैं और सोचने एवं निर्णय लेने का दायरा काफी सीमित होता है।

दूर तक नजर रखते हुए कर के साथ जुड़ी तीन लागत कम करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया जाता। ये लागत हैं – संग्रह पर होने वाला खर्च, अनुपालन पर खर्च और आर्थिक विकृति। इस सोच में राजस्व गंवाने का डर और राजस्व में कमी लाए बगैर बेहतर कर व्यवस्था तैयार करने के लिए बुनियादी शोध की कमी साफ दिखती है।

इसलिए अचरज नहीं हुआ, जब जीएसटी परिषद की 9 सितंबर की बैठक में विदेशी विमानन कंपनियों द्वारा आयात की जाने वाली सेवाओं को छूट, कैंसर की दवाओं और हेलीकॉप्टर यात्रा पर शुल्क में कमी और जीवन एवं स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम पर जीएसटी की समीक्षा तथा मुआवजा उपकर के लिए दो अलग-अलग समितियों के गठन का फैसला जैसे मामूली निर्णय ही लिए गए। ये सभी फैसले तात्कालिक जरूरत ध्यान में रखते हुए लिए गए यानी इनके पीछे व्यापक सुधार या भविष्य की जरूरतों की फिक्र नहीं है।

जीएसटी की मौजूदा व्यवस्था पर्याप्त रूप से कारगर नहीं है और यदि राजस्व सुनिश्चित करते हुए इसे प्रतिस्पर्द्धी बनाना है तो बड़े सुधार करने होंगे। भारत को इस सदी के मध्य तक विकसित देश बनने की अपनी अभिलाषा पूरी करनी है तो उसे प्रतिस्पर्द्धी कर प्रणाली चाहिए, जिसके अवांछित परिणाम कम से कम हों। जीएसटी व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाने के लिए निस्संदेह इसमें सुधार की आवश्यकता है। इससे कर प्रणाली में शामिल वस्तुओं या सेवाओं की संख्या काफी बढ़ जाएगी, दरें कम होंगी, उनमें अंतर भी कम होगा तथा सरल एवं पारदर्शी ढांचा होगा।

ऐसी किसी भी व्यवस्था में करों के साथ जुड़ी तीनों लागतें – संग्रह में खर्च, अनुपालन पर खर्च और आर्थिक विकृति कम से कम होनी चाहिए। कर प्रणाली की दिशा बदलने के लिए यह एकदम सही समय है। बड़े सुधार तभी अच्छी तरह लागू होते हैं, जब अर्थव्यवस्था तेजी से प्रगति कर रही होती है क्योंकि इससे राजस्व बढ़ा हुआ ही रहता है।

दुनिया भर में मूल्य वर्द्धित कर (वैट) के अनुभव बताते हैं कि कोई एक मॉडल या ढांचा सबके अनुकूल नहीं हो सकता। प्रत्येक देश ऐसी व्यवस्था अपनाता है, जो उसकी परिस्थितियों के अनुकूल होती है और सभी को स्वीकार्य होती है। फिर भी ज्यादातर देश ऊपर बताई गई तीनों लागत कम रखने के कुछ सामान्य सिद्धांतों पर अमल करते हैं।

ज्यादातर कर विशेषज्ञ जिन महत्त्वपूर्ण सामान्य सिद्धांतों का सुझाव देते हैं उनमें कुछ रियायतों एवं अपवादों के साथ वैश्विक कर का लक्ष्य निर्धारित करना, कई लक्ष्य हासिल करने के फेर में पड़ने के बजाय कर प्रणाली का मुख्य उद्देश्य राजस्व सृजन तक सीमित रखना, छोटे करदाताओं के बजाय बड़े करदाताओं को ध्यान में रखकर समुचित ऊंची सीमा तय करना ताकि प्रशासनिक खर्च कम रहे और कराधान में अधिक समानता आए शामिल हैं।

इसके अलावा वे प्रशासनिक, अनुपालन एवं विकृति शुल्क कम से कम रखने के लिए सरल संरचना तैयार करने, आवश्यकता से अधिक जानकारी नहीं मांगने, साफ-सुथरा लेखा-जोखा (रिकॉर्ड) रखने की व्यवस्था को बढ़ावा देने और स्वत:-समीक्षा के लिए दीर्घ अवधि का लक्ष्य निर्धारित करने की भी सलाह देते हैं।

वैट से मिले अनुभव यह भी बताते हैं कि राजनीतिक कारणों से या स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए शुरुआत में कुछ खामियां (जैसे काफी ऊंची या काफी कम सीमा, जरूरत से अधिक छूट या कई दर श्रेणियां तैयार करना) रहने दी जाती हैं तो बाद में उन्हें दूर करना आसान नहीं होता।

जीएसटी प्रणाली में सबसे जरूरी सुधार दरों को वाजिब बनाना है और ऐसा तुरंत किया जाना चाहिए। वर्ष 2000 के बाद जिन 31 देशों ने किसी न किसी रूप में वैट लागू किया है, उनमें से 25 ने कर की एक ही दर रखी है। भारत को छोड़कर शायद ही किसी देश में दो से अधिक दरें हैं। दरें ज्यादा होने पर वस्तुओं के वर्गीकरण या उनकी श्रेणी पर विवाद उठते हैं, इनवर्टेड शुल्क ढांचे में विसंगति दिखती हैं, अनपेक्षित बदलाव होते हैं, संसाधन बेवजह आवंटित होते हैं और अनुपालन एवं प्रशासन की झंझट भी बढ़ती है।

जीएसटी प्रणाली में अलग-अलग कर दर से मिलने वाले राजस्व के आंकड़े नहीं दिए जाते मगर कर्नाटक से मिली जानकारी के मुताबिक 2023-24 में 75 प्रतिशत से अधिक राजस्व 12 प्रतिशत और 18 प्रतिशत दर से आया था। मोटा अनुमान है कि दोनों दरों को मिलाकर 15 प्रतिशत की दर लागू करें तो राजस्व पर कोई असर नहीं होगा।

इसी तरह 28 प्रतिशत की दर हानिकर वस्तुओं तक सीमित रखें तो निर्माण और यात्री वाहन उद्योगों को अधिक कर के बोझ से मुक्ति मिल जाएगी तथा श्रम के अधिक इस्तेमाल वाले दोनों उद्योगों में सुधार भी होगा। इसके लिए थोड़ा-बहुत राजस्व गंवाना भी पड़े तो उसकी भरपाई कर मुक्त वस्तुओं की सूची छोटी करने और 5 प्रतिशत कर दर को बढ़ाकर 6 प्रतिशत करने से हो जाएगी। इस तरह राजस्व में सेंध लगवाए बगैर कर की केवल दो दरें हो सकती हैं और हानिकर वस्तुओं के लिए अलग दर हो सकती है।

कर प्रणाली को अधिक व्यापक और प्रतिस्पर्द्धी बनाने के लिए एक और बड़ा सुधार होना चाहिए और वह है पेट्रोलियम उत्पादों तथा बिजली को जीएसटी के दायरे में लाना। 2019-20 में पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क से मिलने वाली रकम की केंद्र के उपभोग कर राजस्व में 29 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। विशेष श्रेणी से बाहर के राज्यों में पेट्रोलियम उत्पादों पर बिक्री कर लगभग 53 प्रतिशत था।

अलग-अलग राज्यों में यह भिन्न था जैसे बिहार में 36 प्रतिशत और तेलंगाना में 61 प्रतिशत। पेट्रोलियम उत्पादों एवं बिजली को जीएसटी दायरे से बाहर रखने से निर्यातकों को नुकसान पहुंचता है क्योंकि वे उत्पादन एवं वितरण में इस्तेमाल होने वाले परिवहन पर इनपुट टैक्स शून्य नहीं कर सकते। इसके अलावा कर दायरा संकीर्ण हो जाता है क्योंकि हवाई यात्रा और वातानुकूलित एवं पहली श्रेणी की रेल यात्रा छोड़कर पूरा परिवहन क्षेत्र कर दायरे से बाहर हो जाता है।

परिवर्तन का प्रतिरोध होता ही है और कर प्रणाली में बदलाव का खास तौर पर होता है। इंस्टीट्यूट ऑफ फिस्कल स्टडीज के पॉल जॉनसन और डेविड माइल्स ने ब्रिटेन में कर सुधार पर जेम्स मिरलिस की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट की समीक्षा के बाद कहा, ‘वास्तविक दुनिया में कर सुधार के प्रस्ताव की राह में राजनीति बड़ी बाधा होती है। कर सुधार से जिन्हें नुकसान होता है वे नाखुशी जाहिर करते हैं और इससे फायदा पाने वाले शुक्रिया तक अदा नहीं करते। इससे कराधान नीति यथास्थिति में ही फंसकर रह जाती है।’

जीएसटी परिषद ने कर संरचना की समीक्षा करने और इसमें बदलाव पर सुझाव देने के लिए मंत्रियों का समूह गठित किया है। लेकिन इसमें काफी कम प्रगति हुई है, जिसका आंशिक कारण यह है कि ठोस शोध के अभाव में कोई भी राजस्व नहीं गंवाना चाहता। यह कहना ठीक नहीं होगा कि लोग कर संरचना के आदी हो गए हैं और बड़े सुधारों की जरूरत नहीं है। इस सोच का सीधा मतलब है कि विकृतियों के कारण हो रहे अदृश्य आर्थिक नुकसान पर विचार नहीं किया जा रहा है। उम्मीद है कि करों में बदलाव और जीएसटी को व्यापक बनाने के कदम जल्द ही उठाए जाएंगे।

(लेखक 14वें वित्त आयोग के सदस्य थे। लेख में उनके निजी विचार हैं)

First Published : September 23, 2024 | 10:29 PM IST