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कौशल विकास के नए आयाम की जरूरत

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 7:12 AM IST

करीब एक महीना पहले भारत सरकार ने प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमकेवीवाई) 3.0 शुरू की जो संक्षिप्त अवधि वाले राष्ट्रीय कौशल कार्यक्रम का तीसरा चरण है। हाल के दौर के कुछ दूसरे सार्वजनिक नीति अभियानों के उलट सरकार के कौशल विकास कार्यक्रमों के बारे में कई चिंताएं भी हैं। ऐसी स्थिति में हमें सबसे उपयोगी तरीकों के बारे में सोचने की जरूरत है।
किसी भी क्षेत्र में राज्य के दखल की चर्चा के समय पहला सवाल यह पूछा जाता है कि बाजार की नाकामी क्या है? दक्षता के मामले में बाजार विफलता का जन्म सकारात्मक बाह्यताओं से होता है। जब कोई शख्स अपनी दक्षता बढ़ाता है तो उसके कुछ लाभ न केवल उसे और उसके नियोक्ता को मिलते हैं बल्कि कुछ लाभ समाज में दूसरों को भी मिलते हैं।
कंपनियों को यह डर सताता है कि कौशल हासिल करने के बाद कर्मचारी उनका साथ छोड़कर चले जाएंगे, लिहाजा उनके संवद्र्धित कौशल के कुछ लाभ भावी नियोक्ताओं को मिलने लगेंगे। व्यक्तिगत स्तर पर लोग अक्सर भारतीय वित्त की समस्याओं से रूबरू रहते हैं और या तो उन्हें कर्ज मिलता ही नहीं है या फिर उसकी ब्याज दरें काफी अधिक होती हैं। लोगों के पास सूचनाओं की कमी होती है और यह भरोसा भी नहीं होता है कि कौशल विकास पर खर्च की गई रकम उनकी श्रम बाजार संभावनाओं पर एक उपयोगी असर डालेगी। वित्त एवं सूचनाओं की उपलब्धता से जुड़ी ये मुश्किलें कौशल विकास में निवेश को प्रभावित करती हैं। ऐसे समय में राज्य का हस्तक्षेप बाजार असफलता की समस्या दूर कर सकता है।
सरकारी हस्तक्षेप को राज्य उत्पादन (सरकार लोगों को कुशल बनाने के लिए कार्यक्रम चलाती है), सरकारी वित्त-पोषण (निजी स्तर पर कौशल विकास कार्यक्रम चलाए जाते हैं लेकिन भरी जाने वाली फीस में कुछ अंशदान सरकार का भी होता है) या सरकारी नियमन (राज्य अपनी शक्ति का इस्तेमाल निजी कौशल विकास कारोबार में दखल देने के लिए करता है) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। दक्षता विकास को कार्य की प्रक्रिया के जरिये अंजाम दिया जाता है। काम करते हुए सीखना क्लासरूम में सीखने से कहीं बेहतर है। लिहाजा इस क्षेत्र में किए जाने वाले हरेक काम का नियोक्ताओं के साथ मजबूत नाता होना चाहिए।
देश भर में फैले औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आईटीआई) का नेटवर्क मौजूदा व्यवस्था की रीढ़ है। देश भर में करीब 14,000 आईटीआई प्रशिक्षण देने के काम में लगे हुए हैं और इनमें से 80 फीसदी से भी अधिक संस्थान निजी हैं। प्रशिक्षण कार्य पूरा होने पर अधिकतर छात्रों को राष्ट्रीय या राज्य स्तर की परिषद के माध्यम से प्रमाण-पत्र दिए जाते हैं। ये परिषद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) या अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद की तरह वैधानिक नियामक न होकर असल में कार्यकारी निकाय होते हैं।
लोगों को कुशल बनाने की यह व्यवस्था राज्य की क्षमता की रोजमर्रा वाली मुश्किलों से दो-चार होती रही है और इसका परिदृश्य काफी कुछ स्वास्थ्य एवं शिक्षा के क्षेत्र की ही तरह है। इन प्रशिक्षण संस्थानों से निकलने वाले युवा अक्सर अर्थव्यवस्था की बदलती जरूरतों से तालमेल नहीं बिठा पाते हैं। सरकारी आईटीआई संस्थानों के पास अच्छी-खासी इमारतें एवं जमीन हैं लेकिन गुणवत्तापरक प्रयोगशालाओं एवं उपकरणों का स्तर औसत ही है। इसके अलावा इन संस्थानों में शिक्षकों के पद बड़े स्तर पर खाली पड़े हुए हैं।
स्टाफ के पास औपचारिक योग्यताएं हैं और उनके ऊंचे वेतन भी हैं लेकिन अपने उपभोक्ताओं की सेवा करने की निम्न अभिप्रेरणा एवं जवाबदेही है। उसी समय निजी क्षेत्र उत्पादन कोई रामबाण दवा नहीं है। जहां निजी क्षेत्र में कुछ बहुत अच्छे कौशल संस्थान हैं, वहीं औसत निजी आईटीआई संस्थानों के पास थोड़े संसाधन हैं और औसत सरकारी आईटीआई की तुलना में कहीं कमतर नतीजे देते हैं।
पिछले 15 वर्षों में आईटीआई की मुख्य व्यवस्था के समानांतर रूप में एक नया नजरिया सामने आया है। इसमें सीमित अवधि के प्रशिक्षण कार्यक्रम शामिल हैं जो सेवा उद्योग के उन नए क्षेत्रों में संभावित रोजगार पर जोर देते हैं जिनमें महंगी मशीनों पर दिए जाने वाले प्रशिक्षण की जरूरत नहीं होती है। केंद्र सरकार द्वारा चलाए गए अभियानों के चलते रोजगार के ये क्षेत्र पैदा हुए हैं। भारत सरकार ने वर्ष 2007-09 के दौरान सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) का गठन किया था जिसका मकसद आसान कर्ज एवं अनुदान देकर शुरुआती दौर के कौशल विकास केंद्रों को मदद देना था। उनमें पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों को उद्योग जगत की अगुआई वाले कौशल परिषद ने मान्यता दी हुई थी। सरकार की इन कोशिशों ने कौशल विकास का नया उद्योग विकसित करने का माहौल बनाया।
आईटीआई संस्थानों की ही तरह कौशल विकास कार्यक्रमों की इस नई व्यवस्था के समक्ष भी बड़ी चुनौती गुणवत्ता सुनिश्चित करने और कर्मचारियों एवं कामगारों का भरोसा बनाए रखने की ही है। निजी क्षेत्र के तमाम सेवा-प्रदाता होने से प्रशिक्षण की गुणवत्ता में फर्क होता है, आकलन पूरी तरह मानकीकृत नहीं हैं और दर्ज रोजगार नतीजे आम तौर पर कम हैं। नीति को चुनौती इन फासलों को पाटने में ही है। इसके लिए हमें भारतीय श्रम बाजार की मुश्किलों के आकलन और उसमें कौशल की जगह की जरूरत है।
भारतीय कार्यबल का एक बड़ा तबका उन इकाइयों में कार्यरत है जिनमें 10 से भी कम कामगार हैं। अगर एक व्यक्ति दक्षता हासिल कर लेता है और स्वरोजगार में लग जाता है तो फिर समाज के नजरिये से यह बिल्कुल वाजिब नतीजा है। कौशल कार्यक्रम सिर्फ औपचारिक एवं बड़े स्तर के नियोक्ताओं के इर्दगिर्द ही परिभाषित नहीं होने चाहिए।
कामगारों के प्रवास को मान्यता एवं समर्थन देने के क्रम में कौशल समाधान की कवायद श्रम के राष्ट्रीय बाजार पर एक नजर रखते हुए अंजाम देनी होती है। देश के भीतर और बाहर बड़ी संख्या में कामगार जाते हैं। बुनियादी शिक्षा की सीमाओं को देखते हुए मूलभूत कौशल पैदा करने के साथ कामगारों के भीतर सहयोगी दक्षता पैदा करने की भी जरूरत है। नियोक्ताओं के साथ अप्रेंटिस के वक्त कामगार को असली सबक मिलता है और इसके लिए सरकारी समर्थन की जरूरत है लेकिन हमें अप्रेंटिस प्रक्रिया के बारे में सोचने की जरूरत है। यह सिर्फ औपचारिक क्षेत्र के लिए ही काम करने वाली औपचारिक व्यवस्था में न होकर भारतीय अनौपचारिक क्षेत्र में घटित होता है।
नीतियों या कौशल कार्यक्रमों के डिजाइन में अत्यधिक केंद्रीकरण होने से समुदाय की जरूरतों के हिसाब से प्रतिक्रिया देने की कौशल विकास संगठनों की क्षमता बाधित होती है। इसके लिए एक लचीले रवैये की दरकार है जहां जमीनी स्तर के निर्णयकर्ता अपने आसपास की वास्तविकता देखते हैं और उसमें फिट बैठने के लिए अपने-आप को ढालते हैं।
आगे की तरफ राज्य के हस्तक्षेप को उत्पादन, वित्तीयन एवं नियमन के खांचों में बांटा जा सकता है। इनमें से हरेक काम के लिए एक अलग सांगठनिक डिजाइन एवं अलग कौशल की जरूरत होती है। मसलन, दूरसंचार सेवाओं के उत्पादन और निजी दूरसंचार फर्मों के नियमन का काम पहले दूरसंचार विभाग के पास ही होता था लेकिन आधुनिक दौर में एक साफ ढांचा उभरा है जिसमें दखल के खंभों के बीच अलगाव है। इसी तर्ज पर कौशल प्रशिक्षण में सरकार की पुरानी व्यवस्था और एनएसडीसी अलग-अलग नहीं रखी गई थीं। लेकिन हाल के वर्षों में तर्कसंगतता की तरफ एक कदम बढ़ा है। इस परिदृश्य का एक नया अवयव राष्ट्रीय व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण परिषद के रूप में जरूर जुड़ा है जो इस क्षेत्र का नियामक होगा। संविधान के तहत समवर्ती सूची के विषय के अनुरूप विकेंद्रीकरण की संरचना एवं कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करने का एजेंडा अभी अधूरा है।
(लेखक भारत सरकार के पूर्व सचिव, एनसीएईआर के प्रोफेसर एवं श्रीराम कैपिटल के गैर-कार्यकारी चेयरमैन हैं)

First Published : March 10, 2021 | 11:42 PM IST