भारत ने कश्मीर को लेकर अनुकूल स्थितियां बनाने के लिए कड़ी मेहनत की है। परंतु अनुच्छेद 370 को समाप्त किए जाने की चौथी वर्षगांठ करीब है और अभी भी जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस लौटाना शेष है।
समाचारों की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि श्रीनगर में आयोजित जी20 कार्यक्रम (पर्यटन पर तीसरा कार्य समूह) के जिस पहलू ने सबसे अधिक सुर्खियां बटोरीं वह था चीन, तुर्किये, सऊदी अरब, मिस्र और ओमान की अनुपस्थिति।
इन देशों की अनुपस्थिति एक झटका तो है लेकिन व्यापक निष्कर्षों की बात करें तो राजनीतिक और रणनीतिक संदर्भ में वे मोटे तौर पर सकारात्मक रहे। यह निष्कर्ष इस आधार पर निकाला जा सकता है कि जी20 के 20 में से 17 देशों ने इसमें शिरकत की, पी-5 के चार देशों, यूरोप के सभी देश और सबसे बड़े मुस्लिम देश इंडोनेशिया ने भी इसमें शिरकत की।
इन सभी देशों ने जम्मू कश्मीर के विवादित क्षेत्र होने की बात को पूरी तरह नकार दिया और यह इस क्षेत्र के 75 वर्ष के इतिहास में एक निर्णायक पल है। यह उल्लेखनीय प्रगति है। परंतु हमें कुछ जटिलताओं और अधूरे कामों से भी शर्माना नहीं चाहिए। पहले हम गैरहाजिर देशों, उनके द्वारा रेखांकित मुद्दों और जम्मू कश्मीर में अधूरे काम के बारे में उनकी याददिहानी की बात करते हैं।
अगर हम चीन और तुर्किये को स्वाभाविक संदिग्ध भी मान लें तो भी तीन अहम अरब देशों की अनुपस्थिति एक बड़ा झटका है। इनमें से केवल एक सऊदी अरब ही जी20 का सदस्य है। अन्य दो आमंत्रित देश हैं।
यह बात खासतौर पर ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि सऊदी अरब और भारत के बीच बीते डेढ़ दशक से रिश्तों में काफी गर्माहट है। इसी के चलते पड़ोस में भारत, इजरायल, यूएई और अमेरिका यानी आई2यू2 समूह उभरा है और ओमान तो भारत का पुराना मित्र है ही।
मिस्र ने तो कभी इस्लामिक देश होने का दिखावा भी नहीं किया। उन सीमित मायनों में भी नहीं जितना कि रेचेप तैय्यप एर्दोआन ने तुर्किये में किया है।
एर्दोआन ने जहां मुस्लिम ब्रदरहुड को संरक्षण दिया, वहीं अब्दुल फतह अल सिसी ने उन्हें और उनकी निर्वाचित सरकार को कुचलकर तानाशाही शक्ति हासिल की। मिस्र तक भारत की पहुंच मजबूत और आक्रामक रही है। राष्ट्रपति अल-सिसी इस वर्ष गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि थे। ऐसे में मिस्र ने कश्मीर पर इस्लामिक सहयोग संगठन की राह क्यों अपनाई होगी? इसमें पाकिस्तान की भी भूमिका रही।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने गोवा में बढ़चढ़कर कहा था कि श्रीनगर के आयोजन में कई महत्त्वपूर्ण देश अनुपस्थित रहेंगे। महज तीन इस्लामिक देशों की अनुपस्थिति उनके लिए आंशिक सफलता होगी क्योंकि यूएई समेत कई अन्य देश इसमें शामिल हुए।
बहरहाल यह गैरहाजिरी पाकिस्तान के लिए एक मकसद पूरा करने वाली और भारत को कुछ याद दिलाने वाली रही। उन देशों ने चीन की तरह यह तो नहीं कहा कि वे विवादित क्षेत्रों में कार्यक्रमों में नहीं जाते लेकिन संदेश कमोबेश ऐसा ही था।
जम्मू कश्मीर के दर्जे में संवैधानिक बदलाव की चौथी वर्षगांठ करीब है और दुनिया के एक हिस्से के लिए इस मसले का नहीं निपटना भारत के लिए चिंता का विषय है। यह चीन के लिए एक उपाय भी है जहां वह बजरिये पाकिस्तान भारत पर दबाव बना सकता है। इससे यह भी स्मरण आता है कि बहुत अधिक प्रगति हो गई है लेकिन भारत बहुत जल्दी जीत की घोषणा करके गलती करेगा।
पांच अगस्त, 2019 को संवैधानिक बदलावों के साथ एक नया अध्याय लिखा गया और जमीन पर बहुत कुछ हासिल भी हुआ खासतौर पर घाटी में कानून व्यवस्था से लेकर अधोसंरचना निर्माण तक। फिर भी कुछ अध्याय ऐसे भी हैं जो मोदी राज के पहले कार्यकाल के बाद लिखे जाने थे लेकिन नहीं लिखे गए।
अंतरराष्ट्रीय, राजनीतिक और रणनीतिक रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण है पूर्व राज्य का कुछ विशेष अधिकारों के साथ केंद्रशासित प्रदेश बने रहना। बदलाव के चार वर्ष बाद भी राज्य पर सीधे केंद्र का शासन है और राजनीतिक प्रक्रिया अभी भी स्थगित है।
बदलाव के बाद अपने एक संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करने के बारे में बात की थी। आपने सोचा होगा कि तब वहां चुनाव भी होंगे। आम चुनाव की प्रक्रिया कुछ महीनों में शुरू होगी अगर अब उस विषय में कोई बात नहीं हो रही है तो यह निराशाजनक है। न केवल कश्मीर के लोगों के लिए बल्कि व्यापक तौर पर पूरे देश के लिए भी।
यह निराशाजनक क्यों है इसे समझने के लिए हमें दशकों पीछे जाना होगा जब कश्मीर विवाद वैश्विक परिदृश्य पर सामने आया था। इसके लिए सन 1948 या 1972 में जाने की जरूरत नहीं है जब क्रमश युद्ध विराम और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव की घटना घटी थी।
शुरुआत के लिए सन 1989 के आखिरी महीने बेहतर हैं। उसी समय पाकिस्तान समर्थित अलगाववादी गतिविधियां शुरू हुईं। सन 1991 में जब पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने और राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर अब तक की सबसे कमजोर वीपी सिंह सरकार की गड़बड़ियों को सुधारने का प्रयास किया लेकिन पाकिस्तान इस मामले को पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय बनाने में सफल रहा।
पाकिस्तान का अभियान त्रिकोणीय था: मानवाधिकार का हनन, राज्य में सैन्य शासन, लोकतंत्र के नकार और आत्मनिर्णय के अधिकार के निषेध के मुद्दे उठाए। कुल मिलाकर मामला दोबारा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव और रायशुमारी में उलझ गया।
राव ने भी इसका मुकाबला ठीक अपने पूर्ववर्तियों के तर्ज पर किया लेकिन उनका आत्मविश्वास और नैतिक शक्ति कहीं अधिक मजबूत थी। जब कश्मीर की जनता अपनी सरकारें चुनने के लिए बड़े पैमाने पर मतदान कर रही थी तो रायशुमारी का प्रश्न कहां से आता? क्या वह आत्मनिर्णय या लोकतंत्र नहीं?
यकीनन न केवल पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर बल्कि पूरे पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थिति से दिलचस्प तुलनाएं भी की जाती थीं। उनके अंदर आत्मविश्वास इस बात से आया कि भारत ने अतीत के उलट कश्मीर में निष्पक्ष चुनाव कराने शुरू कर दिए थे। राव ने मानवाधिकार के क्षेत्र में बने दबाव का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया और विदेशी पत्रकारों के कश्मीर जाने पर लगा प्रतिबंध समाप्त किया। आज भारत राव के कार्यकाल से भी अधिक मजबूत है।
पहले तो इसने तीन दशक में आर्थिक ताकत अर्जित की और उसके बाद 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत वाली दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी सरकार का उदय हुआ। भू-रणनीतिक स्थिति में बदलाव हुआ, चीन का अनिष्टकारी उदय, युद्धरत रूस और अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते आदि बातों ने भारत को इतिहास में सबसे अनुकूल स्थान पर पहुंचा दिया।
अब यह समय और अवसर है कि योजना के मुताबिक आगे बढ़ा जाए। वैश्विक मामलों में शक्ति संतुलन, गठजोड़ आदि निरंतर बदलते रहते हैं। भारत ने इस स्थिति में पहुंचने के लिए बड़ी मेहनत की है। यही वजह है कि चीन और तुर्किये को छोड़ दिया जाए तो दुनिया का कोई बड़ा देश कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में बदलाव पर सवाल नहीं उठा रहा है। लेकिन हम आश्वस्त होने का जोखिम नहीं उठा सकते।
जम्मू और कश्मीर पर केंद्र के शासन का विचार आकर्षक है खासतौर सत्ताधारी दल के लिए। अगर आप इसके आदी हो जाते हैं तो यह लंबे समय तक तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा हो जाता है। अनुपस्थित रहे पांच देश हमें याद दिलाते हैं कि वे अभी भी कश्मीर को विवादित मानते हैं। कई अन्य देश ऐसा कहते नहीं हैं लेकिन कोई भी यह भी नहीं कहता है कि विवाद 5 अगस्त 2019 को समाप्त हो गया।
यहां तक कि हमारा स्वाभाविक सामरिक साझेदार अमेरिका भी चीन के दावे को नकारते हुए ऐसे प्रस्ताव पारित तो करता है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का हिस्सा है लेकिन वह लद्दाख, अक्साई चिन पर खामोश रहता है।
कूटनीति में कठोर बातें सार्वजनिक रूप से नहीं कही जाती हैं और लंबे समय तक निजी तौर पर भी। लेकिन अमेरिका भी लद्दाख को ऐसे हिस्से के रूप में देखता है जिसे लेकर विवाद है और वह वहां भारत के दावे को स्वीकार नहीं करता।
सबसे बेहतर और समझदारी भरा अगला कदम है जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करना और वहां राजनीतिक गतिविधियां शुरू करना। हम कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में बदलाव की चौथी वर्षगांठ के करीब हैं और मोदी सरकार के रिपोर्ट कार्ड में यह एक काम अधूरा है।