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मीडिया कारोबार को ‘टेड लास्सो’ की जरूरत

भारत में प्रत्येक 10 लाख लोगों पर मात्र 6 सिनेमाघर हैं जबकि अमेरिका और चीन में यह अनुपात क्रमशः 125 और 30 हैं।

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वनिता कोहली-खांडेकर   
Last Updated- May 14, 2025 | 10:48 PM IST

‘टेड लास्सो’ में दिखा सकारात्मक नजरिया वाकई काबिल-ए-तारीफ है। ऐपल टीवी पर प्रसारित इस शो में अमेरिका के एक फुटबॉल प्रशिक्षक (टेड लास्सो) का जिक्र है जिन्हें लंदन की एक फुटबॉल टीम को प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। मगर दिलचस्प बात यह है कि लास्सो इंगलैंड के फुटबॉल के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। तीन सीजन तक चले इस शो में लास्सो की सकारात्मक सोच (उनका यह विश्वास कि स्वाभाविक तौर पर लोग अंदर से अच्छे होते हैं और अगर वे कड़ी मेहनत के लिए तैयार हैं तो उन्हें दूसरा मौका अवश्य दिया जाना चाहिए) रिचमंड को प्रीमियर लीग में अद्भुत सफलता दिलाती है और टीम फर्श से अर्श तक का सफर तय कर लेती है।

भारतीय मीडिया एवं मनोरंजन (एमऐंडई) कारोबार को ‘टेड लास्सो’ जैसे लोगों एवं नीतियों की जरूरत है जिनमें सकारात्मक नजरिया कूट-कूट कर भरा हो। इसे दूसरे तरीके से कहें तो एमऐंडई को ऐसे निवेशकों और नीति निर्धारकों की जरूरत है जो सकारात्मक सोच के साथ बदलाव लाने की क्षमता रखते हैं। इस पर मैं थोड़ा ठहर कर चर्चा करूंगी।

वर्ष 2024 में एमऐंडई उद्योग की वृद्धि दर कम होकर 3.3  फीसदी रह गई, जो इससे पिछले साल 8.3 फीसदी थी। टेलीविजन, एनिमेशन एवं विजुअल इफेक्ट्स खंड में राजस्व में कमी इसका प्रमुख कारण था। ईवाई द्वारा संकलित फिक्की-फ्रेम रिपोर्ट में कहा गया है कि 2.5 लाख करोड़ रुपये का यह उद्योग वर्ष2027  तक सालाना 7  फीसदी से अधिक दर से वृद्धि दर्ज कर 3 लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा पार सकता है।

मगर ये आंकड़े ये निराशाजनक लगते हैं जब हम इस पहलू पर विचार करते हैं कि भारत दुनिया में सबसे अधिक फिल्मों का निर्माण करता है और वीडियो देखने वाले सबसे बड़े देशों में भी शुमार है। भारत में 1.4 अरब से अधिक लोग हैं जिनमें 90 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं और 52.4 अरब लोग ऑनलाइन रहते हैं। अब यह भी जान लेते हैं कि पूरा भारतीय एमऐंडई क्षेत्र कॉमकास्ट के राजस्व के पांचवें या द वॉल्ट डिज्नी कंपनी के करीब एक तिहाई हिस्से के बराबर है। यह स्थिति काफी निराशाजनक है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि भारत निम्न प्रति व्यक्ति आय के साथ एक छोटी अर्थव्यवस्था है। मगर यह भी सच है कि पिछले 20 वर्षों से इस कारोबार की संभावनाओं एवं क्षमता पर बहस चली आ रही है।

21वीं शताब्दी के शुरू में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एमऐंडई कारोबार का योगदान 0.2  फीसदी से भी कम था जबकि इसकी तुलना में सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र की हिस्सेदारी 1.2 फीसदी हुआ करती थी।

ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मीडिया उद्योग का ओहदा उतना ही बढ़ जाएगा जितना आईटी का था। पिछले साल देश के जीडीपी में आईटी क्षेत्र का योगदान बढ़कर 7  फीसदी पहुंच गया मगर एमऐंडई का हिस्सा मात्र 0.73 फीसदी रहा। अमेरिका के जीडीपी में एमऐंडई कारोबार का योगदान1.2 फीसदी है और चीन के मामले में यह 1 फीसदी से नीचे है। चूंकि, ये दोनों अर्थव्यवस्थाएं काफी बड़ी हैं इसलिए वास्तविक आंकड़े काफी अधिक हैं। उदाहरण के लिए चीन का मीडिया कारोबार भारत का छह गुना है।

घरेलू और वैश्विक बाजारों में भारतीय एमऐंडई उद्योग को रफ्तार देने और उसका आकार बढ़ाने के लिए दो चीजों- सकारात्मक नीति निर्धारण और पूंजी- की आवश्यकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सिनेमा को वर्ष2000 में उद्योग का दर्जा दिए जाने की घोषणा के बाद यह कारोबार अगले एक दशक के दौरान 300 फीसदी बढ़ गया। इस निर्णय से देश के सिनेमा उद्योग में जोखिम भरी पूंजी आनी बंद हो गई और एक साफ-सुथरा माहौल तैयार होने लगा। दूसरी तरफ, टेलीविजन में कीमतें नियंत्रित करने के एक दूसरे निर्णय से भारत में यह सबसे बड़ा माध्यम रचनात्मकता एवं वाणिज्यिक उद्देश्य दोनों लिहाज से कमजोर हो गया। यानी अच्छी नीतियों (जो कारोबार की संरचना और कोई बदलाव लाने या नहीं लाने के नफा-नुकसान दोनों की समझ रखती हैं) की बहुत जरूरत है।

अच्छी एवं सकारात्मक नीतियों से पूंजी आने के द्वार खुल जाते हैं। मीडिया-तकनीक क्षेत्र की इकाई फ्रैमर एआई (वीडियो एडिटिंग), न्यूरल गैराज (स्मार्ट डबिंग) और विकास केंद्रों (डेवलपमेंट सेंटर) में माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और एमेजॉन ने निवेश किए हैं। ये निवेश रोजगार सृजित करने के लिए जरूरी हैं। मगर इस कारोबार को आगे बढ़ना है तो सामग्री और स्क्रीन (सिनेमाघर, स्मार्ट फोन या स्मार्ट टीवी) में निवेश बढ़ना भी उतना ही जरूरी है।

सिनेमाघर फिल्मों के कुल राजस्व में दो-तिहाई योगदान देते हैं। अभिनेता एवं फिल्म निर्माता आमिर खान ने ‘वेव्स’ सम्मेलन में कहा, ‘जिन्हें हम सर्वाधिक सफल फिल्में मानते हैं उन्हें भी सिनेमाघरों में महज 3.5  करोड़ लोगों का ही साथ मिला होता है। यह तादाद हमारी आबादी का महज 2  फीसदी हिस्सा ही है। बाकी 98  फीसदी लोग कहां हैं? भारत में ज्यादातर लोगों के आस-पास सिनेमाघर नहीं हैं।’  भारत में प्रत्येक 10 लाख लोगों पर मात्र 6 सिनेमाघर हैं जबकि अमेरिका और चीन में यह अनुपात क्रमशः 125 और 30 हैं।

पूरे देश में छोटे सिनेमाघरों में गंभीर उथल-पुथल होने जा रही है। स्मार्टफोन के साथ भी यही बात है। यह मीडिया कारोबार का सबसे तेजी से बढ़ता खंड है। ज्यादातर भारतीयों खासकर मध्य एवं कम आय वाले वर्ग के लिए इंटरनेट इस्तेमाल करने का स्मार्टफोन सबसे पहला जरिया है। मगर स्मार्टफोन की कीमतें अधिक रहने से इनकी बिक्री ठहर गई है जिससे डिजिटल माध्यम की पहुंच भी प्रभावित हो गई है। फिलहाल अगर राजस्व लगातार बढ़ रहा है तो यह मौजूदा उपभोक्ताओं के अधिक इस्तेमाल के दम पर ही हो रहा है।

भारत की सबसे बड़ी ताकतों में कहानियों की दिलचस्प रूप से प्रस्तुति भी एक है। दक्षिण कोरिया के साथ भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां स्थानीय मनोरंजन छोटे एवं बड़े पर्दे पर राज करते हैं (बिना किसी संरक्षण या विदेशी फिल्मों पर किसी आयात काेटे के)।

करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शंस में अदार पूनावाला के 1,000 करोड़ रुपये निवेश और पिछले साल बवेजा स्टूडियोज द्वारा सार्वजनिक आरंभिक निर्गम (आईपीओ) के जरिये 90 करोड़ रुपये जुटाने के सिवा सामग्री (कन्टेंट) खंड में कोई हलचल नहीं दिखी है।

जब तक सिनेमाघरों, मोबाइल, स्मार्ट टीवी और सामग्री के विभिन्न रूपों में बेहिचक एवं बड़े निवेश नहीं होंगे तब तक एमऐंडई कारोबार में भारत की क्षमता कल्पनाओं तक ही सीमित रहेगी।

 

First Published : May 14, 2025 | 10:48 PM IST