राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने पिछले दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक श्वेत पत्र जारी किया। हालांकि यह श्वेत पत्र मौजूदा आर्थिक स्थिति और अगले पांच वर्षों के लिए आर्थिक खाके के ब्योरे से नहीं जुड़ा था बल्कि इस श्वेत पत्र के माध्यम से वर्ष 2004 से 2014 तक सत्ता में रहे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) शासन को सीधे तौर पर कठघरे में खड़ा करना था।
श्वेत पत्र जारी करने का विचार एक ऐसी सरकार के लिए स्वाभाविक था जो खुद को हर तरह से अतीत से अलग दिखाना चाहती है। यहां अहम सवाल यह है कि वर्ष 2004 से 2014 के बीच जो कुछ भी हुआ उस पर 2024 में श्वेत पत्र क्यों लाया गया है?
यह काफी विडंबनापूर्ण है, खासतौर पर तब जब राजग सरकार ने श्वेत पत्र के मुख्य आरोपों को दोहराने का कोई मौका नहीं छोड़ा है, जैसे कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) का दूसरा कार्यकाल भ्रष्टाचार से लिप्त रहा, महंगाई दर ज्यादा रही और खराब स्तर का पूंजीगत व्यय एवं परियोजनाओं का क्रियान्वयन, राजकोषीय गैर-जिम्मेदारी और नीतिगत पंगुता जैसी स्थिति बनी रही।
जैसे-जैसे 2024 के आम चुनावों का वक्त नजदीक आ रहा है, ऐसे में राजग के लिए संप्रग (कांग्रेस के नेतृत्व में) के कार्यकाल की खामियां दिखाने वाले सभी तथ्य और आंकड़े जुटाना स्पष्ट रूप से लाभकारी है। हालांकि संप्रग का बचाव करने में ज्यादा कुछ कहना संभव नहीं है क्योंकि पेश किए गए तथ्य कम ही पड़ेंगे (सरकारी बैंकों में व्यापक राजनीतिक पूंजीवाद और भ्रष्टाचार से जुड़े ज्यादा विवरण नहीं है), लेकिन इस वक्त इस तरह के श्वेत पत्र जारी करने का उद्देश्य स्पष्ट है।
श्वेत पत्र का मुख्य बिंदु, वर्ष 2009-13 का आर्थिक कुप्रबंधन है। जब पूरा विश्व, वैश्विक वित्तीय संकट के प्रभाव से जूझ रहा था तब मई 2009 में संप्रग ने दोबारा सत्ता में वापसी की। हालांकि यूरोप, अमेरिका और यहां तक कि एशिया के कुछ हिस्से की तुलना में भारत, वैश्विक आर्थिक संकट से काफी कम प्रभावित हुआ।
फिर भी, संप्रग सरकार ने बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन पैकेज की पेशकश की जो ‘केंद्र सरकार की आर्थिक मदद देने की क्षमता से कहीं अधिक थी।’ श्वेत पत्र में कहा गया है कि वैश्विक आर्थिक संकट के दौरान, भारत की वृद्धि दर, वित्त वर्ष 2009 में कम होकर 3.1 प्रतिशत तक रह गई लेकिन वित्त वर्ष 2010 में तेज सुधार के साथ यह 7.9 प्रतिशत के स्तर तक पहुंच गई। हालांकि गलत दिशा में दिए गए आर्थिक प्रोत्साहन को एक वर्ष से अधिक समय तक जारी रखने की आवश्यकता नहीं थी।
इसका परिणाम यह हुआ कि वित्त वर्ष 2009 से 2014 के बीच लगातार छह वर्षों के लिए, भारत के सकल राजकोषीय घाटा (जीएफडी) और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनुपात कम से कम 4.5 प्रतिशत रहा, जो इन छह वर्षों में से तीन वर्षों के दौरान बढ़कर 5 प्रतिशत हो गया। वहीं राजस्व घाटा चार गुना से अधिक बढ़कर वित्त वर्ष 2008 के जीडीपी के 1.07 प्रतिशत से वित्त वर्ष 2010 में 5.3 प्रतिशत हो गया।
बाजार की उधारी में काफी तेजी आई लेकिन जुटाए गए धन का इस्तेमाल ऐसे कार्यों में किया गया जो उत्पादक नहीं थे। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वित्त वर्ष 2010 से 2014 तक, औसत वार्षिक मुद्रास्फीति दर दो अंकों में थी। यहां पर यह सवाल पूछने की दरकार है कि इस घोर आर्थिक गड़बड़ी के लिए कौन जिम्मेदार था? आखिरकार, भारतीय अर्थव्यवस्था एक ‘दिग्गज टीम’ ( कारोबारी अखबार के अतिशयोक्तिपूर्ण लहजे में) के हाथों में थी जिनमें मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम, प्रणव मुखर्जी, मोंटेक सिंह आहलूवालिया (योजना आयोग के उपाध्यक्ष), सी रंगराजन (प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख), और रघुराम राजन (वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार) जैसे लोग जुड़े थे।
जब निर्णय लेने की प्रक्रिया मंत्रिमंडल पर आधारित होती है तब किसी भी गड़बड़ी के लिए जिम्मेदारी तय करना आसान नहीं होता है। आमतौर पर यह दोष बंट जाता है और मुद्दा कमजोर पड़ जाता है। लेकिन इस मामले में, यह आसान है। उन वर्षों के दौरान, अर्थव्यवस्था अनुभवी नेता प्रणव मुखर्जी के कुशल हाथों में थी जो 39 मंत्रिसमूह (जीओएम) में से 24 की अध्यक्षता करने के लिए पर्याप्त ताकतवर माने जाते थे।
श्वेतपत्र के मुताबिक वह 2009 से 2012 तक वित्त मंत्री रहे लेकिन यह एक ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण अवधि साबित हुई जब राजकोषीय फिजूलखर्ची, राजनीतिक पूंजीवाद, भ्रष्टाचार, घोटालों, महंगाई और उच्च ब्याज दरों का बोलबाला रहा और इस वजह से अर्थव्यवस्था फिर से ‘राजकोषीय संकट’ की दिशा की ओर बढ़ने लगी। जब स्थिति नियंत्रण में नहीं रही तब पी चिदंबरम को उनकी जगह वित्त मंत्री बनाया गया।
मुखर्जी 1975-77 के आपातकाल से लेकर 2009-12 के आर्थिक कुप्रबंधन से पैदा हुई प्रत्येक ‘संकटपूर्ण स्थिति’ तक, हर दशक में कांग्रेस के एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ बने रहे। फिर भी, आश्चर्यजनक रूप से, इस तरह के घोर आर्थिक कुप्रबंधन के सबूत सामने आने के एक दशक बाद जब राजग सरकार ने दूसरे कार्यकाल के लिए सत्ता में वापसी की तब नरेंद्र मोदी सरकार ने 2019 में मुखर्जी को भारत रत्न से सम्मानित किया।
राजग के शासनकाल में महंगाई को नियंत्रित किया गया है इसके अलावा राजकोषीय मोर्चे पर पूरी सावधानी बरतने की कोशिश की गई। लेकिन पूंजीगत खर्च में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है। 60 साल पहले प्रस्तावित बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं को पूरा किया गया है और नई परियोजनाओं का काम भी पूरा किया गया है।
इसलिए, इस वक्त पुरानी आर्थिक कमियों को गिनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी यह बात चौंकाने वाली है। अगर राजग अपने प्रदर्शन को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है और आत्मविश्वास से भरा है तब आगामी 10 वर्षों का एक खाका पेश करने के लिए श्वेत पत्र क्यों नहीं जारी कर रहा है जो चीन की पंचवर्षीय योजनाओं के समान हो?
चीन के विशेषज्ञ एरिक ली का कहना है कि पश्चिमी देश सोचते हैं कि चीन में कोई पारदर्शिता नहीं है लेकिन चीन की तस्वीर हमेशा स्पष्ट रहती है। किसी को भी यह जानने के लिए सिर्फ पंचवर्षीय योजनाओं को पढ़ना होगा और उससे अंदाजा मिल जाएगा कि क्या होने जा रहा है, कौन से क्षेत्र, कौन से उद्योग और किस जगह पर ये चीजें होने वाली हैं। उनका कहना है, ‘अगर आप पिछले कुछ दशकों में चीन की पंचवर्षीय योजनाओं के इतिहास को देखें, तब 85-90 प्रतिशत योजनाओं पर अमल योजना के हिसाब से ही होता है।’
भारत में भी कुछ ऐसी ही प्रक्रिया की जरूरत है, न कि राजनीति से प्रेरित ऐसे किसी दस्तावेज की जिसमें इस बात का जिक्र हो कि डेढ़-दो दशक पहले क्या हुआ। मोदी सरकार ने कई बड़ी पहल की घोषणा की है और उनके लिए वास्तविक आवंटन के साथ जमीनी स्तर पर काफी प्रगति भी हुई है।
इन लक्ष्यों और समय-सीमा का जिक्र करते हुए इससे जुड़ा श्वेत पत्र लाना आसान हो सकता था। सरकार ने जो श्वेत पत्र जारी किया है, वह इस बयान के साथ खत्म होता है कि ‘अमृत काल अभी शुरू हुआ है और हमारा लक्ष्य 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाना है’, ऐसे में यह निश्चित रूप से स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि यह सब कैसे होगा।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक हैं)