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प्रोत्साहन पैकेज बदल देगा चीन के हालात?

चीन की सरकार नियंत्रण में भरोसा करती है, जो वृहद अर्थव्यवस्था पर भी रहता है। नीति निर्माताओं ने अर्थव्यवस्था को ‘दुरुस्त’ करने की इच्छा जताई है।

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अजय शाह   
Last Updated- October 16, 2024 | 10:41 PM IST

चीन की सरकार ने हाल ही में जो प्रोत्साहन पैकेज देने की घोषणा की है, उससे गहरी समस्याओं का निराकरण होता नजर नहीं आता है। बता रहे हैं अजय शाह

चीन की सरकार ने बड़े प्रोत्साहन की घोषणा की है। इसके फौरन बाद शांघाई कंपोजिट सूचकांक 26 फीसदी चढ़ा और एक महीने बाद अब यह 19 फीसदी ऊपर है। क्या इसका यह अर्थ है कि चीन की अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है और सरकार का प्रोत्साहन अर्थव्यवस्था को बेहतर बना पाएगा? यह मुश्किल नजर आता है।

चीन की सरकार नियंत्रण में भरोसा करती है, जो वृहद अर्थव्यवस्था पर भी रहता है। नीति निर्माताओं ने अर्थव्यवस्था को ‘दुरुस्त’ करने की इच्छा जताई है। इसके लिए वित्तीय नीति के अपारंपरिक उपायों का इस्तेमाल किया जा चुका है जैसे केंद्रीय नियोजन प्रणाली के नियम, जो ऋण वृद्धि पर नियंत्रण रखते हैं और तय करते हैं कि रियल एस्टेट तथा बुनियादी ढांचे के लिए ऋण दिया जाए या रोका जाए।

ये तरीके बाजार अर्थव्यवस्था से कमतर हैं। चीन में निर्माण वहां तक पहुंच चुका है, जहां हर परिवार के लिए औसतन 1.5 घर हैं। यहां से वापसी आसान नहीं है। इसी प्रकार चीन में बुनियादी ढांचा निर्माण ऐसी कई परियोजनाओं में हुआ है, जो संदेहास्पद हैं। कुछ लोगों को लगता है कि हमेशा अधिक से अधिक बुनियादी ढांचा निर्माण होना चाहिए और लाभ भी अधिकतम होना चाहिए। आरंभिक परियोजनाएं (उदाहरण के लिए बंबई-दिल्ली मार्ग) से बहुत लाभ हुआ मगर बाद में आने वाली परियोजनाओं (मसलन हिमालय में तीर्थ यात्रा को सुगम बनाने वाली सड़कें) की बहुत तुक नजर नहीं आती।

जब कोई खराब परिसंपत्ति बनती है तो राजस्व का विशुद्ध वर्तमान मूल्य निर्माण की लागत से कम होता है और यह घाटे की बात है। घाटा हो चुका है और अब बहस इस बात पर है कि घाटा किसे उठाना चाहिए। बेहतर दिवालिया व्यवस्था न हो तो घाटे की तलवार हमेशा लटकती रहती है। उन सभी लोगों के लिए निराशा का माहौल है, जो घाटे से डरते हैं और राजनीति में अपना समय बरबाद कर रहे हैं।

अतीत में वृहद अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के खराब चीनी तरीके दो वजहों से कम बुरे रहे। शुरू में आवास और बुनियादी ढांचा निर्माण समझदारी की बात थी। अर्थव्यवस्था का पूरा इंजन चल रहा था: विनिर्माण निर्यात तेजी से बढ़ रहा था, जिससे समृद्धि बढ़ी। इसी समृद्धि की वजह से दूसरे क्षेत्रों में नीति निर्माण संबंधी नाकामियां ढक गईं।

चीन की समस्या यह है कि उसका इंजन विफल हो रहा है। कई दशक पहले चीन छोटा देश था। वह काफी हद तक भारत जैसा था, जिसकी वैश्विक उत्पादन में बहुत कम हिस्सेदारी थी। उस समय बढ़ता उत्पादन और निर्यात विश्व अर्थव्यवस्था में स्वीकार्य था। अब चीन का विनिर्माण उत्पादन दुनिया के कुल उत्पादन का एक तिहाई हो गया है और उसमें आगे वृद्धि की गुंजाइश बहुत कम है।

एक समय चीन वैश्विक उत्पादन में 16 फीसदी हिस्सेदारी से 32 फीसदी हिस्सेदारी यानी दोगुने पर पहुंच गया था। मगर अब इसे फिर दोगुना कर 64 फीसदी पहुंचाना संभव नहीं है। जिस वृद्धि ने अर्थव्यवस्था को अतीत में वृहद आर्थिक दिक्कतों से बचाया, अब वह अव्यावहारिक हो चुकी है।

इसी जटिलता के बीच दूसरे वैश्वीकरण से तीसरे वैश्वीकरण का सफर हो गया। दूसरे वैश्वीकरण में किनारे पर बैठे सभी देशों को व्यापार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, तकनीकी पहुंच और वित्त तक के मामले में केंद्रीय देशों तक पहुंचने का मौका दिया गया।

केंद्रीय देश वे हैं, जिनके पास सबसे अधिक आर्थिक शक्तियां हैं और जो विश्व अर्थव्यवस्था पर सबसे अधिक नियंत्रण रखते हैं।अब हम तीसरे वैश्वीकरण के दौर में हैं, केंद्रीय देशों के साथ जुड़ाव विदेश नीति या सैन्य दृष्टिकोण पर निर्भर है। यूक्रेन पर रूस के हमले ने भी रूस को केंद्र से दूर कर दिया है।

यह सहज ज्ञान है कि अपने ग्राहकों के साथ उदार होना चाहिए। भारत में हम जानते हैं कि हमारा सेवा निर्यात 2016-17 के 163 अरब डॉलर से बढ़कर 2023-23 में 341 अरब डॉलर हो गया, जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। इस राजस्व को एक और बार दोगुना करना यानी 341 अरब डॉलर बढ़ा लेना देश की आर्थिक वृद्धि के लिए सबसे अहम हो सकता है बशर्ते यह संभव हो।

हमें लापरवाह या आश्वस्त नहीं होना चाहिए और यह नहीं मान लेना चाहिए कि यह काम आसानी से हो जाएगा। हमारे पास विदेश नीति और सैन्य दृष्टिकोण की बढ़त है, जो तकनीक, उद्यमिता, फाइनैंसिंग और बाजार के स्रोत के रूप में पश्चिम की भूमिका का सम्मान करती है और जिसके जरिये सेवा निर्यात ने भारत के लिए ऐसे लाभ दिए हैं जो कामगारों के लिए बेहतर जीवन तथा सरकार के लिए उच्च कर राजस्व के रूप में सामने आए हैं।

हैरत की बात है कि चीन के मशहूर समझदार नेतृत्व ने तीसरे वैश्वीकरण में यह सामान्य समझदारी नहीं दिखाई। विदेश नीति और सैन्य मामलों में वह शत्रुता भरे रुख पर अड़ा रहा। इससे चीन की तकनीकी प्रगति और निर्यात वृद्धि रोकने के लिए दुनिया भर में कदम उठे।

चीन के साथ हमारी अपनी ही कहानी रही है जहां हमने राष्ट्रवाद और सैन्यवाद को देखा है जैसे डोकलाम और गलवान। इससे भारत-चीन आर्थिक संबंधों में गिरावट भी आई। यह छोटी सी कहानी (चीनी निर्यात के लिए भारत विश्व बाजार का मामूली हिस्सा भर है) दिखाती है कि चीन के राष्ट्रवाद और सैन्यवाद के कारण ऐसे कई कदम उठे, जिन्होंने विकसित अर्थव्यवस्थाओं के सामने उसे ही नुकसान पहुंचाया। दिलचस्प है कि किसी समय इन्हीं अर्थव्यवस्थाओं ने उसे प्रौद्योगिकी, उद्यमिता, बाजार और वित्त हासिल करने के मामले में मदद की थी।

भारत के नजरिये से नीति-निर्माताओं के लिए बेहतर तरीका यही होगा कि वे तीसरे वैश्वीकरण में देश को बेहतर मुकाम तक पहुंचाने के लिए चतुराई के साथ काम करें। कुछ समय के लिए लाभ कमाने के मौके जरूर मिलेंगे, जैसे प्रतिबंध खत्म करना, व्यापार की दिशा बदलना, वोडाफोन जैसे विदेशी निवेशकों से संपत्ति लेना, द्विपक्षीय निवेश संधियों में मिलने वाली हिफाजत खत्म करना आदि। मगर ऐसे कदम मध्यम अवधि में देश के हितों के लिए नुकसानदेह साबित होते हैं।

बेहतर यही होगा कि हम लक्ष्य पर अपनी निगाहें टिकाए रखें और यह लक्ष्य है वस्तु एवं सेवा निर्यात को 784 अरब डॉलर करना यानि 2023-24 में हुए निर्यात से दोगुना करना। इसके लिए देश को पश्चिमी देशों में केंद्रित वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के साथ पूरी तरह जुड़ना होगा।

First Published : October 16, 2024 | 10:23 PM IST