पिछले कुछ महीनों में कई विदेशी एवं घरेलू पत्रिकाओं, समाचारपत्रों और टीकाकारों ने आर्थिक वृद्धि और भू-राजनीतिक दोनों संदर्भों में भारत की सराहना करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसका एक प्रमुख उदाहरण लंदन इकॉनमिस्ट का 17 जून, 2023 को प्रकाशित अंक था, जिसमें लगभग आधा दर्जन पृष्ठ भारत से जुड़े इन दोनों विषयों के नाम कर दिए गए थे।
आवरण कथा भी भारत को लेकर ही थी। अब दो महीने बाद भारत के प्रति इस दृष्टिकोण का पुनः विश्लेषण करते हैं। इस बात को किसी संदेह की गुंजाइश नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए वर्तमान समय संभावनाओं से भरा है। कोविड महामारी के दौरान तालाबंदी (लॉकडाउन) से भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर कम होकर 6.6 प्रतिशत रह गई थी, मगर उसके बाद अर्थव्यवस्था ने तेजी से वापसी की है।
कोविड के बाद के दो लगातार वर्षों में अर्थव्यवस्था 9.1 प्रतिशत और 7.2 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ी है। हां, यह अलग बात है कि अर्थव्यवस्था में सुधार असंतुलित रहा है। एक दशक तक लचर रहने के बाद वस्तुओं का निर्यात कैलेंडर वर्ष 2021 और 2022 में तेजी से बढ़ा। हालांकि, पिछले कुछ महीनों के दौरान इसमें कमी जरूर आई है। भारतीय सूचना-प्रौद्योगिकी कंपनियों के कमजोर नतीजे एवं कारोबार को लेकर अनुमान कम रहने के बावजूद सेवा क्षेत्र से निर्यात लगातार मजबूत रहा है।
भारत में डिजिटल ढांचा लगातार मजबूत होने से पूरे देश में सस्ते लेनदेन को बढ़ावा मिला है और सरकार की विस्तारित प्रत्यक्ष लाभ योजनाओं को लोगों तक पहुंचाना सुलभ हो गया है। पूंजीगत व्यय बढ़ने से भौतिक आधारभूत ढांचा, खासकर सड़क व्यवस्था बहुत मजबूत हुई है, जबकि वित्त वर्ष 2021 में फिसलने के बाद कुछ हद तक राजकोषीय गणित भी दुरुस्त किया जा रहा है।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने पिछले 15 महीनों से मौद्रिक नीति के निर्धारण में पूरी समझ-बूझ के साथ काम लिया है। इससे जिंसों की कीमतों में कमी आने के साथ ही उपभोक्ता मूल्य आधारित सूचकांक 6 प्रतिशत से नीचे रखने में मदद मिली है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान बैंक एवं कंपनियों के बही-खाते में काफी सुधार हुआ है। इसे देखते हुए बैंकों को अधिक उधार देने और कंपनियों को अधिक उधार लेने की अनुमति दी गई है।
वर्ष 2021-22 और जनवरी-मार्च 2023 (शहरी क्षेत्र) के सालाना एवं तिमाही सावधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के अनुसार 2018-19 की तुलना में इसमें (श्रम बल) भी सुधार हुआ है। हालांकि, अब भी महिला श्रम भागीदारी दर, कुल श्रम बल-आबादी अनुपात (15 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए), युवा (15-29 वर्ष ) बेरोजगारी दर पूर्वी एशियाई देशों की तुलना में कमजोर हैं।
अगर सरकार और आरबीआई पूरे विश्वास के साथ वित्त वर्ष 2024 के लिए 6.5 प्रतिशत वृद्धि दर का अनुमान लगा रहे हैं तो इसमें बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ये दोनों ये भी संकेत दे रहे हैं कि मध्यम अवधि में यह दर बरकरार रहेगी, जो प्रति व्यक्ति जीडीपी वृद्धि 5 प्रतिशत से अधिक रहने का संकेत हो सकता है। मगर विचार करने योग्य बिंदु यह है कि उक्त दर 2047 तक भारत को विकसित अर्थव्यवस्था बनाने के लिए नाकाफी होगी।
आरबीआई के जुलाई 2023 के बुलेटिन में जारी एक ताजा पत्र में कहा गया है कि विकसित या उच्च आय वाले देशों के लिए विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार भारत को यह ओहदा प्राप्त करने के लिए लगातार 7.6 प्रतिशत दर से वृद्धि करनी होगी। पत्र में यह भी कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार ‘उच्च अर्थव्यवस्था’ का दर्जा पाने के लिए 9.1 प्रतिशत की दर से आर्थिक वृद्धि दर्ज करनी होगी।
भविष्य में उत्पादन और रोजगार में मध्यम से दीर्घ अवधि के दौरान वृद्धि दर को लेकर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता और यह भारत से बाहर के हालात और हमारी अपनी आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों पर निर्भर है। बाहरी हालात तो हमारे नियंत्रण में नहीं हैं, मगर आंतरिक स्तर पर ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें हमें काफी बेहतर करने की जरूरत है तभी तेज वृद्धि दर सुनिश्चित हो पाएगी। मैं कुछ ऐसे पहलुओं का उल्लेख कर रहा हूं जिन पर ध्यान नहीं दिया गया तो बाद में वे बड़ी बाधाएं बन सकते हैं।
हमारा राजकोषीय घाटा एवं सरकार पर ऋण बोझ इतना अधिक है कि कम महंगाई के साथ टिकाऊ ऊंची वृद्धि दर हासिल कर पाना काफी मुश्किल काम है। वित्त वर्ष 2023 में केंद्र और राज्य सरकारों का संयुक्त घाटा जीडीपी का लगभग 9 प्रतिशत था और यह वित्त वर्ष 2024 में 8.5 प्रतिशत रहने का अनुमान है। हमारे अपने पिछले आंकड़ों के अनुसार ये काफी ऊंचे स्तर पर हैं और अगर लंबे समय तक इसी स्तर पर रहे तो इससे आर्थिक स्थिरता के लिए खतरा पैदा हो सकता है।
इससे निजी क्षेत्र से निवेश आने की उम्मीदों पर भी असर होगा। यह सच है कि सरकार का ऋण-जीडीपी अनुपात 2021 के उच्च स्तर 90 प्रतिशत से कम होकर लगभग 80 प्रतिशत रह गया है। मगर यह कुछ वर्ष पहले राजकोषीय जवाबदेही पर एन के सिंह रिपोर्ट की सिफारिश 60 प्रतिशत से कहीं अधिक है।
हाल के कुछ वर्षों में हमारी व्यापार नीति काफी कमजोर हो गई है। सात वर्षों तक बातचीत के बाद अंतिम समय में क्षेत्रीय समग्र आर्थिक साझेदारी (आरसेप) में शामिल होने से 2019 में पीछे हटने का निर्णय, 2016 से निर्यात पर असर डालने वाले सीमा शुल्क में बढ़ोतरी और कुछ दिन पहले ही लैपटॉप एवं कंप्यूटर के आयात की लाइसेंस शर्त आदि हमारी व्यापार नीति के लिए अच्छे संकेत नहीं कहे जा सकते।
इन्हें वापस लेने की जरूरत है और हमें दो एशियाई मुक्त व्यापार समझौतों में किसी एक में शामिल होने के लिए प्रयास अवश्य करना चाहिए। वैश्विक मूल्य ढांचे में बड़ी भागीदारी निभाने के लिए ऐसा करना जरूरी है। निर्यात में लगातार ऊंची वृद्धि दर के बिना जीडीपी और रोजगार सृजन में मजबूत बढ़ोतरी संभव नहीं है।
हमें तेजी से हुनर आधारित दुनिया में आर्थिक तरक्की करने के लिए सरकारी विद्यालयों में छात्रों के शिक्षा के स्तर में तेजी से सुधार करना होगा। शिक्षा एवं मानव क्षमता में तेजी से सुधार के लिए कदाचित हमारा डिजिटल ढांचा इस्तेमाल में लाया जा सकता है।
निजी क्षेत्र से लंबे समय से निवेश नहीं बढ़ पाया है। बैंकों और कंपनियों के बही-खाते में कमजोरी थम चुकी है और अब ब्याज दर कम करने के लिए राजकोषीय समेकन जरूरी है। हमें निवेश बढ़ाने (विशेषकर गरीब एवं अधिक आबादी वाले राज्यों में) के लिए नीति एवं नियामकीय ढांचे में अधिक स्थायित्व एवं पारदर्शिता बहाल करने पर ध्यान देना होगा। यह कहने की जरूरत नहीं कि घरेलू एवं विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक समरसता, न्याय एवं विधि- व्यवस्था भी प्राथमिकताएं हैं।
भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से भारत के उदय को किस तरह देखा जाए? समझ-बूझ वाले कूटनीतिक प्रयास निश्चित तौर पर अमेरिका एवं इसके सहयोगी देशों के साथ हमारे संबंध सुधारने में सहायक रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत की तटस्थ रहने की नीति से भी अमेरिका एवं पश्चिमी देशों के साथ हमारे संबंधों पर आंच नहीं आई है। हमारी अर्थव्यवस्था का आकार भी बढ़कर अब 3.7 लाख करोड़ डॉलर हो गया है। मगर 100 लाख करोड़ डॉलर से अधिक वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमें अपनी उपलब्धि को लेकर अति उत्साह से बचना चाहिए।
अमेरिका और चीन के संबंधों में खटास और इससे होने वाले प्रभाव भू-राजनीतिक पटल पर भारत के उदय का वास्तविक कारण रहा है। विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका और चीन के बीच तनाव जल्द समाप्त होने वाला नहीं है। यह भी सच है कि 1970 तक इन दोनों के बीच ऐसा ही तनाव था। सभी को लग रहा था कि संबंधों में सुधार की गुंजाइश नहीं बची है।
पूर्ववर्ती सोवियत संघ के प्रभाव से घबराकर 1971 में निक्सन-किसिंजर ने चीन के माओ एवं चाउ एनलाई के साथ मिलकर कूटनीतिक प्रयास तेज किए जिसके बाद स्थिति में तेजी से सुधार हुआ। ऐसा फिर हो सकता है, मगर फिलहाल इसकी गुंजाइश तो नहीं दिख रही है। हालांकि, अमेरिका और चीन के बीच संबंध फिर बेहतर होने की संभावना को पूरी तरह दरकिनार भी कर सकते। निष्कर्ष यही निकलता है मानव संबंधों की तरह ही कूटनीति एवं अर्थनीति के मोर्चे पर परिस्थितियां कब बदल जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता। (लेखक भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं)