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संपादकीय: विकास का विकेंद्रीकरण

भारत जहां प्राचीन काल से ही स्थानीय सरकारों से परिचित है, वहीं ब्रिटिश काल में यह व्यवस्था अव्यवस्थित हो गई थी।

Last Updated- June 13, 2024 | 8:56 PM IST
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स्थानीय सरकारें बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं की आपूर्ति करके देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकती हैं। उदाहरण के लिए सिंचाई, सड़कें, सफाई, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं आदि। वे स्थानीय जरूरतों को विकास परियोजनाओं से जोड़ पाने की दृष्टि से बेहतर स्थिति में होती हैं। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि कई विकसित और विकासशील देश नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं देने के लिए स्थानीय सरकारों पर निर्भर रहते हैं।

भारत जहां प्राचीन काल से ही स्थानीय सरकारों से परिचित है, वहीं ब्रिटिश काल में यह व्यवस्था अव्यवस्थित हो गई थी। आजादी के बाद इसमें फिर से नई जान फूंकी गई और 1990 के दशक के आरंभ में संविधान संशोधन करके तीसरे स्तर की सरकार को सशक्त बनाया गया।

बहरहाल, अभी भी यह वांछित ढंग से काम नहीं कर रही है। खुशकिस्मती से स्थानीय सरकारों को सशक्त बनाने की बात सबको स्वीकार्य है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (BJP) की सरकार ने भी अपने चुनाव घोषणापत्र में यह वादा किया है कि वह पंचायती राज संस्थानों को राजकोषीय स्वायत्तता प्रदान करेगी।

इस संदर्भ में विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित एक कार्य पत्र ‘दो सौ पचास हजार लोकतंत्र: भारत में ग्राम सरकार एक समीक्षा’ में इस बात पर जोर दिया है कि स्थानीय सरकारों को अधिक फंड, काम और पदाधिकारी दिए जाने चाहिए।

भारत में तीसरे स्तर की सरकारों की राजनीतिक स्वायत्तता के बारे में मौजूद तमाम सामग्री की व्यापक समीक्षा के बाद इसने ऐसे उपायों को अपनाने का प्रस्ताव रखा जिनकी मदद से राजकोषीय और प्रशासनिक क्षमता बढ़ाई जा सके और भुगतान के डिजिटलीकरण के कारण वापस आ रहे पुनर्केंद्रीकरण के रुझान का मुकाबला किया जा सके।

दुनिया भर में स्थानीय सरकारें औसत कुल कर राजस्व का लगभग 10 फीसदी पाती हैं। जैसा कि रिजर्व बैंक (RBI) के एक हालिया अध्ययन में रेखांकित किया गया, कुछ यूरोपीय देशों मसलन फिनलैंड, आइसलैंड और स्विट्जरलैंड में यह राशि 20 फीसदी से अधिक है।

बहरहाल भारत में स्थानीय सरकारें राजस्व के मामले में बहुत तंग हालात में हैं। वे सरकार के ऊपरी स्तरों से मिलने वाले अनुदान पर निर्भर हैं। वर्ष 2022-23 में पंचायतों का अपना राजस्व उनकी कुल राजस्व प्राप्तियों में करीब एक फीसदी का ही हिस्सेदार था। इसके परिणामस्वरूप सरकार के ऊपर के स्तरों से मिलने वाला अनुदान प्राप्तियों का मुख्य स्रोत बन गया और कुल प्राप्तियों में इनका योगदान करीब 95 फीसदी है। राजस्व जुटाने की सीमित क्षमता होने के कारण व्यय संबंधी निर्णयों में उनकी स्वायत्तता को सीमित करता है।

जैसा कि 15वें वित्त आयोग ने कहा, ‘उनके कुल व्यय में निर्बंध व्यय की हिस्सेदारी केवल 40 फीसदी है। इससे संकेत मिलता है कि वे निर्णय लेने और नीतियां बनाने वाली एक स्वायत्त संस्था के बजाय केंद्र और राज्य सरकारों की योजनाओं का क्रियान्वयन करने वाली संस्था के रूप में अधिक काम करती हैं।’

स्थानीय सरकारों को मजबूत बनाने के लिए जरूरी विधायी परिवर्तन आवश्यक हैं। संविधान को पंचायतों और नगर निकायों की शक्तियों और उनके काम को स्पष्ट करना चाहिए। स्थानीय निकायों के चुनाव भी नियमित और निष्पक्ष ढंग से होने चाहिए।

बहरहाल इन कामों का प्रभावी क्रियान्वयन काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि उन्हें पर्याप्त वित्तीय संसाधन मुहैया होते हैं या नहीं। इस संदर्भ में संविधान हर राज्य में एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना की बात कहता है ताकि राज्य सरकारों से स्थानीय सरकारों को ज्यादा संसाधनों का हस्तांतरण हो सके।

बहरहाल अधिकांश राज्यों में इन वित्त आयोगों के गठन में काफी देर हुई। जब वे घटित हो भी गए तो हस्तांतरण अपर्याप्त बना रहा। ऐसे में मौजूदा व्यवस्था में सुधार करना आवश्यक है ताकि राज्य जरूरी हस्तांतरण कर सकें।

केंद्रीय वित्त आयोग से सीधे फंड आवंटन का तरीका भी तलाश किया जा सकता है। पर्याप्त फंडिंग के अलावा यह भी अहम है कि स्थानीय सरकारों की क्षमता और पारदर्शिता बढ़ाई जाए। उदाहरण के लिए स्थानीय सरकारों की प्राप्तियों और व्यय के आंकड़े न होना भी एक दिक्कत है। समुचित अंकेक्षण से न केवल जवाबदेही बढ़ेगी बल्कि निर्णय लेने और किफायती संसाधन आवंटन में भी मदद मिलेगी।

विश्व बैंक (World Bank) की अनुशंसा के मुताबिक एक स्वतंत्र और विश्वसनीय व्यवस्था बनाकर स्थानीय सरकारों के प्रदर्शन का आकलन किया जा सकता है। भारत के लिए समय आ गया है कि वह स्थानीय सरकारों को मजबूत करे ताकि विकास के क्षेत्र में बेहतर नतीजे हासिल हो सकें।

First Published - June 13, 2024 | 8:49 PM IST

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