बीते 30 वर्ष में पश्चिमी जगत के अर्थशास्त्रियों और उनके भारतीय शिष्यों ने बहुत उत्साह के साथ केंद्रीय बैंक और सरकारों को शिकार बनाया और इस बारे में ढेर सारी सामग्री जुटाई कि कैसे किसी देश की मौद्रिक और राजकोषीय नीति दोनों का एक-एक लक्ष्य होना चाहिए। उनका कहना है कि केंद्रीय बैंकों को केवल मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाकर काम करना चाहिए जबकि सरकारों को केवल राजकोषीय घाटे पर ध्यान देना चाहिए। उनका कहना है कि मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटा, दोनों कम और स्थिर होने चाहिए।
यह बात समझदारी भरी और आसान प्रतीत होती है। हालांकि हकीकत में ऐसा बिल्कुल नहीं है। इसलिए क्योंकि अर्थशास्त्रियों की दृष्टि एक अन्य अदृश्य कारक पर नहीं जाती है और वह है: रोजगार।
अगर एक उदाहरण के माध्यम से समझने का प्रयास किया जाए तो अर्थशास्त्रियों की यह मांग होती है कि सरकार और केंद्रीय बैंक एक ऑमलेट बनाएं लेकिन इस दौरान अंडा नहीं टूटना चाहिए। इसे वास्तविक संदर्भ में समझें तो रोजगार कम नहीं होने चाहिए या दूसरे शब्दों में बेरोजगारी नहीं बढऩी चाहिए। यह मांग एक ऐसी समस्या उत्पन्न करती है जिसे अर्थशास्त्री हेरल्ड होटेलिंग के समुद्र तट पर आइसक्रीम विक्रेताओं से जुड़ी पहेली या टेलर की तीन तरफा समस्या के सिद्धांत से समझा जा सकता है।
बुनियादी तौर पर ये सिद्धांत कहते हैं तीन चर कभी भी एक साथ संतुलन में नहीं हो सकते हैं चाहे उनकी प्रकृति कुछ भी हो। बेरोजगारी, मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटे के संदर्भ में तो यह बात खासतौर पर सही है।
ये तीनों प्रमुख रूप से राजनीतिक समस्याएं हैं। ऐसे में जाहिर है इनके हल भी राजनीतिक हैं और चुनावी चक्र से करीबी जुड़ाव रखते हैं। अर्थशास्त्री इसी बात को समझ नहीं पा रहे हैं। इस दृष्टि से देखें तो अर्थशास्त्र के समक्ष तीन प्रश्न उत्पन्न होते हैं।
पहला यह कि किसी चीज को लक्षित करने का विचार अच्छा है या बुरा? दूसरा, किसी एक चर को लक्षित करना अच्छा है या बुरा? तीसरा, वह कड़ी शर्त अच्छी है या बुरी जिसके अनुसार कहा जा रहा है कि ऑमलेट बनाना है लेकिन अंडे नहीं टूटने चाहिए? पहले प्रश्न पर मेरा विचार है कि वृहद आर्थिक स्तर पर किसी चीज को लक्षित करना अपने आप में मूर्खतापूर्ण बात है। यह काफी हद तक वैसा ही है जैसे किसी व्यक्ति से कहा जाए कि यातायात की स्थिति चाहे जैसी भी हो, उसे एक ही गति से अपना वाहन चलाते रहना है। असल बात यही है: वृहद आर्थिक स्थिति।
प्रबंधन में कई चीजों पर काम करना होता है और यह काम महीना दर महीना आधार पर होता है। यह इस पर निर्भर करता है कि वास्तव में क्या घटित हो रहा है। घटनाओं की अनदेखी करके इसे अंजाम नहीं दिया जा सकता। यही कारण है कि जो अर्थशास्त्री लगातार यह मांग कर रहे थे कि सरकार को तत्काल ढेर सारी धनराशि व्यय करनी चाहिए, वे भी आधा सच ही समझ पाए।
व्यय कीजिए लेकिन तत्काल व्यय? यदि चीन अचानक हमला कर दे तो क्या होगा? जाड़ों के पूरी तरह आने में अभी भी 50 दिन का वक्त है। क्या बेहतर नहीं होगा कि वैसी आपात स्थिति के लिए कुछ राजकोषीय गुंजाइश रहने दी जाए।
ऐसा नहीं है कि सरकार व्यय नहीं करेगी। यकीन मानिए वह करेगी क्योंकि ऐसा करना राजनीतिक रूप से भी हित साधने वाला होगा। बिल्लियों पर दूध पीने के लिए आपको दबाव नहीं डालना पड़ता, वे स्वयं पीती हैं। एक ही सूरत में वह इससे विमुख होगी, यदि उसका पेट खराब हो।
जहां तक कदम उठाने के लिए सुनिश्चित समय की बात है तो अर्थशास्त्री इस विषय में उतनी ही भूमिका निभा सकते हैं जितना कि कोई दर्शक बल्लेबाजी करने वाले खिलाड़ी को बता सकता है कि उसे कब कौन सा शॉट खेलना है। यदि बल्लेबाजी एक स्वतंत्र चर है तो सरकारी व्यय भी एक स्वतंत्र चर ही है। ऐसे में यदि लक्षित करने का विचार अपने आप में बुरा है तो एक चर को लक्ष्य बनाने के बारे में क्या कहा जाए?
सरकार या केंद्रीय बैंक को हालात से निपटने और उसके मुताबिक काम करने के लिए ढेर सारी स्वतंत्रता चाहिए।
एकल चर को लक्षित करने से वे लगभग पूरी तरह प्रतिबंधित हो जाते हैं। उन्हें मुक्त करने के लिए वे हर प्रकार की बहानेबाजी और टालमटोल करते हैं। सबसे आखिर में बात आती है कम राजकोषीय घाटा लक्ष्य और कम मुद्रास्फीति लक्ष्य की। भारत में इसकी नाकामी जाहिर है। यही कारण है कि हमारे बजट में काफी कुछ छिपाया जाता है।
ये दोनों लक्ष्य विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों के बॉन्ड बाजार की आवश्यकता हैं। उन्हें वित्तीय स्थिरता के लिए इनकी जरूरत है। हमें इनकी उस अनुपात में जरूरत नहीं है क्योंकि हमारी वित्तीय स्थिरता केवल बॉन्ड बाजार की स्थिरता पर आधारित नहीं है। गैर वित्तीय कारक भी इसमें बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वर्ष 2014 और 2019 के बीच जब नरेंद्र मोदी ने मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटा दोनों को नियंत्रित रखने का प्रयास किया तब बेरोजगारी में भारी इजाफा हुआ। नोटबंदी के कारण बहुत बड़े पैमाने पर अपस्फीति की स्थिति भी बनी।
यदि उस दृष्टि से देखा जाए तो वायरस एक वरदान बनकर आया है, वह भी केवल ढांचागत सुधारों की दृष्टि से ही नहीं। यदि सन 1991 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने नरसिंहराव को मजबूर किया था तो इस बार मोदी को वायरस ने सुधारों के लिए मजबूर किया।
यही कारण है कि अब वह दो ऐसी बातों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो दरअसल उनकी मदद कर सकती हैं: दिसंबर के बाद से वह राजकोषीय विस्तार कर रहे हैं और कारोबारों को प्रभावित करने वाले नियमों और कानूनों में संशोधन करके आपूर्ति प्रबंधन।
इन सबका लाभ अगले वर्ष से नजर आने लगेगा, बशर्ते कि सीमा पर व्याप्त तनाव छंट सके। तब तक हमें धैर्य धारण करना होगा।