मणिपुर में मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के अधीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की मोदी सरकार दोनों राज्य में फैली निरंतर अराजकता के कारण हमलों की जद में हैं। हालात ऐसे हैं कि मणिपुर को आसानी से ‘गृहयुद्ध’ का शिकार घोषित किया जा सकता है। पार्टी का बचाव करने वालों के पास तीन तर्क हैं:
वीडियो सामने आने के बाद जहां हम इस राष्ट्रीय शर्म से जूझ रहे हैं वहीं हमें गहरी सांस लेकर इन बातों को तथ्य, तर्क और इतिहास की कसौटी पर कसने की भी जरूरत है।
पहली बात, भाजपा का यह कहना बिल्कुल सही है कि राज्य कभी पूरी तरह सामान्य नहीं था। कम से कम सन 1970 के दशक के मध्य से तो कतई नहीं। वहां कांग्रेस के कार्यकाल में राजनीतिक अस्थिरता के दौर आते रहे। अशांति, आतंकवाद और जातीय संघर्ष की स्थिति बनती रही।
आज वहां मैतेई और कुकी समुदाय एक दूसरे के खिलाफ युद्धरत हैं। अतीत में मामला कुकी बनाम नगा का था जो भारत सरकार के खिलाफ ही जंग छेड़े हुए थे। यह याद रखें कि नैशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के मुखिया टी मुइवा मणिपुर से ही हैं।
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उसका यह कहना भी सही है कि उसे कांग्रेस से बहुत संकटग्रस्त और गहरे तक विभाजित प्रदेश मिला। यह भी एक वजह है कि राज्य के लोगों ने उसे एक नई राजनीतिक शक्ति के रूप में अवसर दिया। परंतु अगर कांग्रेस ने बीते वर्षों के दौरान इतनी अधिक गलतियां की थीं तो भाजपा को वास्तविक बदलाव लाना चाहिए था। इसके बजाय उसने उसी कांग्रेस के नेताओं को अपने दल में शामिल कर लिया। बीरेन सिंह भी उनमें से एक हैं।
राजनीति के तौर तरीकों में कोई ठोस बदलाव लाने के बजाय भाजपा सरकार ने भी वही बांटने की नीति अपनाए रखी। ये नीतियां कितनी विभाजनकारी हैं इसे समझने के लिए हमें मुख्यमंत्री के उन वक्तव्यों की पड़ताल करनी होगी जो उन्होंने प्रदेश में आग भड़कने के पहले के सप्ताहों में और उसके दौरान दिए।
मैं पहले के बयानों के बजाय उनके 20 जून के बयान से शुरुआत करूंगा। बलात्कार और हत्याओं के सात सप्ताह बाद 20 जून को उन्होंने कहा, ‘ये हरकतें रुकनी चाहिए। खासतौर पर एसओओ यानी सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस समझौते में रहे कुकी उग्रवादियों को यह सब बंद करना चाहिए वरना उन्हें परिणाम भुगतने होंगे। मैं हथियारबंद मैतेई लोगों से भी अपील करता हूं कि वे कोई अवैध काम न करें।’
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ध्यान दीजिए कि वहां दोनों समूह हथियारबंद हैं लेकिन वह एक को उग्रवादी कहकर धमकाते हैं। जबकि अपने सशस्त्र समूह से अपील करते हैं कि वे कुछ भी अवैध न करें। उन्हें परिणाम भुगतने की चेतावनी नहीं देते।
अगर आप अब भी बांटने वाली बातों को लेकर यकीन नहीं करते तो 29 मई के उनके वक्तव्य को देखें। इंडियन एक्सप्रेस समेत तमाम मीडिया संस्थानों में प्रकाशित इस वक्तव्य में वह कहते हैं, ‘हमने उन आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन शुरू किया है जो एम-16, एके-47, स्नाइपर आदि हथियारों के साथ नागरिकों पर हमले कर रहे हैं।’ वह आतंकवादी किसे कह रहे हैं इसमें कोई संदेह नहीं बचता।
उन्होंने अपने वे ट्वीट डिलीट कर दिए हैं जिनमें वे कुकी आलोचकों को म्यांमारी कहकर संबोधित करते हैं। जब उन्हें याद दिलाया गया कि म्यांमार में मैतेई भी रहते हैं तो उन्होंने कहा कि लेकिन वे उस देश में अपना होमलैंड नहीं मांगते। जबकि भारत में कुकी ऐसा कर रहे हैं। एक जुलाई को तो वह बातचीत में चीन को भी घसीट लाए। उन्होंने कहा कि चीन पड़ोस में ही है और विदेशी हाथ से इनकार नहीं किया जा सकता है।
ऐसे में इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं जो दिखाते हैं कि अगर अतीत में कांग्रेस ने राज्य को जातीय आधार पर बांटा था तो भाजपा भी कुछ अलग नहीं कर रही है। बाकी जो भी है वह भाजपा की विचारधारा से संबद्ध है, फिर चाहे इसे हिंदू-ईसाई चश्मे से देखना हो या चर्च की काली छाया की बात। खासकर ऐसे विवादों में जहां कोई प्रमुख समूह हिंदू नहीं है। असम से मेघालय और अब मणिपुर तक, यह द्वैत पूर्वोत्तर की जटिलताओं से निपटने में नाकाम रहा है।
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पहचान यानी धर्म, जाति, जातीयता, भाषा, क्षेत्र आदि देश के किसी भी हिस्से में महत्वपूर्ण हैं। पूर्वोत्तर में पहचान के निर्धारक एक से अधिक हैं, जटिल हैं और उलझे हुए हैं। उदाहरण के लिए नगा एक व्यापक समूह हैं लेकिन वहां 28-35 विविध जनजातियां हैं जिनकी अपनी भाषाएं, संस्कृति और जंगी इतिहास है। असम में भाजपा स्थानीय मुस्लिमों के साथ है लेकिन चाहती है कि बांग्ला बोलने वाले मुस्लिम सीएए-एनआरसी के आधार पर अलग कर दिए जाएं। इसी कानून के तहत वह हिंदुओं को बनाए रखना चाहती है भले ही वे विदेशी हों।
दशकों तक विदेशियों को बाहर निकालने का आंदोलन चला चुके असमी हिंदू-मुस्लिम का भेद नहीं करते। मुख्य सबक यह है कि पहचान आधारित जुटाव जो देश के अन्य हिस्सों में कारगर रहता है वह शायद पूर्वोत्तर में लागू न हो। अगर हम इसे उस रंग में रंगना चाहेंगे तो असम की तरह शर्मिंदा होकर पीछे लौटना होगा। या फिर जैसा हम मणिपुर में देख रहे हैं।
मणिपुर वह राज्य है जो हिंदुओं को बुनियादी रूप से राष्ट्रवादी बताने के सोच को नकारता है। पड़ोसी नगालैंड और मिजोरम में जहां उपद्रव ईसाई जातियों द्वारा किया गया और अक्सर चर्च की मदद से किया गया, वहीं मणिपुर में इकलौता महत्त्वपूर्ण विद्रोह मैतेई हिंदुओं ने किया।
सन 1970 के दशक के अंत में दो सशस्त्र बल उभरे। पहला और सबसे अहम था पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) जिसका नेतृत्व नमेराक्पम बिशेश्वर सिंह ने किया जो हथियारों और प्रशिक्षण के लिए ल्हासा गए थे और जिन्होंने 1978 में अपने 18 कॉमरेडों के साथ वापस लौटकर क्रांतिकारी जंग की शुरुआत की।
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उन्हें प्रसिद्ध तेकचाम झड़प में जेऐंडके राइफल्स के तत्कालीन सेकंड लेफि्टनेंट साइरस एडी पीठावाला ने पकड़ा था। उन्हें इसके लिए अशोक चक्र दिया गया जो शांतिकाल का सबसे बड़ा सम्मान है। बिशेश्वर बाद में रिहा होकर राजनेता बन गए। उनके उत्तराधिकारी कुंजबिहारी की 1985 में कोडोम्पकोकी में सेना के साथ झड़प में हत्या हो गई।
दूसरा समूह था पीपुल्स रिवॉल्युशनरी आर्मी ऑफ कांगलेपाक यानी प्रेपाक। इसका नेतृत्व आर के तुलाचंद्र सिंह के पास था और पीएलए की तरह वह भी वामपंथी थे। तुलाचंद्र की भी सेना ने 1985 में हत्या कर दी। इन संगठनों के मृत होने के दौरान कांगलेपाक कम्युनिस्ट पार्टी के कई धड़े उभरे। कांगलेपाक मणिपुर का पुराना नाम है।
महत्त्वपूर्ण यह है कि ये सभी समूह मैतेई और हिंदू थे। जनजातीय समुदाय इन दशकों में हुई लड़ाई से अलग थे। मैंने यहां ये बातें इतने विस्तार से इसलिए रखीं ताकि पूर्वोत्तर की हकीकत सामने आ सके। यह इलाका जटिल, विशिष्ट, चुनौतीपूर्ण है और इस क्षेत्र पर हिंदी इलाकों की तरह का द्वैत लादकर शासन करने की सोच पूरी तरह बेमानी है। आज का टूटा हुआ मणिपुर इसका उदाहरण है।