UP Sitapur Carpets
फारस से आए कारीगरों से हुनर लेकर मुगलों के दौर से ही दरियों के लिए मशहूर सीतापुर के बुनकरों के दिन बहुरने लगे हैं। उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने सीतापुर के दरी उद्योग को एक जिला एक उत्पाद (ओडीओपी) योजना में शामिल कर लिया है, जिसके बाद इसे पंख लग गए हैं। सीतापुर में सदियों से दरी हाथ से ही बुनी जाती रही हैं मगर तकनीक का साथ मिलने पर इन्हें मजबूत बाजार भी मिल रहा है।
यहां बनी दरियां कभी घरों में ही बिछाई जाती थीं मगर इन्हें बनाने वाले बुनकर अब तकनीक का इस्तेमाल करते हुए योगा मैट, बेडसाइड रनर और सेंटर टेबलरनर जैसे उत्पाद भी बना रहे हैं। इन उत्पादों का निर्यात भी जमकर हो रहा है।
कभी यहां सूती और ऊनी दरियां ही बुनी जाती थीं मगर सीतापुर के खैराबाद कस्बे के बुनकर अब उनसे आगे बढ़कर कालीन और गलीचे भी बनाने लगे हैं। प्रदेश सरकार ने सीतापुर के खैराबाद, बिसंवा और लहरपुर कस्बों में जगह-जगह फैले दरी कारोबार को नए जमाने के मुताबिक ढालने के इरादे से कॉमन फैसिलिटी सेंटर और डाइंग सेंटर की स्थापना की है। कई कंपनियां भी आगे आई हैं, जो महिलाओं को दरी उद्योग से जोड़कर इसे बाजार तक पहुंचाने की कोशिश में हैं।
सरकार और कंपनियों की कोशिश का ही नतीजा है कि पिछले दो साल में ही सीतापुर के दरी उद्योग का सालाना कारोबार दोगुना हो गया है। 2021-22 में इस उद्योग ने 150 से 200 करोड़ रुपये का कारोबार किया था, जो 2023-24 में बढ़कर 400 करोड़ रुपये के पार निकल गया। सीतापुर की हाथ से बनी दरियों की सबसे ज्यादा मांग महाराष्ट्र और दक्षिण भारतीय राज्यों में है। यहां की सूती दरी सबसे ज्यादा मुंबई, नाशिक, पुणे जैसे शहरों में जाती हैं और तमिलनाडु तथा कर्नाटक में ऊनी दरियों की मांग ज्यादा है।
खैराबाद के दरी कारोबारी हकीम अंसारी बताते हैं कि पहले के जमाने में कारोबारी साइकलों पर माल रखकर गांव-गांव बेचने जाते थे मगर अब बाहर के व्यापारी माल का सैंपल देखते हैं और ऑनलाइन ऑर्डर भेज देते हैं। बाहर की बात करें तो यूरोप के देशों तथा अमेरिका में भी सीतापुर की दरियां खूब जाती हैं। देश के भीतर यहां बने योगा मैट और बेड रनर की अच्छी मांग रहती है।
सीतापुर में 30,000 से ज्यादा परिवार दरी की बुनाई से जुड़े हैं। दरी कारोबारी वीरेंद्र सिंह का कहना है कि 80 फीसदी लोग अब भी हथकरघे पर दरी बुनते हैं और करीब 20 फीसदी बड़े कारोबारियों नें पावरलूम लगा लिए हैं। मगर उनका कहना है कि सीतापुर की हाथ की बनी दरियों की मांग ज्यादा रहती है। बीच में चीन से आई मशीन से बनी दरियों ने बाजार में सीतापुर की दरी को झटका दिया था मगर अब तस्वीर उलटी हो गई है। आज सीतापुर की दरियों की मांग चीन ही नहीं बल्कि लुधियाना की पावरलूम पर बुनी दरियों से भी ज्यादा है। यह बात अलग है कि सीतापुर में प्रयोग भी हो रहे हैं और कहीं-कहीं सूरत से सिंथेटिक धागे मंगाकर दरियां बनाई जा रही हैं। मगर ज्यादातर काम कपास, ऊन और जूट का ही होता है।
प्रशासन भी इस उद्योग को पूरी मदद कर रहा है। जिला उद्योग केंद्र के अधिकारियों का कहना है कि बिसंवा में स्थापित सीएफसी में एक ही छत के नीचे दरी बुनकरों को डिजाइन, कच्चे माल के साथ बाजार से संपर्क की सुविधा मिल जाती है। ड्राइंग सेंटर में दरियों को आधुनिक तकनीक और नए तरीके से रंगने की सुविधा मिल रही है। उद्योग निदेशालय के अधिकारी बताते हैं कि बुनकरों को 25 लाख रुपये तक कर्ज पर 25 फीसदी सब्सिडी दी जा रही है और 25 से 50 लाख रुपये तक कर्ज पर 20 फीसदी सब्सिडी मिलती है। ओडीओपी के तहत दो साल में सीतापुर के 352 बुनकरों को प्रशिक्षण भी दिया जा चुका है। इस वित्त वर्ष में 250 लोगों को प्रशिक्षण देने की योजना है।
सीतापुर में 20 रुपये प्रति वर्ग फुट से 300 रुपये प्रति वर्ग फुट तक कीमत वाली दरियां तैयार की जाती हैं। हाथ की बारीक बुनाई वाली ऊन की दरियां व गलीचे सबसे मंहगे हैं तो सूती दरियों की कीमत कम होती है। योगा मैट 60 रुपये से शुरू होकर 500 रुपये तक में आ जाते हैं। इसी तरह हथकरघे पर तैयार बेड रनर मंहगा पड़ता है मगर पावरलूम वाला सस्ता मिल जाता है। ओडीओपी मार्ट पर सीतापुर की बनी दरियों से लेकर योगा मैट और अन्य उत्पाद मिल जाते हैं। साथ ही कई ऑनलाइन प्लेटफार्म पर भी यहां के उत्पाद उपलब्ध हैं। बुनकरों का कहना है कि प्रदेश सरकार उन्हें बाहर लगने वाली प्रदर्शनियों में स्टॉल लगाने की सुविधा भी देती है, जिससे बाजार बढ़ रहा है।
दरी उद्योग को आगे बढ़ाने की कोशिश कंपनियां भी कर रही हैं। डालमिया भारत समूह की सीएसआर शाखा डालमिया भारत फाउंडेशन ने जयपुर रग्स फाउंडेशन के सहयोग से उत्तर सीतापुर जिले के गोपालपुर गांव में एक रग लूम सेंटर शुरू किया है। इस केंद्र में सीतापुर के चार गांवों रामपुर, गोपालपुर, गोमिदापुर और अशरफनगर की 64 महिलाओं को हाथ से गांठ वाली कालीन बुनने के पारंपरिक शिल्प में प्रशिक्षण दिया जा रहा है। जयपुर रग्स फाउंडेशन तैयार उत्पादों की मार्केटिंग और बिक्री में सहायता करेगा। गौरतलब है कि सीतापुर में दरी की बुनाई के काम में बड़ी तादाद में महिलाओं की हिस्सेदारी है। रग लूम सेंटर में महिलाओं को हाथ की बुनाई का हुनर सिखाया जा रहा है।
सीतापुर में दरी की बुनाई करने वाले कारीगरों को यह हुनर मुगलों के जमाने में फारस से आए हुनरमंदों से मिला। यहां कपास की प्रचुर उपलब्धता के कारण नवाबी दौर में बुनकरों की बस्तियां बसाई गयीं और काम परवान चढ़ गया। पहले दरियां नवाबों के दरबारों से लेकर आला हुक्कामों के लिए बैठक व जानमाज के काम आती थीं। बाद में इसे आम लोगों के लिए बनाया और बेचा जाने लगा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 17 वीं और 18 वीं सदी में खैराबाद व दरियाबाग में हथकरघा निर्यात केंद्र खोले थे। बाद के दिनों में बुनकरों की तादाद बढ़ी, काम फैला और सीतापुर की दरी आम लोगों को भी आसानी से कम दामों पर मिलने लगी। हाल के वर्षों में तराई क्षेत्र में कपास की खेती खत्म हो गयी तो बुनकर सूती दरी के लिए कच्चा माल गुजरात, महाराष्ट्र से और ऊन पंजाब से मंगाते हैं।