भारत में वर्ष 2050 तक विश्व की 15 प्रतिशत से अधिक बुजुर्ग आबादी हो जाएगी। बुजुर्गों की बढ़ती संख्या के बीच विशेषज्ञों ने चेताया है कि देश में डिमेंशिया (स्मृतिलोप या भूलने की बीमारी) का खतरा बढ़ सकता है। इस समय 60 साल और अधिक उम्र के करीब 7.4 प्रतिशत भारतीय डिमेंशिया से पीड़ित हैं। यहां अभी डिमेंशिया के मरीजों की संख्या 88 लाख है। यह आंकड़ा वर्ष 2036 तक 97 प्रतिशत बढ़ कर 1.7 करोड़ पहुंचने का अनुमान है।
भारतीय अल्जाइमर एवं संबंधित विकार सोसायटी के अनुसार वर्ष 2010 में देश में इस बीमारी के 37 लाख मरीज थे, जिनके 2030 तक दोगुने तक बढ़ने का अनुमान है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इस रोग की गिरफ्त में 30 से 50 आयु वर्ग के लोग भी आ रहे हैं। वैश्विक स्तर पर अल्जाइमर पीडि़त लोगों में 5 से 10 प्रतिशत भारत में है। अल्जाइमर होने के प्रमुख कारक वंशानुगत, जीवनशैली और एक साथ दो बीमारियां जैसे मधुमेह और उच्च रक्तचाप होना है।
भारत में बड़ी उम्र के लोगों की आबादी नाटकीय रूप से बढ़ेगी। अनुमान के मुताबिक वर्ष 2050 तक देश की करीब 20 प्रतिशत जनसंख्या की उम्र 60 या उससे अधिक होगी। उस समय तक बुजुर्गों लोगों की कुल संख्या 31.9 करोड़ पहुंच सकती है। विश्व की वृद्ध आबादी में भारत की हिस्सेदारी करीब 15.4 प्रतिशत हो जाएगी। इस उम्र में डिमेंशिया का खतरा सबसे अधिक रहता है। इसे देखते हुए इस बीमारी से पीडि़त लोगों की संख्या में बहुत अधिक इजाफा हो सकता है।
डिमेंशिया इंडिया अलायंस के कार्यकारी निदेशक रमानी सुंदरम के अनुसार न्यूरोडिजेनरेटिव रोगों के फैलने के लिए सबसे बड़ा कारक आयु होती है। अल्जाइमर आमतौर पर 65 वर्ष की आयु के बाद होता है। हालांकि कुछ मामलों में 30 से 60 वर्ष आयु के बीच भी यह बीमारी जकड़ लेती है। हंटिंगटन जैसी बीमारी जैसी स्थितियां 30 से 50 की आयु में भी उभर सकती हैं। उम्र बढ़ने के साथ डिमेंशिया का खतरा बढ़ता जाता है और 85 वर्ष की आयु तक 3 में से एक बुजुर्ग इससे प्रभावित हो जाता है।
सुंदरम ने बताया, ‘भारत में डिमेंशिया होने के प्रमुख कारक जनसांख्यिकीय परिवर्तन, शहरीकरण, खानपान की आदतों के साथ-साथ आनुवांशिक भी हो सकते हैं। इसके अलावा, यहां धड़ल्ले से तंबाकू और शराब का सेवन होता है। डिमेंशिया के ज्यादातर मामलों में प्रारंभिक शुरुआत 65 वर्ष के बाद होती है। बुढ़ापे से पहले डिमेंशिया होने के बढ़ते मामलों को देखते हुए सभी आयु वर्ग के लोगों को जागरूक करने की जरूरत है।’
पटपड़गंज स्थित मैक्स सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के न्यूरोसाइंसेज, न्यूरोलॉजी विभाग के प्रधान निदेशक विवेक कुमार के अनुसार, ‘उम्र बढ़ने के साथ डिमेंशया की गिरफ्त में आने का खतरा बढ़ जाता है। मोटे तौर पर 65 वर्ष की आयु के बाद हर पांच साल में डिमेंशिया होने का खतरा दोगुना हो जाता है। उदाहरण के तौर पर 65 से 69 आयु वर्ग में हर 100 में से 2 लोगों को डिमेंशिया होता है। हालांकि डिमेंशिया युवा उम्र में भी हो सकता है। डिमेंशिया के 9 प्रतिशत तक मामले युवा आबादी में हैं और इसके लक्षण 65 वर्ष की आयु से पहले ही दिखने लगते हैं।’
बेंगलूरु हॉस्पिटल के न्यूरोलॉजिस्ट कंसल्टेंट डॉ. सुहास वीपी के अनुसार ‘बीमारी के चरण और देखभाल की जरूरत के अनुसार भारत में डिमेंशिया मरीज की देखभाल की लागत में व्यापक अंतर है। मूल परामर्श और दवाओं का मासिक खर्च करीब 2,000 से 5000 रुपये आता है। हालांकि शहरों में ऐसे मरीजों की घर में ही देखभाल समेत खर्च का दायरा 15,000 से 75,000 रुपये प्रति माह के बीच आता है। आधुनिक इलाज जिसमें एफडीए स्वीकृत दवा जैसे एडुकानुमाब का इस्तेमाल होने पर खर्च लाखों रुपये में पहुंच सकता है।’
भारत में डिमेंशिया के मरीज को देखभाल के दौरान कोलिनेस्टरेज और मेमनटाइन जैसी दवाओं की जरूरत होती है। इसके साथ गैर औषधीय विकल्प जैसे परामर्श से बेहतर सोच विकसित करने की चिकित्सा (कॉगनेटिव थेरेपी), व्यावहारिक हस्तक्षेप, रहन-सहन में मदद करना और देखभाल में सहायक कार्यक्रम शामिल हैं। मुंबई सेंट्रल के वॉकहार्ट हॉस्पिटल्स के कंसलटेंट न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. प्रशांत मखीजा ने बताया कि इसके उपचार में लक्षण प्रबंधन दवाएं (जैसे कोलेनिनेस्टेज इनहिबिटर), कॉगनेटिव थेरेपी, परामर्श और फिजियोथेरेपी जैसी सहायक देखभाल और उन्नत देखभाल विकल्प जैसे सहायक रहन-सहन सुविधाएं या डिमेंशिया केयर होम शामिल हैं।
कॉगनेटिव असेस्मेंट प्लेटफॉर्म डिमेंशिया इंडिया अलायंस डेमक्लीनिक मुफ्त मेमोरी स्क्रीनिंग के लिए टेलीमेडिसन, वर्चुअल डिमेंशिया आकलन, विशेषज्ञों से देखभाल और नैशनल डिमेंशिया सपोर्ट लाइन मुहैया कराता है। सुंदरम ने कहा, ‘भारत में हर जगह ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। डिमेंशिया के बढ़ते मामलों ने विशेषज्ञों, प्रशिक्षित विशेषज्ञों और समर्पित देखभाल बुनियादी ढांचे की कमी को उजागर कर दिया है।’
मखीजा के अनुसार डिजेनरेटिव विकार के प्रमुख कारक बढ़ती आयु, परिवार में ऐसी बीमारी का होना, वंशानुगत स्थितियां, शिथिल जीवनशैली, खराब खानपान, मानसिक निष्क्रियता, सिर में चोट लगना, न्यूरोलॉजिकल विकार, मानसिक दबाव और नींद की कमी आदि हैं।
आर्टेमिस अस्पताल में न्यूरोलॉजी और मिर्गी के कंसल्टेंट डॉ. विवेक वरूण ने बताया, ‘यदि इस रोगी की उचित ढंग से देखभाल नहीं की जाती है तो इससे बेहद गंभीर जटिलताएं उभर कर सामने आ सकती हैं। इनमें पूरी याददाश्त खोना, स्वतंत्र रूप से कार्य करने की क्षमता खोना और बातचीत व अपनी बात समझाने की अक्षमता या प्रियजनों को पहचानने की विफलता आदि का होना आम बात है। बीमारी के अंतिम चरण में कई बार कुपोषण, संक्रमण और चलने-फिरने में परेशानी भी हो सकती है। इसके अलावा चलना-फिरना कम होने से रोग एस्पिरेशन निमोनिया और रक्त के थक्के भी जम सकते हैं। इस बीमारी का पहला पता चलने की स्थिति में कॉगनेटिव थेरेपी और जीवनशैली में बदलाव कर इस बीमारी को बढ़ने से रोका जा सकता है।’
सरकार ऐसे गैर संचारी रोगों के लिए नीतियां बना रही है और इन नीतियों में निजी अस्पताल और केंद्र भी शामिल हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम में विशेष तौर पर बुजुर्गों की मानसिक देखभाल भी शामिल होती है, जो रोग के शुरुआती लक्षणों की पहचान करने पर केंद्रित होती है। सामाजिक कल्याण मंत्रालय डिमेंशिया देखभाल पहल की मदद करता है, जबकि सार्वजनिक-निजी साझेदारी कोष विशेषीकृत केंद्रों व शोध में मदद कर सकते हैं। आर्टेमिस अस्पताल के न्यूरोलॉजी कंसल्टेंट डॉ. विवेक वरुण के अनुसार, ‘इस रोग के उपचार में प्रगति निश्चित रूप से हो रही है। इस तरफ अबअधिक ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। इस क्रम में नैशनल डिमेंशिया विशिष्ट नीतियां और समुदाय के स्तर पर पहल किए जाने की जरूरत है ताकि इन रोगों के बढ़ते दबाव से निपटा जा सके।’