टीका आएगा, सब तक पहुंच पाएगा!

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 15, 2022 | 9:16 AM IST

कोविड-19 महामारी से बचाव के लिए टीके के विकास के लिए जारी प्रयास जल्द सफल होने का भी यह मतलब नहीं होगा कि हर किसी को इस विभीषिका से राहत ही मिल जाएगी। विशेषज्ञों का कहना है कि इस टीके को हर किसी की पहुंच में रखना भी एक बड़ी चुनौती होगी।
स्वाइन फ्लू महामारी के वक्त का अनुभव इस तरह की स्थिति पैदा होने की आशंका जगाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने वर्ष 2009 में जब स्वाइन फ्लू को महामारी घोषित किया था तो बड़ी दवा कंपनियों ने इसके टीके के विकास में बड़ी राशि का निवेश किया और टीका बनाने में सफल भी रहीं। लेकिन इन कंपनियों का टीके पर पेटेंट अधिकार होने से उनका वर्चस्व हो गया और अमेरिका, कनाडा एवं ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों ने ऊंची बोलियां लगाकर इन टीकों के बड़े ठेके दे दिए और अपने पास उनका जखीरा जमा कर लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों को स्वाइन फ्लू के टीके की भारी किल्लत का सामना करना पड़ा।
इसकी वजह से टीकों तक सबकी समान पहुंच और बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) नियमों के चलते ऐसी स्थिति पैदा होने को लेकर विवाद खड़ा हो गया। मसलन, इंडोनेशिया ने एच5एन1 वायरस के बारे में जानकारी दुनिया से साझा करने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि इन सूचनाओं के आधार पर बनने वाले टीकों पर विकसित देशों का ही दबदबा हो जाता है।
इस खामी को दूर करने के लिए एक कानूनी ढांचा खड़ा करने के प्रयास अभी बस शुरू ही हुए हैं। यूरोपीय संघ ने पेटेंट अधिकारों की स्वैच्छिक पूलिंग के बारे में प्रावधान करने का मसला मई में डब्ल्यूएचओ की स्वास्थ्य महासभा में उठाया। इस दौरान ‘कोविड-19 उपकरण एक्सेलरेटर तक पहुंच’ के जरिये देशों के बीच तकनीकी जानकारी एवं संसाधनों की साझेदारी का मुद्दा भी उठा।
वाशिंगटन स्थित ओनील हेल्थ लॉ इंस्टीट्यूट के साथ जुड़ीं वकील कशिश अनेजा कहती हैं, ‘इसके पीछे सोच यह है कि जानकारियों का सामूहिक स्वामित्व हो और फिर उसके सभी देशों को टीके बनाने का लाइसेंस दे दिया जाए।’
जहां कुछ देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया वहीं अमेरिका जैसे कुछ देशों ने दोहा संकल्प का हवाला देते हुए इसके कुछ प्रावधानों से खुद को अलग कर लिया। दोहा संकल्प के मुताबिक, सरकारें किसी सार्वजनिक आपात स्थिति में बौद्धिक संपदा अधिकारों को नकार सकती हैं। अमेरिका ने सभी देशों तक टीकों की समान पहुंच सुनिश्चित करने के लिए 8 अरब डॉलर का कोष बनाने में अपना अंशदान देने से भी हाथ पीछे खींच लिए।
यह स्थिति दूसरे देशों के लिए चिंताजनक है क्योंकि अमेरिका में कोविड महामारी के टीके के विकास के कई प्रयास जारी होने से वहां टीका बनने की संभावनाएं अधिक हैं। अंतरराष्ट्रीय कानून कहता है कि जिस देश में भी टीका विकसित होता है, वह उसी की संपत्ति बन जाता है और उसके वितरण पर उसका अधिकार होता है। मसलन, ऑस्ट्रेलिया ने 2009 में स्वाइन फ्लू के टीके के निर्यात से मना कर दिया था।
उसी टीके को भारत या अन्य विकासशील देशों में भी स्वैच्छिक लाइसेंसिंग प्रावधान का इस्तेमाल कर बनाया जा सकता था। हालांकि विशेषज्ञ कहते हैं कि बड़ी दवा कंपनियां विकासशील देशों में आईपीआर नियमों के उल्लंघन को लेकर संशयग्रस्त हैं। इंडसलॉ की पार्टनर अदिति वर्मा ठाकुर कहती हैं, ‘विकासशील देशों का लाइसेंसिंग फीस पर मोलभाव न कर पाना, बेहतर रिटर्न की कमी और राजनीतिक चिंताओं की यहां पर बड़ी भूमिका हो सकती थीं।’
लेकिन इरा लॉ के लॉ अटॉर्नी आदित्य गुप्ता कहते हैं, ‘कंपनियों को अब यह लग रहा है कि अगर वे किसी स्थानीय फर्म को टीके का लाइसेंस देती हैं और कोई दूसरी फर्म पेटेंट अधिकारों का उल्लंघन करने लगती है तो वे कहीं अधिक आसानी से अपने अधिकारों को लागू करा सकती हैं।’
फिलहाल पैनसीआ, सेरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक जैसी भारतीय जैव-प्रौद्योगिकी कंपनियां विदेशी कंपनियों के साथ गठजोड़ कर टीकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभा रही हैं। एस्ट्रजेनेका के साथ सेरम इंस्टीट्यूट भारत एवं कम आय वाले दूसरे देशों को टीकों की आपूर्ति कर रही है।
हालांकि अंतरराष्ट्रीय जैव-प्रौद्योगिकी कंपनियों के पास चिंतित होने की अब भी एक वजह है और वह है अनिवार्य लाइसेंसिंग। अनिवार्य लाइसेंसिंग के जरिये सरकारें किसी पेटेंटशुदा दवा को पेटेंटधारक की मंजूरी के बगैर भी बनवाकर किफायती दामों पर बेच सकती हैं। अमेरिका इसे अपनी दवा कंपनियों का शोषण बताते हुए ऐसे कदम उठाने वाले देशों को ‘301 सूची’ में डालने की धमकी देता है।
इस बीच दवा कंपनियां अपनी रणनीति को लेकर काफी सजग बनी हुई हैं क्योंकि उन्हें सार्वजनिक रूप पर प्रताडऩा का डर सता रहा है। गिलियड साइंसेज ने अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) से अपनी दवा रेम्डेसिविर के बारे में वस्तुस्थिति जानने की कोशिश की है जिसे कोविड-19 के संभावित इलाज के तौर पर पेश किया जा रहा है। फ्रांसीसी कंपनी सनोफी ने भी कोविड के संभावित टीके पर जनता एवं अपनी सरकार की तरफ से फटकार लगने पर अपने शुरुआती रुख में बदलाव किया है। 
दरअसल आईपीआर प्रावधान हमेशा ही शोध बनाम सार्वजनिक हित की बहस में उलझते रहे हैं। जहां तक कोविड-19 के टीके का सवाल है तो इसका विकास होने के पहले ही इसके बारे में राय जगजाहिर हो चुकी है।

First Published : June 22, 2020 | 11:07 PM IST