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  अंतरराष्ट्रीय  महामारी के बाद के दौर में नीति-निर्माताओं को तेजी से बदलनी चाहिए दिशा
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महामारी के बाद के दौर में नीति-निर्माताओं को तेजी से बदलनी चाहिए दिशा

बीएस संवाददाताबीएस संवाददाता| नई दिल्ली—October 24, 2022 3:43 PM IST
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कोविड-19 से उत्पन्न परेशानियों से पार पाने के बाद अब कनाडावासी खुद को और अधिक चुनौतियों के बीच पा रहे हैं, जिनके चलते लगभग हर मोर्चे पर उनका दैनिक जीवन प्रभावित हो रहा है। इनमें अर्थव्यवस्था के बुरे दौर से गुजरना, धरती का तापमान बढ़ना, स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं की कमी और कार्यस्थलों में बदलाव जैसी चुनौतियां शामिल हैं। नीति निर्माताओं के लिए इन उलझनों को सुलझाना आसान नहीं है। 

महामारी के अंत के दौरान और इसके बाद का माहौल प्रभावी नीतियां बनाने में नयी बाधा के रूप में उभरा है। हमारे नए परिवेश में तीन प्रमुख विशेषताएं हैं। 

पहली- इस दौरान सार्वजनिक संस्थानों और उनके नेताओं पर हमारा विश्वास कम हुआ है। एक हालिया सर्वेक्षण में आधे से अधिक उत्तरदाताओं ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि सरकार की बातों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। दूसरी- नीति-निर्माता तेजी से जटिल और परस्पर संबंधित चुनौतियों से जूझ रहे हैं, जिनमें समन्वित और निरंतर सरकारी प्रयासों की जरूरत होती है। 

तीसरा- जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं के जटिल प्रभावों का मतलब है कि हम एक से अधिक अनिश्चित नीतिगत वातावरण का भी सामना कर रहे हैं, जिसमें दीर्घकालिक योजना बनाना कठिन होता जा रहा है। हाल में गठित ‘सीएसए पब्लिक पॉलिसी सेंटर’, जहां मैं एक कार्यकारी पद पर हूं, की पहली रिपोर्ट में बताया गया है कि इस दृष्टिकोण से सरकारों के लिए प्रभावी कार्यक्रमों और नीतियों को लागू करना कठिन हो जाएगा, जबकि महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत पहले से कहीं अधिक है।

कनाडाई लोगों को किफायती आवास मुहैया कराने समेत वित्तीय सुरक्षा प्रदान करने के किसी भी प्रयास में देरी या फिर अप्रभावी कदम उठाने से सार्वजनिक विश्वास के और कमजोर होने का जोखिम पैदा होगा और सार्वजनिक संबंध व संपर्क से संबंधित भविष्य के प्रयास भी कमजोर होंगे। नीतिगत गतिरोध

कनाडा में कुछ समय से नीति-निर्माण के मामले में गतिरोध देखने को मिल रहा है। कई कनाडा वासियों को दवाओं और मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। 

कनाडा के आधे से अधिक लोग आवश्यक मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्राप्त करने के लिए एक महीने से अधिक प्रतीक्षा करते हैं। श्रम बाजार को देखते हुए हमारी रोजगार बीमा प्रणाली तैयार की गई थी, जो अब मौजूद नहीं है और बहुत से अंशकालिक, अस्थायी और स्व-नियोजित श्रमिक इससे वंचित हो गए हैं। हमारे सामने क्या चुनौतियां हैं और हम कौन से लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं, इस पर आम सहमति है। लेकिन जिस बात पर कम चर्चा होती है और जिसमें दशकों में बहुत कम बदलाव देखने को मिलता है, वह है नीति-निर्माताओं के लिए अपने उद्देश्यों को सफलतापूर्वक प्राप्त करने के लिए उपलब्ध मानसिकता, संस्कृति और संसाधन। यहां नीति-निर्माताओं के लिए तीन बिंदु दिए गए हैं, जिन पर वे विचार कर सकते हैं। 

1. दीर्घकालिक दृष्टिकोण रखें

आज हम जिन परेशानियों का सामना कर रहे हैं, उसकी एक वजह नीति-निर्माण की प्रक्रिया में अल्पकालिक दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ना और लोगों, विशेष रूप से सबसे कमजोर वर्गों की जरूरतों पर समान रूप से विचार नहीं कर पाना है। लिहाजा नीति-निर्माताओं को अल्पकालिक के बजाय दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अल्पकालिक दृष्टिकोण के क्या नुकसान है, इसे जलवायु परिवर्तन के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है, जिसमें आने वाली पीढ़ियां आज किए जा रहे अधूरे कार्यों की बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हैं। आज जो प्रयास किए जा रहे हैं उनके दीर्घकालिक परिणाम क्या होंगे और वे किस तरह लोगों को प्रभावित करेंगे, इस पर ध्यान केंद्रित करते हुए मानसिकता में बदलाव लाने की आवश्यकता है। साथ ही अधिक विविध दृष्टिकोणों के साथ विचारशील परिवर्तन की भी जरूरत है। 

2. उभरते मुद्दों पर त्वरित प्रतिक्रिया दें 
किसी उभरते हुए नीतिगत मुद्दे और एक नीतिगत प्रतिक्रिया के बीच अंतराल बढ़ रहा है। इससे चुनौतियां अधिक जटिल हो जाती हैं और उनके प्रभाव ज्यादा देर तक रहते हैं। उभरती हुई तकनीक से मानव व्यवहार में रिकॉर्ड तेजी से बदलाव हुआ है, जिससे नियामकों के लिए नवाचार को बढ़ावा देने और नागरिकों की सुरक्षा के लिए पारंपरिक संसाधनों में से किसी एक को चुनना मुश्किल हो रहा है। नीति-निर्माण के पारंपरिक मॉडल के तहत, सिलसिलेवार जटिल चुनौतियों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। नियामक नवाचार की प्रथाओं को लागू करने से उभरते मुद्दों और नीति प्रतिक्रियाओं के बीच की खाई को पाटने में मदद मिल सकती है।
3. सहयोग बढ़ाएं

दबाव वाली नीतिगत चुनौतियां अधिकतर जटिल होती हैं, जो विभागों और क्षेत्राधिकार की सीमाओं से परे होती हैं। फिर भी इसे ध्यान में रखते हुए नीतिगत समाधानों की कल्पना विरले ही की जाती है। पारंपरिक नीति-निर्माण उपकरण संभावित समाधानों और सफलताओं के अवसरों को सीमित करते हैं। कठिन समस्याओं को समझने के लिए सरकार और विश्वसनीय भागीदारों के बीच डेटा साझा करने और दूसरी तरह के सहयोग में उल्लेखनीय सुधार करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, बेघरों की समस्या को समाप्त करने में एक प्रमुख चुनौती यह सामने आती है कि कितने लोग इससे प्रभावित हुए हैं। ऐसे में अगर सही आंकड़ें उपलब्ध नहीं होंगे तो इसकी सही तस्वीर पेश करना भी काफी मुश्किल हो जाता है। इसके लिए बी.सी. डेटा इनोवेशन प्रोग्राम ने बेघरों को बेहतर ढंग से समझने और प्रतिक्रिया देने के लिए एक एकीकृत ‘डेटा प्रोजेक्ट’ विकसित किया है। लिहाजा, इन बिंदुओं पर विचार करके नीति-निर्माता प्रभावी और दीर्घकालिक नीतियां बना सकते हैं, जिनके व्यापक और ज्यादा असरदार प्रभाव देखने को मिल सकते हैं।

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