विदेशी बैंकों के प्रति एक्सपोजर से संबंधित नियमों की समीक्षा से महज छह महीने पहले रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने कहा है कि यह इससे संबंधित नियमों में ढ़ील कदम दर कदम तरीके से ही देगा।
जहां अप्रैल 2009 में आरबीआई द्वारा इस बारे में नियमों का मूल्यांकन किया जाना है वहीं विदेशी बैंकों ने धीरे धीरे उम्मीद का दामन छोड़ना शुरू कर दिया है कि उन्हें नियामक से बड़े एवं बेहतर भारतीय बैंकों में हिस्सेदारी खरीदने की अनुमति सकेगी।
आरबीआई ने मुद्रा एवं वित्त पर जारी सबसे हालिया रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया है कि इसे एंट्री से संबंधित नियमों की फिर से समीक्षा करने की जरूरत पड़ सकती है ताकि देश में विदेशी बैंकों की मौजूदगी ज्यादा होने से उत्पन्न होने वाले जोखिमों को कम किया जा सके। आरबीआई के मुताबिक बड़े बैंकों में विदेशी हिस्सेदारी का छोटे घरेलू बैंकों के कारोबार पर खराब असर पड़ सकता है।
आरबीआई ने हालांकि इस बात का भी जिक्र किया कि विदेशी बैंकों की मौजूदगी में प्रतिस्पर्धा और कड़ी होने से भारतीय बैंकिंग इंडस्ट्री में एकीकरण प्रक्रिया को और त्वरित किया जा सकता है पर इससे केंद्रीकरण संबंधी जोखिमों को भी नजरअंदाज नही किया जा सकता है अगर बड़े बैंकों का विलय एवं अधिग्रहण होना शुरू हो जाता है।
एक ओर जहां आरबीआई विदेशी बैंकों के एंट्री संबंधी नियमों की पुनर्समीक्षा कर रहा है वहीं इसका उद्देश्य है कि मौजूदा घरेलू बैंकों पर विदेशी बैंकों के अतिविकसित परिचालनों एवं इनके जटिल एवं सॉफिस्टिकेटेड उत्पादों के कारण एकीकरण के जोखिम को कम किया जा सके।
आरबीआई ने इस बात पर जोर दिया कि विदेशी बैंकों को प्रवेश देने के चक्कर में मौजूदा वित्तीय समावेश यानी फाइनेंसिएल इनक्लूजन, कृषि एवं छोटे और मझोले स्तर के उद्यमों को कर्ज देने संबंधी कामों को कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।
लेकिन तस्वीर बिल्कुल यही है ऐसा कतई नही है क्योंकि साल में जहां 12 विदेशी बैंकों की शाखाएं खोलने को लेकर भारत में अनुमति है वहीं आंकड़े बताते हैं कि 2003 से अक्टूबर 2007 के दौरान कुल 75 नए विदेशी बैंकों को अपनी शाखाएं खोलने की अनुमति मिल चुकी है।
लेकिन इस काम के दूसरे चरण यानी अप्रैल 2009 तक की अवधि के दौरान विदेशी एवं घरेलू बैंकों के बीच परस्पर समन्यवय से जुड़ी समस्याओं के प्रति आरबीआई अब दूसरे रूख अख्तियार कर रहा है।