पेप्टाइड्स के अवसरों का लाभ उठाने के लिए बायोकॉन खुद को तैयार कर रही है क्योंकि ये दवाएं वैश्विक स्तर पर पेटेंट से बाहर होने लगी हैं। कंपनी इसके लिए पहले ही कई देशों में मंजूरी के लिए आवेदन कर चुकी है और इन पेप्टाइड्स के निर्माण के लिए एकीकरण किया गया है, जिनका उपयोग मधुमेह और मोटापे के इलाज के लिए किया जाता है। सोहिनी दास और अनीका चटर्जी के साथ बातचीत में बायोकॉन के मुख्य कार्याधिकारी और प्रबंध निदेशक सिद्धार्थ मित्तल ने विकास की रणनीतियों और आगे की चुनौतियों के बारे में बताया। प्रमुख अंश :
फॉर्मूलेशन के मामले में यह काफी अच्छा रहा है, जहां हमने अच्छी वृद्धि देखी है। हमें अमेरिका में एक अनुबंध मिला है तथा उभरते बाजारों में कुछ निविदाएं भी हासिल की हैं और हम उनकी लगातार आपूर्ति कर रहे हैं। हमने हाल में नई मंजूरियां भी हासिल की हैं और आने वाली तिमाहियों में हम इन दवाओं को पेश करेंगे। कुल मिलाकर फॉर्मूलेशन कारोबार विकास का अच्छा संचालक रहा है। अलबत्ता हमने अपने एपीआई कारोबार में नरमी देखी है।
एपीआई कारोबार सीधे जेनेरिक कारोबार से जुड़ा हुआ है। हमारे जेनेरिक कारोबार में अगले चार से पांच वर्षों के दौरान वैश्विक स्तर पर सात प्रतिशत चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) की उम्मीद है। हमारा ध्यान जिन क्षेत्रों पर है, वे हैं मधुमेह, ऑन्कोलॉजी और इम्यूनोलॉजी। ये वे क्षेत्र हैं जो समग्र जेनेरिक बाजार की तुलना में तेजी से बढ़ रहे हैं। हमारे पास ऐसे विशिष्ट उत्पाद और जीएलपी-1 उत्पाद हैं, जो वजन घटाने में बड़ा अवसर मुहैया कराते हैं।
हर कोई जीएलपी-1 के अवसरों को लक्ष्य बना रहा है क्योंकि यह बहुत बड़ा है। आज जीएलपी-1 उत्पादों की बिक्री से लगभग 35 अरब डॉलर का राजस्व है और दशक के अंत तक इसके 100 अरब डॉलर का स्तर पार करने की उम्मीद है। ऐसी कई और दवाएं हैं जो वैश्विक स्तर पर क्लीनिकल परीक्षण के चरण में हैं। पेप्टाइड्स के बारे में विज्ञान की हमें जो जानकारी रहै, उसके मद्देनजर बायोकॉन काफी अच्छी स्थिति में है और समानांतर रूप से एकीकृत भी है। हमारे पास पेप्टाइड्स और ग्लूकागन लाइक पेप्टाइड-1 (जीएलपी-1) का व्यापक पोर्टफोलियो है। मुझे लगता है कि पेटेंट खत्म होने के यह अवसर खुलेगा।
हमारा मुख्य ध्यान निर्यात पर है, लेकिन हम इनमें से कुछ कॉम्प्लेक्स मॉलिक्यूल का लाइसेंस अन्य कंपनियों को देने के लिए बातचीत करने को तैयार हैं, लेकिन भारतीय कंपनियां अपने स्वयं के जीएलपी-1 पर भी काम कर रही हैं। हम इनमें से कोई दवा भारत लाएंगे या नहीं, यह कहना मेरे लिए मुश्किल है। यह हमारे साझेदार की रुचि और इस बात पर निर्भर करेगा कि किस प्रकार के क्लीनिकल परीक्षणों की आवश्यकता है। भारत में सरकारी नियमों ने इन दवाओं को किफायती तरीके से पेश करना मुश्किल बना दिया है, जिससे हमारे लिए विकास की लागत बढ़ जाती है।
हमने अमेरिका में लिराग्लूटाइड के लिए आवेदन किया है। हमने अमेरिकी बाजार में नोवो नॉर्डिस्क के साथ लिराग्लूटाइड फॉर्मूलेशन (विक्टोजा) में से एक के लिए समझौता भी किया है। हमें यह दवा कैलेंडर वर्ष 25 में पेश किए जाने की उम्मीद है। कैलेंडर वर्ष 24 के अंत में यूरोप के कुछ हिस्सों में यह दवा पेश हो सकती है, आवदेन किया जा चुका है। हम कई उभरते बाजारों में इसके आवेदन पर विचार कर रहे हैं।
हमने कहा है कि लगभग आधा अरब डॉलर का निवेश अनुसंधान एवं विकास (आरऐंडडी) और पूंजीगत व्यय में किया जाएगा। पिछले चार वर्ष में हमने जेनेरिक के पूंजीगत व्यय में लगभग 2,000 करोड़ रुपये का निवेश किया है और हमारी परियोजनाएं अभी चल रही हैं। अगले चार से पांच वर्ष में हम पूंजीगत व्यय में 1,500 करोड़ रुपये लगाने की उम्मीद कर रहे हैं। कुल मिलाकर 10 वर्ष की अवधि में हम पूंजीगत व्यय में 3,500 करोड़ रुपये का निवेश कर चुके होंगे।