अरुण तिवारी पावर लूम (विद्युत करघा) श्रमिक हैं जो उस डिजाइनर नक्काशी के बारे में कुछ नहीं जानते जिसका निर्माण कपड़े, साड़ी और वस्त्रों पर कशीदाकारी के लिए किया जाता है। लेकिन सूरत से श्रमिकों के पलायन की वजह से नियोक्ता तिवारी जैसे अकुशल श्रमिकों को काम पर रख रहे हैं जो बदले में प्रतिदिन 250 रुपये कमाकर संतुष्ट हो जाते हैं। बयालीस वर्षीय तिवारी ने कहा कि मेरे और मेरी पत्नी के पास उत्तर प्रदेश अपने घर जाने के लिए पैसे नहीं हैं। कम से कम रोज की कुछ तो दिहाड़ी हो जाती है।
उनके नियोक्ता रसिकभाई कोटाडिया सूरत के बाहरी इलाके में किम-पिपोदरा औद्योगिक क्षेत्र में अपनी बुनकर इकाई बचाए रखने के लिए अकुशल श्रमिकों से काम चला रहे हैं। कोटाडिया ने कहा कि लगभग सभी कुशल श्रमिक जा चुके हैं। हमें तिवारी जैसे अकुशल श्रमिकों को लेना पड़ा है ताकि लंबित ऑर्डर पूरे कर सकें। लेकिन जब ये ऑर्डर खत्म हो जाएंगे, तो हमें नहीं पता कि नए ऑर्डर कब मिलेंगे।
सूरत में सामान्य विद्युत करघे पर चलने वाले बड़े पैमाने के बुनाई उद्योग के उलट कोविड-19 से पहले के समय सफेद कपड़े की हिस्सेदारी प्रतिदिन 2.5 करोड़ मीटर थी। कोटाडिया उन कुछेक बुनकरों में से एक हैं जिनके पास वॉटरजेट जैकर्ड मशीनें हैं। इनके 48 कर्मचारियों में से केवल चार कर्मचारी ही रुके हुए हैं और 128 मशीनों में से मात्र 12 पर ही काम हो रहा है।
जब सूरत के कपड़ा उद्योग को लगा कि वह नोटबंदी और जीएसटी से उबरने लगा है, तब सूत कताई और बुनाई से लेकर कपड़े के प्रसंस्करण और थोक कारोबार तक कपड़े की पूरी मूल्य शृंखला दो महीने के लंबे लॉकडाउन में दोबारा पिस गई। अब इसे खुदरा क्षेत्र के खुलने का बेचैनी से इंतजार है।
अन्य शहरों में खुदरा बाजार भले ही खुल चुके हों, लेकिन सूरत की रिंग रोड पर थोक बाजार सुनसान पड़े हैं। साउथ गुजरात टेक्सटाइल प्रोसेसर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष जीतू वखारिया ने कहा कि जब तक थोक बाजार नहीं खुलते और ऑर्डर शुरू नहीं हो जाते, तब तक कपड़े की बाकी मूल्य शृंखला का परिचालन करना बेकार है।
लस्काना में एक इकाई – सोजित्रा टेक्सटाइल्स के बाबूभाई सोजित्रा ने कहा कि अगर मशीनें बंद कर दी जाएं, तो जो मजदूर रुके हुए हैं वे अपने मूल राज्य लौट जाएंगे। उन्हें यह विश्वास दिलाने के लिए कि काम है, हमें मशीनों को चालू रखना होगा। लस्काना क्षेत्र में काम करने वाले 25,000 श्रमिकों में से केवल 150-200 ही रह गए हैं।
आम तौर पर यहां कपड़ा श्रमिक अपेक्षाकृत ज्यादा बेहतर हालात में हैं क्योंकि वे लगभग दो से पांच रुपये प्रति मीटर की दर से कमाई करते हैं। इस हिसाब से उनका औसत मासिक वेतन 15,000 से 20,000 रुपये रहता है। लेकिन ये आंकड़े अब इतिहास की बात हो गए हैं। लस्काना में 48 वर्षीय विद्युत करघा श्रमिक रविनारायण राउत को उनकी सामान्य पगार 18,000 रुपये की तुलना में पिछले दो महीने के दौरान 1,000 रुपये का भुगतान किया गया है।
ओडिशा में अपने घर के लिए निकलने से पहले नियोक्ता से बकाया लेने के लिए रुके हुए राउत ने कहा कि मालिक ने खाना तो उपलब्ध कराया है, लेकिन तकरीबन सभी इकाई मालिकों का कहना है कि कपड़ा बाजार खुलने के बाद भुगतान चक्र दोबारा शुरू होने पर ही वे हमारा पूरा हिसाब कर सकते हैं। दो दशक शहर में रहने के बाद भी राउत का कहना है कि एक बार जाने के बाद मेरा वापस आने का इरादा नहीं है। मैं अपने खेतों में काम करूंगा।
सोजित्रा ने कहा कि अगर कंटेनमेंट इलाकों में खुदरा बाजार खोल दिए जाते हैं, तो नियोक्ता वायरस के बीच इंतजाम करने को तैयार है ताकि भुगतान चक्र शुरू हो सके जिससे वे पगार देना शुरू कर सकें।
हीरा उद्योग भी इस महामारी से पहले के ऑर्डर पूरे करने के लिए कच्चे हीरे तराशने की शुरुआत करने वाली कुछेक इकाइयों के साथ काम शुरू करने की कोशिश में लगा है। कपड़ा उद्योग की तुलना में इस पर ज्यादा गंभीर असर नहीं पड़ा है। रत्न एवं आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (जीजेईपीसी) के क्षेत्रीय अध्यक्ष दिनेश नवाडिया ने कहा कि 40 प्रतिशत से अधिक श्रमिक जा चुके हैं, लेकिन कपड़ा उद्योग से उलट हमारे 90 प्रतिशत श्रमिकों में राज्य के विभिन्न हिस्सों से आए कुशल गुजराती शामिल हैं।
कपड़ा उद्योग को थोक बाजार खुलने का इंतजार है, लेकिन इससे इतर हीरा उद्योग फिर से काम शुरू करने के लिए हवाई यात्रा सामान्य होने का इंतजार कर रहा है ताकि कच्चे हीरों का आयात और तैयार हीरों का निर्यात किया जा सके।
जब तक आयात शुरू नहीं होता, तब तक कोई नया ऑर्डर नहीं मिलेगा। वराछा में विश्व जेम्स जैसी छोटी इकाइयां केवल वही ऑर्डर पूरे कर रही हैं जो उन्हें लॉकडाउन से पहले प्राप्त हुए थे।
हीरा तराश वाली अपनी इकाई में सहकर्मियों के साथ बैठे मालिक मोहन चौटाला ने कहा कि उन्हें अपने सभी श्रमिकों को वापस लाने की कोई जल्दी नहीं है।
चौटाला ने कहा कि हमने उनके 15,000 से 20,000 रुपये के सामान्य वेतन के मुकाबले पिछले दो महीने के दौरान सबको 5,000 रुपये की राशि का भुगतान किया है। लेकिन जब मौजूदा ऑर्डर पूरे हो जाएंगे, जिसमें मुश्किल से 15 दिन ही लगेंगे, हमें नहीं पता कि नए ऑर्डर फिर कब मिलेंगे। इस वजह से हम अपने कर्मचारियों को वापस नहीं बुला रहे हैं।
उद्योग के सूत्रों का कहना है कि 7,00,000 से अधिक कर्मचारियों को रोजगार देने वाली और 1.8 लाख करोड़ रुपये के सालाना कारोबार वाली 6,000 हीरा तराश इकाइयों में से 100 इकाइयां भी दोबारा नहीं खुली हैं। अप्रैल और मई 2019 में 35,000 करोड़ रुपये मूल्य के हीरा निर्यात के आधार पर सूत्रों का अनुमान है कि लॉकडाउन के दौरान उद्योग को 30,000 करोड़ रुपये का नुकसान होगा। कर्मचारी जानते हैं कि उन्हें मुश्किल हालात में लौटना होगा। जिन कमरों में वे रहते थे, वे उपलब्ध नहीं हैं। जब वे किराया नहीं दे पाए तो, मकान मालिकों ने उन्हें अंतिम चेतावनी दे दी थी ताकि वे अन्य ऐसे किरायेदारों को खोज सकें जो भुगतान कर सकते हों। अगर उनके पास लौटने पर कोई कमरा होता है, तो भी सूरत वापस लौटने के लिए उनमें से कितने लोगों के पास ट्रेन का टिकट खरीदने के लिए पैसे होंगे, कोई नहीं जानता।