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जलवायु परिवर्तन और दिल्ली से लगा फ्रेंच परियोजना वाला ‘स्ट्रॉबेरी गांव’ पल्ला

पल्ला में फ्रांस की दिग्गज खुदरा कंपनी कारफू की परियोजना भी थी, जो अब बंद हो चुकी है

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सार्थक चौधरी   
Last Updated- March 10, 2025 | 10:26 PM IST

कभी आठ एकड़ के खेत में पकी हुई स्ट्रॉबेरी देखना अशोक के लिए आम बात होती थी। मगर हाल के वर्षों में बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के कारण इसमें काफी कठिनाइयां आ रही हैं।

खेत में खड़े अशोक के हाथ आहिस्ता आगे बढ़ रहे हैं और हर एक बेरी को छू कर देख रहे हैं। वे अंगुलियों से दबाकर रस का पता लगा रहे हैं और उनकी आंखें सभी बेरी को गहराई से देख रही हैं। पल्ला में अरविंद बेनीवाल की खेत पर काम करने वाले अशोक का कहना है, ‘इस बार जब हमने इसे तोड़ने का फैसला किया तो बहुत से फल खराब हो चुके हैं।’

दिल्ली की उत्तरी सीमा पर नदी किनारे बसा पल्ला गांव काफी शांत है, जो शहर के कंक्रीट के जाल से बिल्कुल अलग है। इसी स्थान से राष्ट्रीय राजधानी में यमुना नदी प्रवेश करती है और यह वह स्थान है जहां दिल्ली में 30 किलोमीटर तक फैली इस नदी का पानी सबसे साफ रहता है।
अन्य कृषि प्रधान गांवों से पल्ला को जो बात अलग करती है वह यह कि यहां अलग-अलग किस्म की फसलें होती हैं। खेतों में बड़े करीने से ब्रोकली और केले की कतारें लहलहा रही हैं। सर्कस की तरह छोटे-छोटे कैनोपी वाले टेंट प्रतिकूल मौसम के बावजूद मशरूम की खेती को आश्रय दे रहे हैं।

मगर सबसे खास स्ट्रॉबेरी का गलियारा है। चमकता लाल फल आसपास की हरियाली में चार चांद लगाता है, जो किसी भी चित्रकार के लिए काफी बेहतरीन चित्र हो सकता है। स्ट्रॉबेरी तोड़ने, उसकी पैकिंग करने और भेजने के लिए तेज गति से बड़ी संख्या में श्रमिक खेत में आते हैं। बेनीवाल बताते हैं, ‘ऐसे मौसम में हमें जल्दी करनी होगी। एक दशक पहले तक स्ट्रॉबेरी तोड़ने के लिए हमारे पास अप्रैल और मई तक का वक्त होता था। अब यह काफी कम रह गया है। हम इसे पंजाब, कोलकाता, महाराष्ट्र, लखनऊ व अन्य शहरों में भेजते हैं, लेकिन बढ़ते तापमान के कारण कुछ बेरी दुकानों तक पहुंचने से पहले ही खराब हो जाते हैं।’

उनके खेत में विंटर डाउन, कैमरोसा, चैंडलर और स्वीट सेशन जैसी स्ट्रॉबेरी की कई किस्में होती हैं। अंतर सिर्फ उनके पकने, लंबे समय तक चलने और उपयोगिता को लेकर है। फिलहाल, स्ट्रॉबेरी से उन्हें प्रति किलोग्राम 300 से 400 रुपये मिलते हैं, लेकिन वह बताते हैं कि एक एकड़ की खेती में 5 लाख रुपये तक खर्च होता है। वह अपने खेत की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘मगर हम पूरी तरह से स्ट्रॉबेरी पर ही निर्भर नहीं रहते हैं। यहां देखिए सभी तरह की फसलें हैं।’ पल्ला में खेती जरूरत से कहीं ज्यादा जुनून है।

गांव के एक और किसान धर्मेश (बदला हुआ नाम) भी इसी बात से पूरी तरह सहमत हैं। वह इस बात पर जोर देते हैं कि प्रौद्योगिकी अपनाने की पल्ला के किसानों की क्षमता ही उन्हें औरों से अलग करती है। 31 वर्षीय धर्मेश शिमला मिर्च, खीरा और कई जड़ी-बूटियों की खेती करते हैं। वह बताते हैं कि यहां के कई युवा किसान यूट्यूब और गूगल के जरिये नई प्रौद्योगिकी सीख रहे हैं। वह कहते हैं, ‘कुछ लोगों ने तो खेती के लिए अपनी इंजीनियरिंग की जमी जमाई नौकरी तक छोड़ दी। हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती फसलों के बीमा की है। यहां के 99 फीसदी किसानों के पास यह नहीं है। प्रीमियम काफी महंगे हैं और पॉलिसी में केवल चरम मौसम को कवर किया जाता है और दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन का प्रभाव इसमें शामिल नहीं है।’

बेनीवाल अपनी सफलता का पूरा श्रेय स्थापित बाजार और पहले शुरुआत करने को देते हैं। वह कहते हैं, ‘मैंने यह व्यवसाय 1998 में शुरू किया था और तब मैं उत्तर भारत में स्ट्रॉबेरी उगाने वाले कुछ लोगों में था। मेरा परिवार पीढ़ियों से खेती कर रहा है मगर आज के युवा किसानों की तरह ही मैंने भी उस वक्त वैकल्पिक फसल उगाने का निर्णय लिया।’

उल्लेखनीय है कि उनके खेत से सिर्फ 5 किलोमीटर दूर ही संग्रहण केंद्र है। उन्होंने कहा, ‘हम सीधे रिलायंस, बिग बास्केट, मदर डेरी और अन्य कंपनियों को बिक्री करते हैं। यहां के अधिकतर किसान पढ़े-लिखे हैं और इसलिए हम अच्छी कीमतों के लिए मोलभाव करते हैं और अगर जरूरत पड़ी तो आजादपुर मंडी भी दूर नहीं है।’ पल्ला में ही कभी फ्रांस की दिग्गज खुदरा कंपनी कारफू की परियोजना भी थी, जो अब बंद हो चुकी है। साल 2010 में कंपनी ने गांव में सब्जी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए एक पहल शुरू की थी, जिसका उद्घाटन फ्रांस के कृषि मंत्री ने किया था।

फलों और सब्जियों के अलावा फूलों की खेती के लिए भी पल्ला काफी प्रसिद्ध है। शादी-विवाह के मौसम से पहले यानी नवंबर के अंत तक यहां गेंदे के फूल वाले खेत लहलहाने लगते हैं। एक स्थानीय किसान ने बताया, ‘अब यह इतना फायदेमंद नहीं है जितना पहले हुआ करता था, क्योंकि अब सस्ते फूल कोलकाता से आ जाते हैं। मगर शादियों के जबरदस्त दिनों में मांग काफी रहती है उससे ही कम किसी तरह अपना कारोबार बचाने में सफल रहे हैं।’ उन्होंने उच्च लागत और कम रिटर्न तथा पानी की कमी के कारण पारंपरिक खेती में आ रही अस्थिरता को देखते हुए गेंदे की खेती शुरू की थी। गेंदे की खेती में कम पानी का उपयोग होता है और चावल तथा गेहूं के मुकाबले इसमें करीब तीन गुना मुनाफा होता है।

बेनीवाल के खेत में अभी भी अशोक व्यस्त हैं और मजदूरों को निर्देश दे रहे हैं कि गाड़ियों में लादने से पहले स्ट्रॉबेरी के बक्सों को कैसे रखना है। वह कहते हैं कि डिलिवरी का वक्त और गुणवत्ता दोनों महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि महाबलेश्वर (महाराष्ट्र) की स्ट्रॉबेरी से उत्तर भारत के बाजारों को कड़ी प्रतिस्पर्धा मिल रही है। देश में स्ट्रॉबेरी का 85 फीसदी उत्पादन महाबलेश्वर में ही होता है।

First Published : March 10, 2025 | 10:25 PM IST