भारत में केंद्र और राज्यों की सरकारें दुनिया की सबसे अधिक व्यय करने वाली सरकारें नहीं हैं। कई क्षेत्रों में सरकारें अपने देश के जीडीपी के लिहाज से अधिक व्यय कर रही हैं। इनमें विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं तो हैं ही, साथ ही लैटिन अमेरिका, मध्य और पूर्वी यूरोप के देश तथा मध्य तथा पश्चिमी एशिया के देश शामिल हैं।
परंतु भारत की सरकारें भी व्यय में पीछे नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के विश्व आर्थिक दृष्टिकोण के आंकड़ों के मुताबिक भारत सरकार राष्ट्रीय स्तर पर अपने जीडीपी का करीब 28 फीसदी व्यय करती है। यह दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों से अधिक तो है ही सब-सहारा अफ्रीका के कई देशों से भी यह अधिक है। भारत श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों की तुलना में भी अधिक व्यय करता है।
ऐसे व्यय का नतीजा क्या है? उदाहरण के लिए बांग्लादेश का सरकारी व्यय भारत की तुलना में आधा है और वह जीडीपी के 14.5 फीसदी के बराबर है लेकिन उसकी जीवन संभाव्यता हमसे बेहतर है और वहां बच्चों की स्कूलिंग के साल भी अधिक होते हैं। प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी वह भारत के आसपास ही है।
मलेशिया, थाईलैंड और वियतनाम जैसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में हमसे बेहतर स्थिति में हैं जबकि उनकी सरकारें जीडीपी का अपेक्षाकृत छोटा हिस्सा खर्च करती हैं। इन देशों तथा कई अन्य देशों का राजकोषीय घाटा भी कम है और उनका सार्वजनिक ऋण भी अपेक्षाकृत कम है।
बांग्लादेश में यह भारत के 83.2 फीसदी की तुलना में आधा है और वियतनाम में इससे भी कम। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि भारत के उच्च व्यय ने बेहतर बुनियादी ढांचा मुहैया कराया है। इसे कैसे समझा जा सकता है? एक जवाब तो यह है कि प्रतिशत भ्रामक हो सकते हैं। प्रति व्यक्ति कम जीडीपी का उच्च प्रतिशत प्रति व्यक्ति कम विशुद्ध व्यय के रूप में नजर आ सकता है। यानी भारत की सरकार का आकार जीडीपी की तुलना में काफी बड़ा हो सकता है।
इसके बावजूद वह दक्षिण-पूर्व एशिया के उच्च आय वाले देशों की तुलना में प्रति व्यक्ति व्यय कम करता है। ऐसे में स्वास्थ्य और शिक्षा में उसका प्रदर्शन भी उनसे कमतर है। बांग्लादेश इस मामले में अपवाद है और वह प्रति व्यक्ति कम व्यय के बावजूद बेहतर प्रदर्शन कर रहा है।
परंतु यह भी सच है कि भारत में जहां सरकारों ने कई तरह की सेवाएं मसलन स्कूली शिक्षा, चिकित्सा सुविधा आदि मुहैया कराई है, वहीं उनकी गुणवत्ता भी कमजोर रही है। ऐसे में प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी पर ध्यान देने की जरूरत है कि सरकारी कार्यक्रमों को अधिक जनोन्मुखी बनाने की आवश्यकता है। यानी कम दिक्कतों के साथ बेहतर आपूर्ति। हाल ही में जी20 के संदर्भ में भी नरेंद्र मोदी ने कहा कि जीडीपी केंद्रित नजरिये के बजाय मानव केंद्रित नजरिया अपनाना होगा।
मोदी को यह श्रेय दिया जाना चाहिए कि वह इन बातों पर पहले से अमल करते आए हैं। मिसाल के तौर पर सबको बिजली और पानी उपलब्ध कराना, घरेलू महिलाओं को सब्सिडी पर स्वच्छ ईंधन मुहैया कराना, सरकारी सब्सिडी से बनने वाले मकानों के निर्माण की गति तेज करना, शौचालय बनाना, मुफ्त खाद्यान्न और चिकित्सा बीमा मुहैया कराना और किसानों को नकद राशि देना।
उल्लेखनीय है कि ऐसा करते समय उन्होंने सरकारी निवेश भी बढ़ाया। खासतौर पर परिवहन अधोसंरचना के क्षेत्र में। उन्होंने भविष्य के लिए एक विस्तारवादी प्रोत्साहन कार्यक्रम शुरू किया ताकि चुनिंदा विनिर्माण क्षेत्रों में निवेश बढ़ाया जा सके।
अभी इस रुख के सामाजिक-आर्थिक नतीजों का अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए कि सरकार की सांख्यिकीय व्यवस्था समुचित नहीं है बल्कि ऐसा इसलिए भी है कि बहुत सारी हालिया पहलों के परिणाम अभी सामने आने बाकी हैं। बहरहाल, एक समस्या पहले ही नजर आ रही है: जीडीपी के हिस्से के रूप में सरकारी व्यय (केंद्र और राज्यों का) बीते कुछ वर्षों में थोड़ा कम हुआ है जबकि जीडीपी की तुलना में व्यय एक दशक पहले की तुलना में करीब एक फीसदी बढ़ा है। परिणामस्वरूप घाटा और सार्वजनिक ऋण दोनों बढ़े।
रेटिंग एजेंसी फिच ने राजकोषीय स्थिति को एक अहम मसला बताया। अगर बिना व्यय को कम किए घाटे और कर्ज के स्तर को कम करना है तो इसका तरीका यह है कि तेज आर्थिक वृद्धि हासिल की जाए ताकि प्रति व्यक्ति जीडीपी में सुधार हो। सरकारें चाहे जितना जनोन्मुखी होना चाहें, सामाजिक निवेश और कल्याणकारी पैकेजों के लिए और अधिक धन, व्यय पर दोबारा ध्यान केंद्रित करने या (फिर से) आर्थिक वृद्धि से ही उपलब्ध होगा।
दक्षिण-पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को लाभ हुआ क्योंकि उन्होंने दोनों काम किए और आज वे बेहतर स्थिति में हैं। वृद्धि मायने रखती है। सरकारों को मानवकेंद्रित तो होना चाहिए लेकिन साथ ही जीडीपी पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।