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रोजगार और साझी समृद्धि की दिशा में काम जरूरी

एक तरफ देश लगातार आर्थिक तरक्की की राह पर आगे बढ़ रहा है और दूसरी तरफ देश में असमानता का स्तर भी तेजी से बढ़ रहा है। विस्तार से बता रहे हैं अजय छिब्बर

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अजय छिब्बर   
Last Updated- April 26, 2024 | 9:31 PM IST

प्रतिष्ठित उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा ने एक दफा कई लोगों को चौंकाते हुए कहा था, ‘मैं नहीं चाहता कि भारत एक आर्थिक महाशक्ति बने, मैं चाहता हूं कि यह एक खुशहाल मुल्क बने।’ भारत को ‘विश्व खुशहाली रिपोर्ट’ 2024 में 143 देशों में 126वां स्थान दिया गया है- यानी इसे बहुत खुशहाल देश नहीं माना गया है।

विडंबना यह है कि भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने की बहुत संभावना है। इस दशक के समाप्त होने तक अगर भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सात फीसदी सालाना की दर से बढ़ता रहा तो हम जर्मनी और जापान को पछाड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे।

इतना ही नहीं अगर 2021 की कीमतों पर हमारी प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय (जीएनआई) 14,000 डॉलर तक पहुंच गई (उच्च आय वाला देश बनने के लिए विश्व बैंक द्वारा तय सीमा) तो 2047 तक हमारा देश 21 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला देश हो जाएगा। यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था का मौजूदा आकार है यानी हम यकीनी तौर पर एक आर्थिक महाशक्ति होंगे।

परंतु केवल आय लोगों को खुशहाल नहीं बनाती। दुनिया का सबसे अमीर मुल्क, अमेरिका जिसका मंत्र है, ‘जीवन, आज़ादी और खुशी की तलाश’, वह खुशहाली सूचकांक में 23वें स्थान तक गिर गया है। प्रसन्न होने के लिए भारत को न केवल जीडीपी में इजाफा करने की आवश्यकता है बल्कि उसे बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य, बेहतर रोजगार, असमानता में कमी तथा सामाजिक एकता की भी जरूरत है।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) का मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) आय, स्वास्थ्य (जीवन संभाव्यता) और शिक्षा (साक्षरता और विद्यालयीन शिक्षा) का आकलन करता है और उसमें भारत 190 देशों में 132वें स्थान पर है जो काफी कम है। महामारी के झटके के बाद भी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय जीडीपी के 1.3 फीसदी के बराबर के मामूली स्तर पर है। शिक्षा पर होने वाला सरकारी व्यय बढ़कर जीडीपी के करीब 5 फीसदी के बराबर हुआ है और बच्चियों समेत ज्यादा लोग स्कूल जा रहे हैं। परंतु सीखने का स्तर कमजोर बना हुआ है और अधिकांश युवा कौशल विहीन हैं तथा बुनियादी काम करना भी नहीं जानते।

ऐसे में खतरा यह है कि कहीं भारत का जनसां​ख्यिकीय लाभांश एक त्रासदी में न बदल जाए। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ताजातरीन रोजगार रिपोर्ट देश में रोजगार की निराशाजनक तस्वीर पेश करती है। खासतौर पर युवाओं के लिए। माध्यमिक और हाईस्कूल तक की शिक्षा पाने वाले बेरोजगार युवाओं की संख्या 2000 के 35.2 फीसदी से बढ़कर 2022 में 65.7 फीसदी हो गई।

विश्व बैंक कहता है कि रोजगार के अनुपात में गिरावट आ रही है। कृषि रोजगार में कमी आनी चाहिए थी लेकिन उसमें इजाफा हो रहा है। बीते पांच वर्ष में इसमें छह करोड़ का इजाफा हुआ है। जिन लोगों को खेतों के बाहर काम मिला उन्हें मोटे तौर पर विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में दिहाड़ी पर काम करने का ही मौका मिला। परंतु यहां भी लैंगिक स्तर पर काफी भेदभाव दिखता है।

अरब क्रांति ने हमें दिखाया था कि शिक्षा और बेरोजगारी का मिश्रण बहुत उथलपुथल ला सकता है। सरकार की प्रतिक्रिया यही है कि रोजगार तैयार करना उसका काम नहीं है। निजी क्षेत्र को रोजगार तैयार करने चाहिए लेकिन जटिल श्रम कानूनों और पुराने पड़ चुके नियमन की वजह से जमीन लगातार महंगी होते जाने के कारण तथा कारोबारी सुगमता की अन्य लागत के महंगा होने के कारण निजी क्षेत्र उच्च तकनीक और पूंजी के इस्तेमाल वाले क्षेत्रों में निवेश करना चाहता है न कि कम कौशल वाले विनिर्माण क्षेत्र में जहां ढेर सारे कम पढ़े-लिखे लोग नौकरी तलाश करते हैं।

कई कंपनियां अपना काम छोटी कंपनियों को सौंप देती हैं जो कम कुशल दैनिक श्रमिकों से काम कराती हैं। तकनीकी क्षेत्र के रोजगार बढ़ रहे हैं लेकिन वे हर वर्ष श्रम योग्य आबादी में शामिल हो रहे एक करोड़ युवाओं की रोजगार की जरूरतें पूरी नहीं कर सकते। सरकार की औद्योगिक नीति की पीएलआई सब्सिडी कम श्रम गहन क्षेत्रों पर केंद्रित है। ऐसे में रोजगार की कमी चौंकाती नहीं है।

गरीबी में तो कमी आई है लेकिन असमानता की स्थिति अस्पष्ट है। परिवार खपत सर्वेक्षण 2022-23 के आंकड़े दिखाते हैं कि खपत असमानता में 2011-12 के सर्वे की तुलना में कम हुई है। एक बार पूरे आंकड़े सामने आने के बाद यह पुष्टि होगी कि उनकी तुलना हो सकती है या नहीं। चाहे जो भी हो खपत की कम रिपोर्टिंग उच्च स्तर पर स्पष्ट रूप से असमानता को कम दर्शाती है।

वर्ल्ड इनेक्विलिटी लैब का ‘द बिलियनेयर राज’ नामक एक नया अध्ययन बताता है कि भारतीयों की आय और संपत्ति की असमानता दुनिया में सर्वाधिक असमानताओं में शामिल है और आबादी के एक फीसदी हिस्से के पास 22.6 फीसदी आय और 40.1 फीसदी संपत्ति है। भारत में असमानता का स्तर चीन और अमेरिका से अधिक तथा दक्षिण अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के समकक्ष है।

अगर आरोपों के मुताबिक यह मान भी लिया जाए कि वर्ल्ड इनेक्विलिटी लैब के आंकड़े बढ़ाचढ़ाकर पेश किए गए हैं तो भी इस बात में संदेह नहीं है कि भारत में असमानता का स्तर काफी अधिक है। यूएनडीपी दिखाता है कि एचडीआई, जहां भारत पहले ही काफी पीछे है, उसमें जब असमानता को शामिल किया जाता है तो भारत के लिए इसमें 31 फीसदी की और गिरावट आती है।

हुरुंस की वैश्विक अमीरों की सूची के मुताबिक भारत में 271 अरबपति हैं। अगर तुलना करें तो जर्मनी में 140 और जापान में 44 अरबपति हैं। इन सभी देशों का जीडीपी भारत से अधिक है। कुछ लोगों की दलील है कि अधिक अरबपतियों का होना इस बात का संकेत है कि भारत बड़े पैमाने पर ऐसी कंपनियां तैयार कर रहा है जिनमें कोरिया और जापान की वैश्विक प्रतिस्पर्धा का मुकाबला करने की क्षमता है। वे एक ऐसी आपूर्ति श्रृंखला तैयार करती हैं जहां छोटी कंपनियां समृद्ध होती हैं।

परंतु हमने लैटिन अमेरिका में देखा है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बचाकर रखी गई ऐसी बड़ी कंपनियां तब बड़ी बाधा बनकर सामने आती हैं जब वे राजनीति और इस प्रकार नियमन को प्रभावित करने में सक्षम हो जाती हैं। नवाचार की कमी और नियमन को यूं प्रभावित करने वाली कंपनियों के कारण लैटिन अमेरिका मध्य आय के जाल में फंस गया।

अब भारत वैश्विक प्रतिस्पर्धा वाली कंपनियों के साथ कोरिया और जापान की राह पर जाएगा या संरक्षित बाजारों के साथ लैटिन अमेरिका की राह पर यह देखना होगा। संरक्षित बाजारों में उपभोक्ताओं को उच्च मार्जिन चुकाना होता है और देश मध्य आय के जाल में उलझ सकता है।

महंगी और विलासितापूर्ण शादियों तथा ‘नव धनाढ्यों’ द्वारा संपत्ति के अशोभनीय प्रदर्शन के साथ भारत की बढ़ती असमानता साफ नजर आ रही है। कुछ लोग इसे अच्छा संकेत मानते हैं और उनके मुताबिक यह इस बात का प्रतीक है कि धन अब तिरस्कृत नहीं बल्कि सम्मानित है। अगर इनके साथ बेहतर और अधिक रोजगार हों तथा समृद्धि साझा की जाए तो हम सभी इस नए उभरते भारत का जश्न मना सकते हैं।

नई ‘कल्याणकारी’ व्यवस्था जहां गरीबों को नि:शुल्क अनाज, गैस सिलिंडर, नि:शुल्क बिजली और पानी का कनेक्शन दिया जा रहा है, वे कुछ चुनाव जीतने में मदद कर सकते हैं लेकिन बिना अधिक रोजगार तैयार किए हम ‘विकसित’ भारत नहीं बना सकते। भारत के विकास मॉडल में गंभीर सुधार की जरूरत है क्योंकि अगर असमानता एक बार पैबस्त हो गई तो उसे दूर करना मुश्किल होगा। हम समृद्ध भारत के साथ-साथ समावेशी भारत चाहते हैं ताकि भारत वैसा खुशहाल देश बन सके जैसा जे.आर.डी. चाहते थे।

First Published : April 26, 2024 | 9:26 PM IST