Categories: लेख

कर्जमाफी से आगे जहां और भी है…

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 05, 2022 | 4:31 PM IST

ग्रामीण ऋण सर्वे समिति की रिपोर्ट के आधार पर 1955 में इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया के मालिकाना हक में परिवर्तन किया गया और इसका नया अवतार भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के रूप में सामने आया।


फिर जब एसबीआई विस्तार की डगर पर बढ़ा, तो इसके पीछे एक मकसद यह था कि कर्ज के लिए सूदखोरों या महाजनों पर किसानों की निर्भरता कम से कम की जाए।


फिर एसबीआई ने बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की भर्तियां कीं और मुझे भी इस बैंक से जुड़ने का मौका मिला। करीब एक दशक बाद ग्रामीण कर्ज पर मेरी अगली अवधारणा एक ट्रेनिंग कार्यक्रम में बनी, जिसे इंडियन इंस्टिटयूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम) अहमदाबाद के एक प्रोफेसर ने संबोधित किया था।


प्रोफेसर साहब का कहना था कि यदि बैंक को आगे बढ़ना है, तो इसे कृषि क्षेत्र को कर्ज मुहैया कराने पर ज्यादा ध्यान देना होगा, क्योंकि यह क्षेत्र देश में आर्थिक गतिविधियों का बड़ा सेगमेंट है, जो 40 से 50 फीसदी के आसपास है।


उन्होंने कहा कि कृषि कर्ज थोपी जाने जैसी बात नहीं होनी चाहिए, बल्कि बैंक को इसे अपने विकास की एक अच्छी संभावना के रूप में देखना चाहिए।



सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान गिर रहा है। 50 के दशक जीडीपी में कृषि का जो योगदान था, आज यह योगदान उसके मुकाबले करीब एक तिहाई हो गया है।


पर अपनी आजीविका के लिए इस क्षेत्र पर निर्भर लोगों की संख्या करीब-करीब जस की तस बनी हुई है। यह इस बात का संकेत है कि व्यापारिक मसलों ने कृषि की हालत किस खराब की है।



बहरहाल, जब हम इस बार बजट में किसानों के लिए ऐलान की गई 60 हजार करोड़ रुपये की कर्जमाफी की बात करते हैं, तो हमें कई अलग-अलग पहलुओं को ध्यान में रखना होगा।



पहली बात यह है कि बैंकों द्वारा दी गई कर्जमाफी क्षतिपूर्ति बैंकों को कैसे मिलेगी? मुझे याद है कि 1980 के दशक में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ए. आर. अंतुले ने इसी तरह की कर्जमाफी दी थी। करीब 25 साल बीत चुके, पर आज तक बैंकों को महाराष्ट्र सरकार की ओर से इसके एवज में पैसा नहीं मिल पाया है और बैंक इसे हासिल करने की लड़ाई में जुटे हैं।


उम्मीद की जा रही है कि कर्जमाफी के हालिया फैसले को ठोस इंतजाम के साथ लागू कराया जाएगा, पर यहां भी यह बात स्पष्ट नहीं है कि कर्जमाफी से बैंकों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए किस तरह की व्यवस्था की जाएगी।



अब नैतिक खतरों की बात करते हैं। पिछले हफ्ते मैं एनडीटीवी पर भोंसले नाम के एक किसान (मैं उनके नाम का पहला शब्द नहीं सुन पाया था) का इंटरव्यू देख रहा था। बजट में किए गए ऐलान से भोंसले बेहद नाराज दिख रहे थे।


उनका कहना था कि उन्होंने पिछले हफ्ते ही अपने कर्ज की अदायगी की है। पर लगे हाथ भोंसले ने यह भी कह डाला कि अगली दफा वह ऐसी मूर्खता नहीं करेंगे और उन्हें अगली कर्जमाफी का इंतजार है।


भोंसले के तर्क के अलावा एक मसला यह भी है कि कर्जमाफी से वैसे किसानों का भला नहीं होगा, जो प्राइवेट मनी लेंडर्स से कर्ज लेते हैं।



भारतीय संविधान में यह इंतजाम किया गया था कि शैक्षणिक संस्थाओं में अनुसूचित जाति के लिए किया गया आरक्षण का इंतजाम तात्कालिक है और इसे शुरू में सिर्फ 10 साल के लिए लागू किया गया था।


पिछले 50 साल में इस आरक्षण को जाति और धर्म के आधार पर वर्गीकृत किया गया और आरक्षण का दायरा सरकारी नौकरियों तक बढ़ा दिया गया है। अब देखने वाली बात यह होगी कि क्या कर्जमाफी के इस चलन को आगामी चुनावी सालों में बार-बार दोहराया जाएगा?


आखिरकार हमनें सरकारी जमीनों पर हुए गैरकानूनी कब्जों, अवैध निर्माण ऐसी कई चीजों को ‘नियमित’ करते आए हैं। मिसाल के तौर पर मुंबई की ही बात करें तो वहां सरकारी जमीन पर हुए अवैध कब्जे को खाली कराए जाने की आखिरी तारीख हर चुनावी साल में आगे बढ़ा दी जाती है।


यह बात दीगर है कि इस तारीख को बढ़ाए जाने का सबसे बड़ा फायदा झुग्गियों में रहने वालों को होता है।
लालू प्रसाद और सैफुद्दीन सोज जैसे केंद्रीय मंत्री और मायावती समेत कई मुख्यमंत्री कर्जमाफी का दायरा बढ़ाए जाने की मांग कर रहे हैं।


हो सकता है आने वाले दिनों में कोई नेता अपने वोटरों को नैनो कार मुफ्त में देने का ही ऐलान कर डाले। यदि करुणानिधि रंगीन टीवी सेट्स दे सकते हैं, तो कार क्यों नहीं दी जा सकती?
एक बात पूरी तरह साफ है।


किसानों को मदद की सख्त जरूरत है, खासकर उन नौकरशाहों से ज्यादा जरूरत तो अवश्य है, जिन्हें छठे वेतन आयोग का फायदा मिलेगा। देश की अर्थव्यवस्था में किसानों का योगदान काफी सकारात्मक है।


दूसरी ओर, नौकरशाह अपने ओहदे का गलत इस्तेमाल कर अपनी तनख्वाहों से ज्यादा पैसा बनाते हैं।



किसानों की समस्याओं का स्थाई हल तभी हो सकता है जब उनकी जमीन पर प्रति हेक्टेयर होने वाली उपज को बढ़ाया जाए। साथ ही किसानों को उनके अनाज के लिए मिलने वाले दाम और ग्राहकों द्वारा उसके लिए दिए जाने वाले दाम के बीच का अंतर खत्म हो यानी बिचौलियों को मिलने वाले भारी मुनाफे से निजात पाई जाए।


इसी तरह खराब परिवहन तंत्र की वजह से अनाजों की होने वाली बर्बादी रोककर, अनाज के भंडारण की व्यवस्था दुरुस्त कर  किसानों को मुफलिसी की हालत से उबारा जा सकता है।


इन सबके अलावा आजीविका के लिए खेती पर आश्रित लोगों की तादाद भी घटाए जाने की जरूरत है।



कृषि क्षेत्र की बेहतरी के लिए नौकरशाही और सार्वजनिक क्षेत्र पर निर्भर होना अव्यावहारिक कदम कहा जाएगा।


दूसरी ओर, संगठित रिटेल, ठेके की खेती जैसी अवधारणाएं हालात को और गंभीर बना रही हैं। हमारे कृषि मंत्री ने अपने जिले की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल तब्दीली ला दी है।


पर क्या उन्होंने कृषि के बुनियादी अर्थशास्त्र में तब्दीली के लिए अपनी क्षमताओं का दोहन किया है? यही सही वक्त है जब इस दिशा में कोशिश किए जाने की दरकार है।


बढ़ती आबादी और मांग की वजह से आने वाले दिनों में दुनिया भर में खाद्य पदार्थों 

First Published : March 11, 2008 | 10:17 PM IST