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आखिर राहुल गांधी क्या चाहते हैं?

Published by
शेखर गुप्ता
Last Updated- December 25, 2022 | 10:32 PM IST

क्या राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जो 107 दिनों के सफर के बाद दिल्ली पहुंची, वह एक राजनीतिक कदम के रूप में बुरी तरह नाकाम रही है? या इसने उनकी पार्टी के लिए अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न किया है। लाल सिंह चड्ढा नुमा (फॉरेस्ट गम्प से माफी सहित) से क्या गांधी ने खुद को एक जननेता के रूप में स्थापित किया है या केवल इसी बात की पुष्टि की है कि वह ‘पप्पू’ ही हैं जैसा कि उनके विरोधी उन्हें कहते हैं? आखिरी बात, श्रीनगर में यह यात्रा समाप्त होने के बाद उनका और उनकी पार्टी का लक्ष्य क्या होगा? जवाबों की तलाश में हम तीन सवालों वाले अपने पसंदीदा नियम पर कायम रहेंगे। पहला, क्या कांग्रेस पार्टी मायने रखती है? दूसरा, कांग्रेस के लोग क्या चाहते हैं? और अंत में राहुल गांधी क्या चाहते हैं? अगर आप पहला सवाल नरेंद्र मोदी, अमित शाह या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के किसी अन्य वरिष्ठ नेता के सामने रखेंगे तो आपको उत्तर मिलेगा। वे कहेंगे कि ये बातें मायने नहीं रखतीं। इस पार्टी का नेतृत्व एक धूमिल पड़ते परिवार के हाथों में है और यह अपने अंतर की ओर बढ़ रही है।

उनके कदमों को देखिए, कोई भी बात भाजपा को उतना परेशान नहीं करती जितना कांग्रेस या राहुल गांधी के सामान्य वक्तव्य भी करते हैं। भाजपा सोशल मीडिया टीम यात्रा के हर कदम और हर भाषण पर नजर रखती है और जाहिर है उसे अपनी तरह से पेश करती है। भाजपा कभी स्वीकार नहीं करेगी लेकिन यह तय है कि कांग्रेस अभी भी उसकी सबसे बड़ी विरोधी पार्टी है। कम से कम 2024 तक ऐसा ही है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के 20 फीसदी मत अभी भी अक्षुण्ण है, गुजरात में मुझ समेत तमाम टीकाकारों के अनुमान के विपरीत आम आदमी पार्टी उसे बहुत अधिक नुकसान पहुंचाने में विफल रही। अब एक और राज्य में पार्टी की सरकार है और 2023 में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी वही सबसे बड़ी चुनौती पेश करेगी।

यकीनन भाजपा कांग्रेस को 2024 में अपने लिए चुनौती नहीं मानती लेकिन कांग्रेस ही इकलौती पार्टी है जो किसी तरह की चुनौती देने की स्थिति में है। यह चुनौती उस दल को होगी जो जीत की आदी हो चुकी है। कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में चुनाव होने हैं और इन राज्यों में कांग्रेस ही एकमात्र चुनौती है।
आज केवल एक ही दल है जो वैचारिक आधार पर अभियान की तैयारी कर रहा है- भारत जोड़ो बनाम भारत तोड़ो। प्रेम बनाम घृणा। धर्मनिरपेक्ष बनाम सांप्रदायिकता। आम आदमी बनाम अदाणी-अंबानी। गांधी बनाम सावरकर। आप या तो इस पक्ष में हो सकते हैं या उस पक्ष में।

आप कह सकते हैं कि यह सब फर्जी और पाखंड भरी बातें हैं। उससे यह तथ्य नहीं बदलता है कि कांग्रेस इकलौता दल है जो ऐसा द्वैत खड़ा करने का प्रयास कर रहा है। आम आदमी पार्टी इन सबसे बचती है और वह स्कूलों, स्वास्थ्य, नि:शुल्क सुविधाओं की घोषणाओं पर टिकी हुई है। अन्य दल अपने-अपने राज्यों तक सीमित हैं। अगर आप भाजपा समर्थक हैं तो आप इस बात पर हंस सकते हैं। आप पूछेंगे कि मोदी और शाह राहुल गांधी और कांग्रेस की परवाह क्यों करेंगे। लेकिन वे करते हैं क्योंकि वे गंभीर राजनेता हैं जो चुनाव जीतते हैं। यही कारण है कि उनकी प्राथमिकता यह है कि राहुल अपनी ‘पप्पू’ की छवि न तोड़ दें।

दूसरा सवाल, कांग्रेस के लोग क्या चाहते हैं? इसका एक शब्द में आसान जवाब है: सत्ता। इसके सिवा वे राजनीति में रहने की वजह ही क्या है? यह बात हमें तीसरे सवाल तक लाती है। राहुल क्या चाहते हैं? यह बात थोड़ी दिक्कत वाली है। इसलिए कि हम यह सवाल 2004 से पूछ रहे हैं और जवाब नहीं मिल रहा है। क्या यह यात्रा हमें कुछ नया बता रही है? क्या अपनी पार्टी के नेताओं की तरह वह भी सत्ता चाहते हैं? या वह एक नया नैतिक बल चाहते हैं? जो चुनावी न हो लेकिन अराजनीतिक भी न हो? राजा नहीं दार्शनिक? अगर ऐसा है तो वह राजा कौन होगा जिसे दार्शनिक राहुल अपनी सलाह देना चाहेंगे?

यह बहस उन्होंने उसी दिन शुरू कर दी थी जिस दिन उन्होंने जयपुर में पार्टी के उपाध्यक्ष का पद संभाला था और कहा था कि जिस सत्ता को सब हासिल करना चाहते हैं वह जहर है। उस वक्त मैंने अपने एक लेख में उनकी इस अवधारणा को पूरी तरह खारिज किया था। हमने दलील दी थी कि एक लोकतंत्र में सत्ता जहर नहीं है। यह एक बेहतरीन तोहफा है, एक सम्मान है और एक ऐसा विशेषाधिकार है जो मतदाता आपको देते हैं। हम अभी भी यही तर्क रखते हैं कि अच्छे नेताओं को इसे खुशी, आभार और विनम्रता के साथ स्वीकार किया है। सत्ता और सार्वजनिक कार्यालय जनता के विश्वास के समानार्थी हैं। खेद के साथ कहना चाहता हूं कि ‘सत्ता जहर है’ की अवधारणा सामंती अवधारणा है और लोकतंत्र में इससे बचा जाना चाहिए। जैसा कि हालिया चुनाव अभियानों से साबित हुआ अगर राहुल अभी भी सत्ता नहीं चाहते तो वह चाहते क्या हैं?

यदि राहुल गांधी का प्राथमिक लक्ष्य अपनी थकी-हारी और नैतिक बल खो चुकी पार्टी का पुनर्निर्माण करना है तो वह इस यात्रा का इस्तेमाल उसका नैतिक बल बढ़ाने में करेंगे ताकि उसमें नई जान फूंक सकें, उसे वैचारिक तौर पर नयापन दे सकें और एक नई ऊर्जा लाएं जबकि इस बीच पार्टी की संस्थाओं में लोकतंत्र लाने का प्रयास जारी रहे। उन्होंने 2004 से ही हमें बताया है कि वह पार्टी में वास्तविक लोकतंत्र लाना चाहते हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो पार्टी का सामंतीकरण समाप्त करना चाहते हैं। तत्कालीन संप्रग सरकार में कोई पद न लेने के लिए भी उन्होंने यही वजह दी थी। अगर उनकी यह परियोजना अभी भी जारी है तो कह सकते हैं कि कुछ है जो ठीक नहीं है।

अंतत: पार्टी ने मतदान के जरिये अपना अध्यक्ष चुना। वह चुनाव कितना अच्छा और निष्पक्ष था? शशि थरूर किसी भी तरह हारते इसलिए वह मुद्दा नहीं है। अगर सैद्धांतिक रूप से आंतरिक बदलाव का इरादा होता तो हार के बाद भी उनके साथ समुचित सम्मान और विनम्रता से पेश आया जाता। उनके चुनाव लड़ने की वजह से ही चुनाव को कुछ हद तक वैधता मिली। लेकिन यह सब देखने को नहीं मिल रहा है।

राहुल अपनी मृतप्राय पार्टी का नैतिक बल जगाने में और उसमें प्राण प्रतिष्ठा करने में जरूर कामयाब रहे हैं। उनके साथ चल रही भीड़ में बड़ी संख्या पुराने कार्यकर्ताओं और वफादार मतदाताओं की भी है। यह सब पार्टी के लिए अच्छा है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। एक फिल्म अभिनेता, अर्थशास्त्री, एक बुजुर्ग संपादक, एक लेखक या एक स्टैंडअप कॉमेडियन इस बात के लिए उनके शुक्रगुजार हो सकते हैं कि उन्होंने एक राष्ट्रीय राजनीतिक आंदोलन में नजर आने का अवसर दिया जहां आंसू गैस या लाठी चार्ज का कोई खतरा नहीं है। कुछ लोगों के लिए यह इंस्टाग्राम पर प्रसिद्धि बटोरने का अवसर है लेकिन उनकी पार्टी के पेशेवर राजनेताओं को यह सब नहीं चाहिए।

यह बात राहुल को वहीं लाती है जहां से उन्होंने शुरुआत की थी। क्योंकि इन राजनेताओं को सत्ता चाहिए जिसे राहुल जहर मानते हैं। अगर उन्होंने अपनी यह राय बदल दी है तो भी पार्टी को शायद यह नहीं पता है। वे उनकी इस परियोजना से अनिश्चित निष्कर्ष निकालते हैं जो वैचारिक तो है लेकिन अब तक अराजनीतिक भी। अगर राहुल गांधी सीधे सत्ता नहीं चाहते यानी खुद के लिए निर्वाचित पद नहीं चाहते तो उन्हें ऐसा कहना चाहिए। वह पार्टी से भी यही मांग नहीं कर सकते। यहां उनकी पार्टी के साथी उनसे बेकरारी से एक सवाल करना चाहते हैं लेकिन वे पूछने से डरते हैं। सवाल यह है कि क्या वह उन्हें सत्ता दिलाने के लिए सबकुछ करने को तैयार हैं? अगर नहीं तो इस सारे तमाशे का क्या अर्थ है?

First Published : December 25, 2022 | 9:31 PM IST