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वायरस के प्रयोगशाला से निकलने के दावे में दम!

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 3:18 AM IST

साल 1955 आते-आते तत्कालीन सोवियत संघ में राजनीति काफी हद तक सामान्य हो चली थी। जब ख्रुश्चेव ने मोलतोव के खिलाफ चले सत्ता संघर्ष में जीत हासिल की तो पराजित योद्धा को मंगोलिया का राजदूत बनाकर भेज दिया गया। उस परिदृश्य में न तो कोई सरकारी एजेंसी थी और न ही किसी तरह की कैद। ऐसा लग रहा था कि सोवियत संघ अपने चरमपंथी दौर से बाहर निकल रहा है और वह अब किसी सामान्य देश की तरह बरताव करने लगा है। उस समय दुनिया के तमाम लोग इसे सोवियत संघ के साथ रिश्ते सामान्य करने का माकूल वक्त मान रहे थे ताकि उसके साथ लाभप्रद व्यापार एवं सहयोग के क्षेत्र तलाशे जा सकें और उसे तेजी से सामान्य स्थिति की तरफ लाया जा सके।
लेकिन दो घटनाओं ने तस्वीर ही बदल दी। वर्ष 1983 में सोवियत संघ के एक लड़ाकू विमान ने कोरियाई एयरलाइंस के एक विमान को मार गिराया जिसमें 269 यात्रियों की मौत हो गई। फिर 1986 में सोवियत संघ के चेर्नोबिल परमाणु संयंत्र में एक बड़ा हादसा हो गया। दोनों ही मामलों में तत्कालीन सरकार ने झूठ बोला और मामले को दबाने की कोशिश की। इन मामलों ने सर्वाधिकारवादी शासन से जुड़ी समस्याएं उजागर की और वर्ष 1989 में सोवियत संघ के पतन का रास्ता तैयार कर दिया।
कोविड महामारी के लिए जिम्मेदार जानलेवा कोरोनावायरस के भी एक प्रयोगशाला से लीक होकर दुनिया भर में कहर बरपाने की बातें काफी जोर-शोर से कही जा रही हैं। सोवियत काल की उपरोक्त घटनाएं इस संकल्पना से काफी साम्यता रखती हैं। इस धारणा के मुताबिक चीन के वुहान विषाणु-विज्ञान संस्थान (डब्ल्यूआईवी) में जारी खतरनाक शोध के दौरान ही सार्स-कोव-2 वायरस वजूद में आ गया और वहां से लीक होकर पूरी दुनिया में कहर बरपाया हुआ है।
मुझे नहीं मालूम कि इस संकल्पना में कितनी सच्चाई है। पहली बात, डॉनल्ड ट्रंप की तरफ से ऐसा बयान देने की वजह से शायद गंभीर किस्म के लोगों ने उसे गलत ही माना होगा। घटिया नेता एक मायने में काफी सशक्त होते हैं, वे लोगों को यह यकीन दिला सकते हैं कि सच उनकी कही बातों के ठीक उलट है। चीन का साम्यवादी शासन 1983 में अपनाई गई  सोवियत कार्य-प्रणाली से ही संचालित होता रहा है। संशयवादियों को लगता है कि चीनी सरकार कुछ-न-कुछ जरूर छिपा रही है। वहीं आशावादियों का मत है कि सर्वाधिकारी सरकारें हमेशा से ही झूठ बोलने और विरोध को कुचलने में लगी रहती हैं।
आने वाले हफ्तों में पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियों एवं शोधकर्ताओं को वुहान प्रयोगशाला के साथ काम कर रहे लोगों से हासिल जानकारियां पता चल जाएंगी। लेकिन निर्णायक सबूत शायद न ही मिल पाएं। इतिहास की तमाम पहेलियां सोवियत काल की गोपनीय फाइलों तक पहुंच सुगम होने के बाद ही हल हो पाईं। उसी तर्ज पर चीन की गोपनीय फाइलें सार्वजनिक नहीं होने तक शायद हमें इस बात का पुख्ता जवाब नहीं मिल पाए कि जानलेवा वायरस के प्रयोगशाला से निकलने का दावा सही है या गलत। फिलहाल यह सवाल दिलचस्प है कि वर्ष 2021 के खुलासों के क्या परिणाम हो सकते हैं? वर्ष 1978 में चीन में राजनीति सामान्य होने लगी थी। सरकारी एजेंसियों की संलिप्तता या विरोधियों को जेल भेजे बगैर ही सत्ता का हस्तांतरण हो गया था। दुनिया भर के तमाम लोगों ने चीन के साथ रिश्ते सामान्य करने की दिशा में कदम उठाए। यह महसूस किया गया कि चीन को वैश्वीकरण की प्रक्रिया से जोड़ा जा सकता है जिससे उसे सामान्य देश बनाने में मदद मिलेगी। लेकिन यह प्रक्रिया 2012 में पूरी तरह बदल गई जब शी चिनफिंग ने चीन को फिर से सर्वाधिकारवादी एवं राष्ट्रवादी मार्ग पर ले जाना शुरू कर दिया।
प्रयोगशाला लीक के कयास चीन के साथ भावी संपर्क को लेकर सरकारी एवं निजी कंपनियों के निर्णयकर्ताओं पर असर डाल सकते हैं। इससे लोगों के मन में यह बात साफ हो पाएगी कि चीन कोई सामान्य देश नहीं है और चीन में संकेंद्रित सत्ता एवं दुनिया भर में राष्ट्रवादी भावनाओं के उभार के नुकसानदेह नतीजे ही होंगे।
इस महामारी ने अब तक लाखों लोगों की जान ली है और करोड़ों लोगों को गंभीर स्वास्थ्य संकट का सामना करना पड़ा है। दुनिया भर में फैले करोड़ों लोगों के भीतर इस स्थिति के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ गुस्से का गुबार पैदा होगा। जिम्मेदार की पहचान के लिए कराए जाने वाले जनमत सर्वेक्षणों में चीन सरकार का नाम शामिल होगा।
चीन की सॉफ्ट पावर घट जाएगी। इसकी वजह से चाइना मॉडल को लेकर लोगों की रुचि कम हो जाएगी। मसलन, भारत के भीतर राजनीति एवं अर्थव्यवस्था में चीन के तौर-तरीके अपनाने को लेकर दिलचस्पी कम हो जाएगी। एक वक्त था जब असहमति को दबाने और आम जनता को नियंत्रित करने से बुरी चीजें छिपकर करने की पूरी ताकत मिल जाती थी। लेकिन मुक्त-स्रोत खुफिया मामले पर पर्दा डालने की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रयोगशाला लीक की संकल्पना लेकर आ ही गया।
चीन ने अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपना मुकाम हासिल करने के लिए बहुत कुछ किया है। लेकिन अब दूसरों को मनाने-समझाने की उसके प्रतिनिधियों की क्षमता कम होगी। दूसरे देशों के साथ काम करने के लिए एक सीमा तक सम्मान एवं विश्वास का होना जरूरी होता है और यह कई वर्षों के सौम्य व्यवहार से ही हासिल हो पाता है। लेकिन प्रयोगशाला से कोरोनावायरस लीक होने की अटकलें इस सम्मान को कम करती हैं। इसके साथ ही विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों में चीन की हार्ड पावर कम करने के लिए ताकतवर देशों के एकजुट होने की संभावना है।
कई वैश्विक कंपनियों के बोर्ड अपने कारोबार के लिए चीन की अहमियत पर नए सिरे से गौर करने में जुट गए हैं। विविधीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है जो चीन की महत्ता कम करने की व्यवस्थागत कोशिश है। एक बार फिर यह काम जोर पकड़ेगा।
कुछ चिंतक जेनेटिक इंजीनियरिंग, नैनो प्रौद्योगिकी और नाभिकीय विज्ञान क्षेत्र में वैज्ञानिक शोध के प्रतिकूल दुष्परिणामों को लेकर लंबे समय से चिंता जताते रहे हैं। उम्मीद है कि अब दुनिया इन वैज्ञानिक शोधों के दौरान सुरक्षा के अधिक उपाय करेगी और खास सतर्कता बरतेगी। वैश्विक शोधकर्ता चीन के साथ सहयोग और सस्ते शोध के लिए किए जाने वाले करारों को लेकर अधिक फिक्रमंद होंगे। ऐसी स्थिति में उच्च लोकतांत्रिक प्रक्रिया वाले देशों को तरजीह दिए जाने की संभावना अधिक है। वैज्ञानिक उत्कृष्टता की आकांक्षा रखने वाले देशों को यह अहसास होगा कि विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए स्वतंत्रता एवं असहमति जैसे पहलू भी जरूरी हैं।
वर्ष 1972 के बाद से चीन के साथ संपर्क को लेकर दो नजरिये रहे हैं। पहला, एक लोकतंत्र उन लोगों के लिए मायने रखता है जो मायने रखते हैं। दूसरे नजरिये के समर्थक चीन के साथ कारोबार के हिमायती रहे हैं और उनकी दलील रही है कि चीन बाकी दुनिया के साथ जितना संपर्क में रहेगा, उसके सामान्य देश बनने में उतनी ही मदद मिलेगी। प्रयोगशाला लीक की अटकल इन आशावादियों को मायूस करती है। किसी देश के चीन जैसे बरताव की लागत बढऩे की भी संभावना है।
इनमें से कुछ भी सफेद-स्याह नहीं है। वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने की अटकल भर ही इन सभी मोर्चों पर तस्वीर नहीं बदलती है। दरअसल 2012 से ऐसे कई वाकये हुए हैं जिन्होंने उस खुशनुमा विचार पर सवाल खड़े किए हैं कि चीन धीरे-धीरे सामान्य हो रहा है या ‘चाइना मॉडल’ को दूसरी जगह भी अपनाया जा सकता है। चीन-रूपी परिघटना अब हवा में उड़ती दिख रही है। राष्ट्रवाद या तानाशाही जैसे अमूर्त विचारों को नहीं समझने वाले व्यावहारिक लोगों के लिए तो वायरस के प्रयोगशाला में बनने की अटकल ही मूर्त रूप है। भविष्य में शायद 2020 को हम ऐसे साल के रूप में याद करें जो पूर्व सोवियत संघ के लिए 1983 एवं 1986 रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं)

First Published : June 25, 2021 | 12:15 AM IST