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प्रणव मुखर्जी के संस्मरण असलियत से किनारा?

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 10, 2022 | 2:14 AM IST

दिवंगत प्रणव मुखर्जी के संस्मरणों के तीन खंड पढऩे के बाद यदि आप चौथा खंड द प्रेसिडेंशियल इयर्स (2012-17) पढ़ेंगे तो आपका ध्यान इस बात पर जाएगा कि उनका मिजाज बदल गया है और वह सच कहने से बच रहे हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि उन्होंने झूठ लिखा है। वह केवल सच बयान करने से हिचकिचा गए। शायद ऐसा इसलिए हुआ हो क्योंकि वे जिन वर्षों की बात कर रहे थे वे हालिया अतीत के थे। या शायद वे पाठकों को राष्ट्रपति भवन में अपने दल निरपेक्ष कार्यकाल के बारे में यह जताना चाहते थे कि उन्होंने अत्यधिक संयम बरता। वह इस बात को सावधानी से रेखांकित करते हुए बताते हैं कि आखिर क्यों उन्होंने 2014 के चुनाव में मतदान नहीं किया। कहा तो यह भी गया कि उन्होंने ऐसा संकोच इसलिए दिखाया क्योंकि उनकी दो संतान कांग्रेस पार्टी में पूर्णकालिक राजनीति में हैं। या फिर शायद वे इस बात को लेकर सचेत थे कि उनके बच्चों में सहोदरों वाली प्रतिद्वंद्विता हो सकती थी। परंतु यह कारगर नहीं रहा और इस खंड के प्रकाशन के बाद उनके बेटे और बेटी का मतभेद सार्वजनिक हो गया।
प्रणव मुखर्जी जटिलताओं में जाने से जिस तरह बचते हैं वह चकित करता है। इसलिए भी निराशा होती है क्योंकि सार्वजनिक जीवन में वह हमेशा ऐसे व्यक्ति के रूप में जाने गए जो सावधानीपूर्वक चुनी हुई लेकिन वजनदार बातें करता था। जिन निर्णयों या मुद्दों के बारे में उन्हें बेहतर जानकारी होती, वे हमेशा हस्तक्षेप करते। भले ही अन्य लोग असहमत हों। वह जल्दी नाराज भी होते थे।
आयकर अधिनियम में पुरानी तिथि से लागू संशोधनों को याद कीजिए। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह से लेकर पी चिदंबरम, कमलनाथ और कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ सहयोगी भी इसके खिलाफ थे। परंतु वह अडिग थे कि भारत एक संप्रभु देश है, न कि कोई मुक्त क्षेत्र। यदि कोई मुनाफा कमा रहा है तो उसे कर चुकाना होगा। निवेश और बाजार पर इसका चाहे जो असर हो, संप्रभुता अपना काम करेगी। अब अर्थव्यवस्था पर इसके दुष्प्रभाव और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता पंचाटों में हुई शर्मिंदगी पर पछता भर सकते हैं। इस खंड ने कुछ सुर्खियां भी बटोरीं। एक संदर्भ उस दौर का है जब वह राष्ट्रपति भवन में थे और पार्टी में नहीं थे। वह एक चलताऊ जिक्र करते हैं कि कैसे सोनिया गांधी संकट के वर्षों में पार्टी को प्रभावी नेतृत्व नहीं दे सकीं। वह लिखते हैं कि यदि वह मंत्रिमंडल में रहते तो ममता बनर्जी को संप्रग नहीं छोडऩे देते या आंध्र प्रदेश का विभाजन नहीं होने देते।
वह जिज्ञासा जगाते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि वह क्या कदम उठाते। वाई एस राजशेखर रेड्डी के आकस्मिक निधन के बाद आंध्र प्रदेश को लेकर उनका राजनीतिक रुख क्या होता? वह सोनिया गांधी पर हल्का आक्षेप करते हुए शायद आशा करते हैं कि वह इसे भूल जाएंगी। यदि ऐसा था तो आप कह सकते हैं कि वह अपनी मशहूर सहज बुद्धि से काम नहीं ले पाए। यदि उन्हें लगा कि यह राजनीतिक रूप से उन्हें नुकसान पहुंचाएगा तो आप यह सोच सकते हैं कि वह तो बहुत पहले राजनीति से दूर हो चुके थे। क्या प्रणव मुखर्जी वर्तमान राष्ट्रीय राजनीति की हकीकत को भूल गए थे या अपने पुराने दल की हकीकत को? प्रकाशक चाहते हैं कि उनकी किताबें सुर्खियां बटोरें। इसे सुर्खियां मिलीं लेकिन उनके अलावा किताब में कुछ नहीं।
वह यह भी बताते हैं कि कैसे मनमोहन ङ्क्षसह गठबंधन को एकजुट रखने के प्रयास में संसद से दूर रहे और सांसदों के साथ संवाद से भी वंचित रहे। उन्होंने यह भी लिखा है कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद की पेशकश सोनिया गांधी ने की जबकि नरेंद्र मोदी ने उसे अर्जित किया। यह बात तो कोई भी वयस्क व्यक्ति कह सकता है। इसके लिए विशेष साहस की जरूरत नहीं। मैं इससे पहले भी दो बार उनके संस्मरणों पर लिख चुका हूं। पहले खंड में उन्होंने बताया कि पार्टी के भीतर उन्हें कैसी दिक्कतें हुईं, कैसे राजीव गांधी ने उन्हें हाशिये पर रखा और उनसे एक बाहरी व्यक्ति की तरह व्यवहार किया गया। कैसे वह संसद के केंद्रीय कक्ष में घंटों अकेले समय बिताते और पार्टी का कोई नेता उनके साथ दिखना तक न चाहता। सन 1985 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के मुंबई (तत्कालीन बंबई) के चर्चित सत्र मे उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित होना पड़ा था जब राजीव गांधी ने अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि कांग्रेस सत्ता के दलालों की पार्टी बन गई है। कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य के रूप में प्रणव मुखर्जी कृषि संबंधी अपना प्रस्ताव एआईसीसी के प्रस्ताव के रूप में पेश करने वाले थे तभी लंच की घोषणा हो गई। उन्हें उनका वाक्य तक पूरा नहीं करने दिया गया और कार्य समिति से हटा दिया गया। पहले खंड में वह राजीव गांधी को इंदिरा गांधी का उत्तराधिकारी चुने जाने के तरीके पर सवाल उठाने के करीब भी पहुंचे। वह यह नहीं कहते कि वह सबसे काबिल थे लेकिन इसे महसूस किया जा सकता है।
वह स्पष्ट सवाल करते हैं कि अगर कांग्रेस संसदीय दल और बोर्ड की बैठक नहीं बुलाई गई तो क्या एक अफसरशाह पीसी एलेक्जेंडर और राजीव के निजी मित्र अरुण नेहरू ही यह तय कर सकते थे कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा? अगले खंड में काफी संयम दिखा। शायद इसीलिए कि उन्हें पार्टी से अलग होकर राष्ट्रपति बने अधिक समय नहीं बीता था। इसमें प्रमुख रूप से उन्होंने अतीतगामी कर, पुराना समाजवादी होने के नाते मुक्त बाजार समर्थक मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम के साथ वैचारिक मतभेद का जिक्र किया। मेरा मानना है कि उन्होंने ऐसा अपने हित में किया। इसीलिए मैंने इससे संबंधित आलेख को शीर्षक दिया था- दादा उपदेश मत दीजिए। उन्हें अच्छी तरह पता था कि वित्त मंत्रालय में उनके कार्यकाल ने संप्रग-2 को कमजोर किया और अर्थव्यवस्था को पतन की राह पर धकेला। ताजा खंड हमारी इस धारणा की पुष्टि करता है कि वह लगातार धार खोते गए। कुछ सुर्खियों के अलावा ताजा खंड बहुत कुछ छिपाता है। नोटबंदी के निर्णय पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उन्हें यानी राष्ट्रपति को और मंत्रिमंडल को सूचित नहीं किए जाने पर उनकी सफाई इसका उदाहरण है। या उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने के निर्णय पर सरकार का साथ देने पर उनकी सफाई।
हमारे देश में जहां सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोग पत्र, किताब या और कुछ नहीं छोड़ जाते वहां हमें उनके चार खंडों के लिए शुक्रगुजार होना चाहिए। यह समकालीन इतिहास पर बड़ा काम है। परंतु वास्तविक राजनीतिक मुद्दों को न छूना निराश करता है।
यदि उन्हें पता था कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने पहले ही कमजोर राजनीतिक नेतृत्व दिखाया है तो वह अपनी पार्टी और विचारधारा के लिए लडऩे के बजाय राष्ट्रपति भवन क्यों गए? उन्होंने उस कठिन दौर का कोई संकेत नहीं दिया जब उन्हें अहसास हुआ कि सोनिया गांधी ने उन्हें नहीं, उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को राष्ट्रपति बनाने का निर्णय कर लिया था।
अब किसी और को किताब लिखकर बताना होगा कि कैसे उन्होंने मायावती, ममता बनर्जी यहां तक कि शिवसेना और भाजपा से संपर्क कर (एक पुराने खंड में उन्होंने बताया कि एमजे अकबर के माध्यम से ऐसा किया गया) सोनिया गांधी को विफल कर दिया। उन्होंने राष्ट्रपति पद लगभग छीन लिया और सोनिया गांधी को संप्रग कार्यकाल की सबसे बड़ी पराजय दी। उन्होंने एक स्पष्ट बात नहीं लिखी कि वह इस बात से गहरे तक दुखी थे कि इंदिरा गांधी के बाद गांधी परिवार ने उन्हें उनका हक नहीं दिया। समय के साथ रिश्ते और बिगड़ते गए। सब जानते हैं कि जब प्रणव मुखर्जी एक उच्चाधिकार प्राप्त समूह के साथ दिल्ली हवाई अड्डे पर बाबा रामदेव से चर्चा के लिए पहुंचे तो सोनिया बहुत नाराज हुई थीं। वह सोनिया के प्रशंसक नहीं थे। राहुल के तो बिल्कुल भी नहीं। राहुल का पृष्ठ 13-14 पर दो बार सरसरी जिक्र भर है।
इस सवाल का जवाब बाकी है कि प्रणव बनाम गांधी परिवार की दिग्गजों की लड़ाई में कौन जीता? क्या प्रणव जीते क्योंकि सोनिया गांधी की इच्छा के खिलाफ वह राष्ट्रपति बने? अगर यह सही है तो वह लगातार यह अफसोस करते क्यों दिखते हैं कि सोनिया गांधी और उनके परिवार ने उन्हें वह नहीं दिया जिसके वह हकदार थे? यानी प्रधानमंत्री का पद।
हमें कैसे पता चलेगा? इसके लिए चारों खंड पढ़कर यह निर्णय लेना होगा कि अपनी नजर में वह विजेता थे या पराजित?

First Published : January 10, 2021 | 11:42 PM IST