महामारी के दौरान बहुत से विश्लेषकों और यहां तक कि नीति निर्माताओं ने भी अर्थव्यवस्था की स्थिति की बेहतर समझ के लिए गैर-परंपरागत उच्च बारंबारता (फ्रीक्वेंसी) वाले संकेतकों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। लंबी अवधि के आंकड़ों के अभाव को मद्देनजर रखते हुए तात्कालिक सकल घरेलू उत्पाद जैसे ज्यादा परंपरागत मापकों को दर्शाने वाले सूचकांकों का इन संकेतकों से निर्माण करना इस समय विज्ञान से ज्यादा एक कला है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के मासिक बुलेटिन में हाल के एक शोध पत्र में उन चुनौतियों का जिक्र किया गया है, जिन पर पार पाने की जरूरत है। लेखकों ने लिखा है कि बुंडेसबैंक जैसे केंद्रीय बैंकों ने ऐसे सूचकांक बनाए हैं, जो अर्थव्यवस्था में तिमाही दर तिमाही बदलाव की दर मुहैया कराते हैं। निस्संदेह 2020 से भारत में बहुत से वाणिज्यिक एवं निवेश बैंकों ने भी आर्थिक गतिविधियों की फिर से शुरुआत और सुधार के संकेतक विकसित किए हैं क्योंकि देशव्यापी लॉकडाउन से उबरने की दर निवेशकों के लिए सबसे अहम हो गई थी।
लेखकों ने रेल माल ढुलाई, गूगल रुझान, श्रम बल भागीदारी दर जैसे उच्च बारंबारता वाले संकेतकों पर आधारित बहुत से अलग-अलग सूचकांकों का सुझाव दिया है। दो साल पहले आरबीआई के इसी पत्र में इन्हीं संकेतकों का इस्तेमाल कर ऐसा एक सूचकांक बनाया गया था। लेकिन दो साल के अनुभव से महामारी के शुरुआती महीनों के मुकाबले ज्यादा लक्षित और सटीक सूचकांक बनाना संभव हो सकता है। असल बात यह है कि ऐसे सूचकांक महामारी की अर्थव्यवस्था के बाद भी उपयोगी होंगे। सामान्य समय में भी भारतीय आंकड़ों में बहुत देरी होती है और ये प्रभावी उपयोग के लिए नीति निर्माताओं और निवेशकों को समय पर मुहैया नहीं कराए जाते हैं। इस वजह से पत्र में कहा गया है कि उनके द्वारा सुझाए गए सूचकांकों में इस्तेमाल बहुत से उच्च बारंबारता वाले संकेतक वही हैं, जिनका इस्तेमाल केंद्रीय सांख्यिकी संगठन राष्ट्रीय आय के अत्यधिक शुरुआती या आरंभिक अनुमानों में करता है।
इस तरह नीति निर्माण के आधार के रूप में उनके इस्तेमाल के कुछ ठोस उदाहरण मौजूद हैं। अब केवल उच्च बारंबारता वाले संकेतकों के एक बड़े और ज्यादा भरोसेमंद समूह की दरकार है। इन सूचकांकों में तकनीकी विकास की बदौलत शामिल एक उपयोगी नए उच्च बारंबारता संकेतक का उदाहरण तात्कालिक सकल निपटान प्रणाली एवं खुदरा भुगतानों के तहत हस्तांतरण की मात्रा है। डेटा संग्रह और प्रशासन का डिजिटलीकरण तेजी से हो रहा है, इसलिए सरकार को यह मानना चाहिए कि इस डेटा को लेकर खुलापन और इसे आरबीआई तथा बड़े विश्लेषक समुदाय के साथ साझा करना भारतीय अर्थव्यवस्था को समझने एवं संभालने में बड़ा मददगार होगा। आरबीआई को स्वाभाविक रूप से यह फैसला लेने में सावधानी की जरूरत होगी कि वह अपने निर्णयों में कच्चे माल के रूप में कैसे और किन संकेतकों का इस्तेमाल करेगा।
व्यापक बाजारों के सही फैसले लेने के लिए उनकी ज्यादा से ज्यादा सूचनाओं तक पहुंच होने के सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों कारण हैं। नए तकनीकी टूल को मद्देनजर रखते हुए इस बात की पूरी उम्मीद है कि भारतीय आर्थिक विश्लेषण में एक बड़ी कमी (आधिकारिक आंकड़े जारी करने में देरी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की सही स्थिति का पता नहीं चल पाना) को बड़ी तादाद में उच्च बारंबारता वाले संकेतकों का इस्तेमाल कर दूर किया जा सकता है। आरबीआई किसी भी समय की तात्कालिक अर्थव्यवस्था की बेहतर समझ में संकेतकों एवं सूचकांकों के नए समूहों का इस्तेमाल कर सकता है, जबकि आधिकारिक सांख्यिकी प्रणाली भी डेटा संग्रह के दायरे को बढ़ाने और उन्हें जारी करने में देरी कम करने में इस्तेमाल कर सकती है।