अपेक्षाकृत लचीले मुद्रास्फीति लक्ष्य वाले ढांचे की इस माह समीक्षा होनी है। मुद्रास्फीति के लिए 4 फीसदी का लक्ष्य निर्धारित है जिसमें निचले और ऊपरी स्तर पर क्रमश: दो और छह फीसदी का दायरा रखा गया है। भारत ने सन 2016 में इस ढांचे को अपनाया था और कानून के मुताबिक केंद्र सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक के साथ मशविरा करके पांच वर्ष में एक बार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति का लक्ष्य का दायरा तय करती है।
कई अंशधारकों ने ढांचे में कई सुधारों को लेकर सुझाव दिए हैं। हालांकि सरकार केवल लक्ष्य की समीक्षा करेगी, न कि समूचे नीतिगत ढांचे की। अब तक का अनुभव बहस करने लायक है। इस संदर्भ में आरबीआई ने मुद्रा और वित्त को लेकर अपनी ताजा रिपोर्ट में मौद्रिक नीति ढांचे का व्यापक अध्ययन प्रकाशित कर अच्छा किया है। आंकड़े बताते हैं कि नया ढांचा कारगर साबित हुआ है। अक्टूबर 2016 और मार्च 2020 के बीच औसत मुद्रास्फीति 3.9 फीसदी थी जबकि इससे पहले के चार वर्षों के दौरान यह 7.3 फीसदी थी।
इस अवधि में मुद्रास्फीति की अस्थिरता में भी कमी आई। इसका अर्थ यह है कि कीमतें अपेक्षाकृत स्थिर रहीं। कई टीकाकारों का सुझाव है कि आरबीआई को मूल मुद्रास्फीति को निशाना बनाना चाहिए क्योंकि मौद्रिक नीति संबंधी उपाय खाद्य कीमतों के समक्ष प्रभावी नहीं हैं। खुदरा मुद्रास्फीति सूचकांक में इनकी हिस्सेदारी करीब 46 फीसदी रही। बहरहाल, मौद्रिक प्राधिकार के लिए यह भी अहम है कि वह उस समग्र मुद्रास्फीति पर नजर डाले जिसका सामना उपभोक्ताओं को करना होता है। खपत के एक बड़े हिस्से की अनदेखी करने से शायद उद्देश्य पूरा न हो। यह आगे के अनुमानों पर भी असर डालेगा। आरबीआई ने 2008 के वित्तीय संकट के आसपास खाद्य मुद्रास्फीति की अनदेखी की थी और उसके बाद यह आम चलन बन गया। इसका असर गैर खाद्य घटकों पर भी पड़ा। हम कोई अपवाद नहीं हैं और हमारे यहां भी मूल्य सूचकांक में खाद्य वस्तुओं की हिस्सेदारी अधिक है। कई उभरते बाजारों में खाद्य उत्पाद मूल्य सूचकांक में अहम हिस्सेदारी रखते हैं। उभरते बाजारों के उच्च मुद्रास्फीतिक लक्ष्य की एक वजह यह भी है। वर्ष 2020 में मुद्रास्फीति तयशुदा दायरे से ऊपर निकल गई थी। तब कहा गया कि आरबीआई को अधिक लचीलापन अपनाना चाहिए क्योंकि अर्थव्यवस्था को कोविड के कारण बिगड़े हालात से निपटने के लिए कम ब्याज दरों की आवश्यकता है। परंतु उच्च लक्ष्य या तयशुदा दायरे में इजाफा करने से मुद्रास्फीति बढ़ सकती है और कीमतों में अस्थिरता बढ़ सकती है।
यदि ऐसा हुआ तो कंपनियों और आम परिवार दोनों की दीर्घावधि की निर्णय क्षमता प्रभावित होगी। हालांकि यह आरबीआई का आधिकारिक नजरिया नहीं है लेकिन रिपोर्ट में दलील दी गई है कि मौजूदा दायरा बरकरार रखा जाए। यह समझदारी भरा सुझाव है। नीतिगत परिचालन की बात करें तो रिपोर्ट में कहा गया है कि मार्जिनल स्टैंडिंग फैसिलिटी (एमएसएफ) और तयशुदा दरों वाली रिवर्स रीपो दर नकदी प्रबंधन के उपाय हैं। ऐसे में एमएसएफ और रिवर्स रीपो दर में बदलाव से जुड़े निर्णय मौद्रिक नीति समिति के दायरे से बाहर किए जा सकते हैं। अनुमानों के प्रबंधन के लिए कहा जा सकता है कि सामान्य परिस्थितियों में एक व्यवस्थित दायरा बनाकर रखा जाएगा। यह अनावश्यक बदलाव होगा और नीतिगत ढांचे में भरोसे पर असर डालेगा।
आरबीआई ने गत वर्ष रिवर्स रीपो दर कम करके नकदी समायोजन के दायरे का विस्तार किया था। ऐसे में अगर दोनों सिरों पर दरों में बदलाव किया गया तो मौद्रिक नीति समिति की स्थिति पर असर होगा। यदि अर्थव्यवस्था को कम दरों की जरूरत हुई तो समायोजन मौद्रिक नीति समिति के जरिये किया जाना चाहिए। बल्कि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसे अधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता है। बदलाव ऐसा हो जिससे नीतिगत ढांचा मजबूत हो।