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आव्रजन से जुड़े कठिन विषयों पर चर्चा जरूरी

सन 1951 में बांग्लादेश की आबादी में 22 फीसदी हिस्सेदारी वाले हिंदू घटकर अब केवल 8 फीसदी रह गए हैं।

Last Updated- September 11, 2024 | 9:53 PM IST
Illegal Immigrants

विश्व में आव्रजन (immigration) की बढ़ती घटनाएं और उनके कारण हो रहे जनांकिकीय बदलाव चिंता का विषय हैं। निष्पक्ष दिखने के फेर में हमें इन पर बातचीत करने से बचना नहीं चाहिए। बता रहे हैं आर जगन्नाथन

वास्तव में मुक्त समाज वे होते हैं जो वास्तविक मानवीय चिंताओं की स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर बंदिश लगाकर, कथित निष्पक्ष बात ही कहने पर जोर देकर, असहमत लोगों को ‘उदार सहमति’ का ठप्पा लगाकर बदनाम कर या ‘अल्पसंख्यकों’ को अन्य लोगों की तुलना में अधिक सम्मान और सुरक्षा के काबिल मानकर अपनी पीठ नहीं थपथपाते। यदि ऐसा किया जाता है तो आज नहीं तो कल आप ऐसी बंदिशों से पनपे असंतोष की बाढ़ को रोकने में नाकाम होंगे और कई बार वह हिंसक स्वरूप में भी सामने आएगी।

यूनाइटेड किंगडम में हाल ही में ऐसा देखने में आया, जहां गोरों की भीड़ ने पुलिस पर हमला किया क्योंकि उत्तरी इंगलैंड के साउथपोर्ट में कुछ युवतियों की चाकू मारकर हत्या कर दी गई थी। ये युवतियां टेलर स्विफ्ट की थीम वाले किसी आयोजन में हिस्सा लेने गई थीं। आततायी की पहचान में हुई देर ने आग में घी का काम किया क्योंकि कई लोगों को लगा कि पुलिस इस्लामी आव्रजकों (Islamic immigrants) को बचा रही है।

कई यूरोपीय देशों में दो सबसे बड़ी चिंताएं हैं अवैध आव्रजन और जनांकिकी में तेजी से बदलाव, जिसकी बड़ी वजह उनकी गिरती जन्म दर भी है। स्वीडन और डेनमार्क जैसे उदार देशों में, मध्य तथा पूर्वी यूरोप के बड़े हिस्से में और यहां तक कि फ्रांस, जर्मनी और इटली जैसे देशों में भी आव्रजन विरोधी रुझान के कारण दक्षिणपंथी दलों के मत तेजी से बढ़ रहे हैं।

दुख की बात यह है कि आम नागरिकों की चिंता समझने और दूर करने के बजाय मुख्य धारा के दलों ने जानबूझकर आव्रजन विरोधी रुझानों को दक्षिणपंथी बयानबाजी करार दे दिया। अपराध करने वाले इन आव्रजक समूहों को प्राय: अफ्रीकी, एशियाई या दक्षिण एशियाई कहा जाता है। यूनाइटेड किंगडम में बीते एक दशक के दौरान हमने देखा कि आमतौर पर पाकिस्तानी ‘ग्रूमिंग’ (बच्चियों को लुभाने, बहकाने और सिखाने वाले) गैंग्स को दक्षिण एशियाई की श्रेणी में डाल दिया गया।

पुलिस अधिकारी किशोरियों के साथ हुए अपराधों के बारे में बात नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें नस्लभेदी ठहराए जाने का डर है। बलात्कार या शोषण को ‘ग्रूमिंग’ कहना अपने आप में बेवकूफाना है मानो इन बच्चियों को अच्छा आचरण सीखने या कपड़े सही से पहनने के लिए ‘ग्रूम’ किया जा रहा था।

सार्वजनिक तौर पर बोलने वाले कई बुद्धिजीवियों ने आव्रजक समुदायों में इस तरह के अपराधियों के खिलाफ आवाज उठाई है। इसे दोगली पुलिस व्यवस्था कहा जाता है जहां बहुसंख्यकों को कोई अपराध करने पर कड़ी सजा दी जाती है किंतु वही अपराध करने वाले अल्पसंख्यक के साथ नरमी बरती जाती है।

मैं इस आलेख के माध्यम से दो बड़े सवाल उठाना चाहता हूं: हम आव्रजकों के प्रश्न से जूझने में इतना घबराते क्यों हैं और जननांकिकी में हो रहा तेज बदलाव गंभीर चर्चा के लिए उपयुक्त विषय क्यों नहीं है? इन मुद्दों को उठाने वालों को नस्लवादी या अतिवादी कहकर चुप क्यों करा दिया जाता है? एक बार इन मसलों पर सार्वजनिक चर्चा शुरू होने के बाद आम नागरिकों को कष्ट देने वाली समस्याओं के बेहतर समाधान हासिल किए जा सकते हैं।

उदारवादी कहेंगे कि आव्रजक अपने साथ विविधता और नए विचार लाते हैं। इतना ही नहीं वे अक्सर कम वेतन पर देर तक काम करते हैं।
हमें आव्रजकों से होने वाले लाभों से कोई समस्या नहीं लेकिन हमें उनके कारण होने वाली समस्याओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। आव्रजक समुदायों में अपराध की दर अक्सर ऊंची होती है। उच्च कर वाले जिन उत्तरी यूरोपीय देशों में उदार कल्याण योजनाएं उदार हैं, वहां आव्रजकों के कारण करदाता कर नहीं चुकाना चाहते क्योंकि उनके कर का फायदा स्वयं उन्हें नहीं बल्कि आव्रजकों को मिलेगा।

असल मुद्दा यह है कि किसी समाज के लिए कितना आव्रजन उचित है। यह भी मायने रखता है कि आव्रजन की रफ्तार क्या है और नए आगंतुक मेजबान देश की संस्कृति में कितनी जल्दी घुल-मिल रहे हैं। अगर वे बहुत तेजी से आ रहे हैं और घुलना-मिलना बहुत धीरे हो रहा है तो असल में हम कह रहे हैं कि आव्रजक अपनी बस्तियां बसा सकते हैं, जहां उस देश के कानून को अल्पसंख्यकों की रजामंदी के साथ कभी-कभार ही माना जाएगा और हमें इससे कोई दिक्कत नहीं है।

यह भी एक वजह है कि अत्यधिक उदारवादी देश डेनमार्क आव्रजकों की बड़ी बस्तियां खत्म कर रहा है और उनके कम उम्र के बच्चों को अपने देश की संस्कृति तथा भाषा सिखा रहा है। बच्चों को सप्ताह में 25 घंटे तक परिवार से दूर रखा जा रहा है ताकि वे बड़े होकर व्यापक समाज के साथ अच्छी तरह घुलमिल सकें।

इरादा यह है कि वहां समांतर सामाजिक व्यवस्थाएं न बनें। स्वीडन में भी आव्रजन पहले की तुलना में बहुत बढ़ गया है और एक दशक से भी कम समय में वहां की आबादी में आव्रजकों की संख्या 20 फीसदी तक पहुंच गई है। अलग संस्कृति के लोगों की बाढ़ से भला किस समाज में अस्थिरता नहीं आएगी?

दुनिया को नागरिकता और एकीकरण यानी घुलने-मिलने के मामले में दो सख्त नियमों को अपनाने की आवश्यकता है। जब दमन या आर्थिक दिक्कतों के कारण बड़ी तादाद में लोग किसी देश में आते हैं तो उन सभी लोगो को सांस्कृतिक रूप से गहरे जुड़ाव के बगैर जन्म के कारण या नैसर्गिक रूप से नागरिकता नहीं मिलनी चाहिए। नागरिकता मिलने के पहले आव्रजक समुदायों को भी कुछ न्यूनतम मानक पूरे करने चाहिए।

यूरोप में इस समय जो चर्चाएं चल रही हैं वे भारत के लिए भी प्रासांगिक हैं क्योंकि यहां भी बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों की चर्चा को सांप्रदायिक मान लिया जाता है। सन 1951 में बांग्लादेश की आबादी में 22 फीसदी हिस्सेदारी वाले हिंदू घटकर अब केवल 8 फीसदी रह गए हैं। अगर अब भी इस पर गंभीर चर्चा नहीं की जा सकती तो भला हम खुद को लोकतंत्र कैसे कह सकते हैं?

आव्रजन, धर्मांतरण और बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक समुदाय के बीच प्रजनन दर में अंतर के कारण भारत के कई राज्यों मे भी जनसंख्या का अनुपात तेजी से बदल रहा है। अगर हमें जनता का तेजी से बिगड़ता मिजाज संभालना है तो इन कठिन विषयों पर बात करनी होगी। ऐसा नहीं किया गया तो हताश लोग हिंसा और सड़क पर न्याय का रास्ता अपनाएंगे।

अजीब बात है कि आजादी के पहले देश के अधिकतर राजनेता औपनिवेशिक शासन में भी विवादित मुद्दों पर खुलकर अपनी राय रखते थे। परंतु अब हम गलत को गलत कहने से हिचकते हैं चाहे वह कितना ही साफ नजर क्यों न आ रहा हो।

उदाहरण के लिए जवाहरलाल नेहरू ने राज्यों में कोटे और कट्टरता पर अपने ही मुख्यमंत्रियों को जो पत्र लिखे थे, उन्हें पढ़ना चाहिए या इस्लाम और पाकिस्तान पर भीम राव आंबेडकर के नजरिये को समझना चाहिए। अगर आंबेडकर के अलावा किसी ने यह लिखा होता तो उसे आज इस्लामोफोब यानी इस्लाम से बिना मतलब डरने वाला करार दे दिया जाता।

लोकतांत्रिक देश में लोगों की चिंताओं पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए और विवादित विषयों से इनकार नहीं करना चाहिए या उन पर असहज प्रश्न करने वालों को खामोश नहीं करना चाहिए। एक मुक्त समाज निष्पक्ष दिखने के चक्कर में और चुनावी फायदों के लिए ऐसे मसलों को दबा या छिपा नहीं सकता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

First Published - September 11, 2024 | 9:46 PM IST

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