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इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण में भारत का अधूरा सपना

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 14, 2022 | 10:27 PM IST

भारत में कई समाचार प्रतिष्ठानों ने रॉयटर्स का हवाला देते हुए ऐसे शीर्षक वाली खबरें जोरशोर से चलाईं कि ऐपल अपने आईफोन विनिर्माण को चीन से हटाकर भारत ले जाने की योजना बना रही है। ऐपल की विनिर्माण साझेदार ताइवानी कंपनी फॉक्सकॉन के एक अरब डॉलर की लागत से चेन्नई के पास श्रीपेरुम्बदूर में लगाए जाने वाले संयंत्र में करीब 6,000 लोगों को रोजगार मिलने की बात भी कही गई।
हाल ही में आई एक और खबर में बताया गया कि भारत सरकार ने 10 मोबाइल फोन विनिर्माताओं समेत 16 इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों की प्रोत्साहन योजना के तहत की गई इनाम की अर्जी को मंजूर कर लिया है। इस योजना के तहत इन कंपनियों को 40,000 करोड़ रुपये का प्रोत्साहन दिया जाना है। इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण में भले ही वैश्विक प्रभुत्व के लिए नहीं, कम-से-कम आत्म-निर्भरता के लिए ऐसे सपने देखना असल में भारत के लिए कोई नई बात नहीं है। आजादी के कुछ साल बाद ही 1950 के दशक में मध्य में बेंगलूर में भारत इलेक्ट्रॉनिक्स और इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज उपक्रमों की स्थापना की गई थी। 1980 के दशक के मध्य में सैम पित्रोदा आए और ग्रामीण टेलीफोन एक्सचेंजों के माध्यम से समूचे देश को जोडऩे के लिए सरकार ने सीडॉट का गठन किया।
किसी टेलीविजन सीरियल की तरह सपनों एवं आकांक्षाओं के इस अनवरत दोहराव, सुर्खियां बनने वाली घोषणाओं, फंड के व्यापक प्रवाह और घरेलू विनिर्माण प्रयासों से केवल यही नजर आता है कि ये सपने दूर छिटक जाते हैं जबकि उद्योग बाएं या दाएं मुड़कर किसी अन्य दिशा में जाने लगता है। यह प्रयासों में शिद्दत की कमी नहीं है और न ही लगन की कमी या नेतृत्व प्रतिभा की कमी ही है। फिर किस वजह से ऐसा होता है?
शायद हमें उस पारिस्थितिकी के निरूपण पर थोड़ा वक्त देना चाहिए जिसमें ये लड़ाइयां लड़ी जाती हैं। इसे समझने के लिए नोकिया से बेहतर कोई और मामला नहीं हो सकता है। वर्ष 2000 में मोबाइल फोन समूह की वैश्विक अगुआ कंपनी नोकिया का राजस्व 4 अरब डॉलर हुआ करता था लेकिन एक दशक के ही भीतर यह धराशायी होकर खत्म होने के कगार पर पहुंच गई। असल में हुआ क्या था? हमें पता है कि वर्ष 2007 में ऐपल फोन को पेश किए जाने से संभवत: नोकिया प्रभावित हुई। लेकिन क्या केवल यही कारण था? क्या ऐसा था कि नोकिया के पास काफी हद तक सस्ता विनिर्माण नहीं था? क्या उनके फोन में ऐपल की तरह टचस्क्रीन का न होना एक कारण था? लेकिन इनमें से कोई भी कारण नोकिया के पतन के लिए जिम्मेदार नहीं था। असली वजह यह थी कि नोकिया के फोन में इस्तेमाल होने वाला सिम्बियन ऑपरेटिंग सॉफ्टवेयर ऐपल के आईफोन के फीचरों का मुकाबला नहीं कर सकता था।
आईफोन में इस्तेमाल होने वाले आईओएस ऑपरेटिंग सिस्टम ने ऐपल को यह सुविधा दी कि वह तीसरे पक्ष द्वारा बनाए गए मोबाइल ऐप को भी फोन पर चला सकता है। जल्द ही आईफोन महज एक फोन न रहकर एक कैमरा भी बन गया। और कुछ ही समय बाद यह कैमरे वाला एक फोन न रहकर कैमरे से लैस एक ऐसा फोन बन गया जिस पर आप अपनी पसंद के गाने भी डाउनलोड कर सुन सकते थे। ऐपल ने ऐप स्टोर की संकल्पना पेश कर नए-नए फीचरों से आईफोन को भर दिया।
नोकिया की परेशानी बढ़ाने के लिए सॉफ्टवेयर केंद्रित कंपनी गूगल ने भी ऐंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम पेश कर दिया जिससे बुनियादी इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण सुविधाओं से युक्त कोई भी कंपनी इस ऑपरेटिंग सिस्टम पर चलने वाला एक ब्रांडेड फोन बनाकर बेच सकती थी। इसका नतीजा यह हुआ कि कोरिया और चीन में ऐंड्रॉयड ओएस पर बने कम कीमत वाले फोन की बाजार में भरमार हो गई और नोकिया पूरी तरह से बरबाद हो गई। नोकिया को उसकी विनिर्माण दक्षता ने नाकाम नहीं बनाया, उसकी नाकामी सिम्बियन ऑपरेटिंग सिस्टम में ऐसे फीचरों की गैरमौजूदगी की वजह से हुई जो ऐपल के आईओएस या गूगल के ऐंड्रॉयड ओएस का मुकाबला नहीं कर सकते थे।
अगर भारत जैसे सस्ते श्रम वाले देशों में नोकिया ने आउटसोर्सिंग असेंबली इकाई लगाई होती तो भी उसे कोई राहत नहीं मिलती। थोड़ा पीछे हटकर देखें तो पाठक यह गौर कर सकता है कि स्मार्टफोन के आगमन ने एक झटके में कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक्स हार्डवेयर उत्पादों-कैमरा, ग्रामोफोन एवं ट्रांजिस्टर रेडियो को तबाह कर दिया था। एक दौर में ये सभी चीजें नई नौकरी पाने वाले हरेक शख्स की खरीद सूची में शामिल होती थीं लेकिन स्मार्टफोन ने अकेले ही सबकी जगह ले ली।
इससे भी ज्यादा डरावना इस समय जारी एक और प्रक्रिया है। मशीन गन, युद्धक टैंक, युद्धपोत और तमाम दूसरे सैन्य साजोसामान की प्रासंगिकता खोने का डर। साइबर युद्ध कौशल में पारंगत एक दुश्मन भारत की समूची बैंकिंग प्रणाली को बाधित कर सकता है। जरा उस आर्थिक महाविपत्ति की कल्पना कीजिए जिसमें देश भर में कोई भी देश महीने भर न तो खरीद-बिक्री कर सके और न ही पैसे स्थानांतरित कर पाए। उस समय भारत को संकट से उबार पाने में न तो कोई युद्धक विमान एवं टैंक और न ही परमाणु बम ही मददगार हो पाएंगे।
कहानी का सार यह है कि इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर असेंबलिंग कौशल एक देश की भावी समृद्धि की कुंजी नहीं है। विदेशी कंपनियों को भारत में असेंबलिंग इकाई लगाने के लिए लुभाना असल में इन कंपनियों को ऊंचे आयात शुल्क से बचने का रास्ता देना है। इससे सही मायनों में कोई भी कौशल सृजन नहीं होता है।
फिर व्यावहारिक नीतिगत विकल्प क्या है? जरा ऐपल आईफोन के महत्त्वपूर्ण पुर्जों पर गौर करें तो पाएंगे कि इनका निर्माण अमेरिकी रक्षा विभाग के फंड से किया गया था, मसलन मल्टी-टच स्क्रीन, बड़े आकार वाला एलसीडी स्क्रीन, वॉयस असिस्टेंट सिरी। थोड़ा और पीछे जाकर सेल्युलर फोन तकनीक, मेमरी हार्डवेयर एवं खुद इंटरनेट के भी आविष्कार को याद करें।
गूगल के दो संस्थापकों सर्गेई ब्रिन एवं लैरी पेज ने 1998 में स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में शोध प्रबंध लिखते हुए पेज रैंक तकनीक का उल्लेख किया था। इस तकनीक ने ही गूगल को दुनिया भर में सर्च व्यवसाय पर दबदबा बनाने में मदद की। यहां पर हमें अमेरिकी सरकार की डिफेंस एडवांस्ड प्रोजेक्ट एजेंसी से मिली फंडिंग को भी याद रखना चाहिए।
इस समय क्लॉउड कंप्यूटिंग के लिए जंग छिड़ी हुई है और इस समय भी अमेरिकी रक्षा विभाग एक-दो अमेरिकी कंपनियों को 10 अरब डॉलर का सहयोग देने का मन बना रहा है। निश्चित रूप से जिस कंपनी को भी यह अनुबंध मिलेगा उसका पूरी दुनिया में क्लॉउड कंप्यूटिंग कारोबार पर वर्चस्व हो जाएगा। इस विशाल रक्षा करार के दौरान ही क्लॉउड कंप्यूटिंग के फीचर एवं तकनीक को निर्णायक रूप दिया जाएगा।
क्या यह हम सबको अचंभित नहीं करता है कि भारत अपने विशाल रक्षा बजट का एक छोटा हिस्सा भी ऐसे तकनीकी नवाचार को फंडिंग में क्यों नहीं इस्तेमाल कर सकता है? ऐसा कर हम भारतीय कंपनियों को वैश्विक अगुआ बनाने के साथ ही अपने देश को भी बचा सकेंगे।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)

First Published : October 19, 2020 | 11:00 PM IST