इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती
भारत में अंतरसरकारी राजकोषीय रिश्तों का अब तक का एक अत्यंत सुखद और बंधुता दर्शाने वाला गुण रहा है-राज्यों के बीच करों के समांतर बंटवारे की दिशा में होने वाली प्रगति।
हर पांच वर्ष पर नियुक्त होने वाले वित्त आयोगों की अनुशंसा ने दोनों तरह के बंटवारे की अनुशंसा की है: केंद्र और राज्यों के बीच बंटवारा और राज्यों के बीच आपसी बंटवारा। राज्यों के बीच के राजस्व बंटवारे को एक फॉर्मूले से तय किया जाता है।
इस फॉर्मूले में सबसे अधिक जोर ‘आय में अंतर’ के मानक पर दिया जाता है। यह राज्य की प्रतिव्यक्ति आय के उलट होती है। ऐसे में प्रति व्यक्ति आय जितनी कम होगी, राज्य को उतनी अधिक हिस्सेदारी मिलेगी।
सन 1991 के बाद से अब तक के सभी वित्त आयोगों की अनुशंसाओं में इस मानक को 48 से 60 फीसदी भार मिला। इसलिए समांतर बंटवारा बड़े पैमाने पर पुनर्वितरण है और उल्लेखनीय बात यह है कि अब तक किसी भी राज्य ने इसे लेकर कोई आपत्ति नहीं जताई है।
इसी वजह से देश के सबसे गरीब राज्यों-बिहार और उत्तर प्रदेश को राज्यों को दिए जाने वाले कर में सबसे अधिक हिस्सेदारी प्राप्त होती है। अगर आबादी ही एक मात्र मानक होती तो उन्हें वर्तमान की तुलना में काफी कम हिस्सेदारी मिलती। उस स्थिति में शायद महाराष्ट्र को बिहार से अधिक हिस्सेदारी प्राप्त होती।
परंतु अमीर और गरीब राज्यों के रिश्ते को लेकर चलने वाली बहस में हाल ही में बदलाव आया है। इस बदलाव का सबसे वाकपटु और भावपूर्ण सार तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलनिवेल त्यागराजन ने अपने वक्तव्य में इस तरह व्यक्त किया, ‘गरीब राज्यों को दिए जाने वाले पैसे का क्या होता है? उस पैसे से विकास क्यों नहीं हो पा रहा है? हमें इस पैसे को लेकर शिकायत नहीं है बल्कि शिकायत प्रगति को लेकर है।’
तीन दशक पहले यह दलील देना संभव था कि कुछ अप्रत्यक्ष करों को छोड़कर अधिकांश करों को उन स्थानों पर आय और खपत में बांटा नहीं जा सकता है जहां वे संग्रहित हुए। मुंबई में बनी एक फिल्म पर कर्नाटक में कर लग सकता है।
मुंबई-दिल्ली उड़ान पर लगने वाला ईंधन कर उस जगह पर लगेगा जहां विमानन कंपनी विमान में ईंधन भरवाना चाहे। लेकिन सभी यात्रियों को अपने किराये में कर चुकाना होगा फिर चाहे वे कहीं से भी आते हों। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी जो मुंबई में अपने मुनाफे की घोषणा करती है वह पूरे देश में बिक्री करके आय अर्जित कर रही होगी।
ये दलीलें आज भी वजन रखती हैं लेकिन दुख की बात है कि उतना नहीं जितना 30 वर्ष पहले रखती थीं। आज उत्तर प्रदेश, नेपाल से गरीब है और प्रति व्यक्ति आय के मामले में तमिलनाडु उतना ही अमीर है जितना कि इंडोनेशिया। इसका अर्थ यह हुआ कि इनमें खपत और आय कर का आधार पर कहीं अधिक बड़ा है। विभिन्न क्षेत्रों में असमानता जितनी अधिक होगी, लोगों को यह समझाना उतना ही मुश्किल होगा कि कर आधार को अलग संस्था के रूप में देखने की आवश्यकता है।
अमीर और गरीब राज्यों के बीच की असमानता लगभग हर आर्थिक पहलू में देखी जा सकती है। आय, परिसंपत्तियां और मनमानी क्रय शक्ति अमीर देशों में अधिक है। औपचारिक रोजगार और उच्च मूल्य वाले रोजगार भी उनके यहां अधिक हैं। यही वजह है कि सरकारी नौकरियों की भूख देश के गरीब राज्यों में कहीं अधिक है।
विदेशी निवेश की आवक भी अमीर राज्यों में अधिक होती है। उनके यहां स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हैं, साक्षरता दर अधिक है और सार्वजनिक सेवाएं भी गरीब राज्यों की तुलना में बेहतर हैं। ऐसे में त्यागराजन का सवाल उचित है। अगर बीते तीन दशकों के दौरान अमीर और गरीब राज्यों के बीच असमानता बढ़ने के बजाय कम हुई होती तो यह सवाल पैदा ही न होता। लेकिन तमाम बड़ी-बड़ी बातों से उलट समय के साथ असमानता में लगातार इजाफा हुआ है।
राजनीतिक मोर्चे पर भी कमियां हैं। देश के उत्तरी इलाके में स्थित राज्यों में लंबे समय से राजनीतिक ध्रुवीकरण की राजनीति हो रही है। दक्षिण के राज्यों के उलट उत्तर में यह राजनीतिक बहस में बहुत अहम स्थान रखती है। अधिकांश राजनीतिक अभिव्यक्तियां जाति और बहुसंख्यक धार्मिकता के इर्दगिर्द होती हैं। वहां चुनाव लड़ने और जीतने के मामलों में यही केंद्रीय बहस रहती है। आर्थिक कल्याण, समृद्धि और बेहतर दुनिया की साझा तलाश के बारे में हमारे चुनावों में कोई खास बात नहीं की जाती है।
ध्रुवीकरण की सफलता के कारण ऐसी किसी पेशकश का दबाव भी नहीं है। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नेताओं और स्वतंत्रता सेनानियों की प्रतिष्ठा को धूल-धूसरित करते हुए मुस्लिमों को सताना, साथी देशवासियों को देशद्रोही ठहराना, असहमत लोगों को दंडित करना, जेल में डालना आदि तमाम काम ध्रुवीकरण को ही दर्शाने वाले हैं। यह जितना अधिक कारगर होगा, इसका उपयोग उतना ही अधिक आकर्षक होता जाएगा।
परंतु ध्रुवीकरण अथवा विभाजन की राजनीति पर किसी का एकाधिकार नहीं है। जब ऐसी घटनाएं अधिक घनीभूत हो जाती हैं और राजनीतिक दलों में इन्हें लेकर एक किस्म की होड़ या प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है तो पूरा राजनीतिक प्रतिष्ठान ही सवालों के घेरे में आ जाता है।
संविधान के अनुच्छेद एक में कहा गया है कि इंडिया जो भारत है वह राज्यों का एक संघ है। इस पर सवाल उठाते हुए देश के दक्षिणी राज्यों पर आधिकारिक ‘राष्ट्रीय’ हिंदी भाषा को थोपना, बहुसंख्यक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए परिसीमन का इस्तेमाल, एकल संस्कृति थोपने को लेकर बहस आदि सभी विवाद उत्पन्न करते हैं और विभिन्न प्रकार के ध्रुवीकरण को जन्म देते हैं।
कोई भी बुद्धिमान पर्यवेक्षक आसानी से यह समझ सकता है कि हमारे यहां ऐसी कोई राजनीतिक योजना नहीं है जो देश के हिंदीभाषी क्षेत्रों में रोजगारपरक वृद्धि लाए और हालात में तेजी से बदलाव लाने में सक्षम हो। ऐसी स्थिति में बंधुता को लेकर प्रश्नचिह्न लगना तय है।
ध्रुवीकरण की बहुत बड़ी कीमत चुकानी होती है। आर्थिक ठहराव तो इसकी अग्रिम कीमत भी है। अगर आर्थिक हालात को तत्काल सुधारने के प्रयास नहीं किए गए तो स्थितियां और तेजी से बिगड़ेंगी। आवश्यकता इस बात की है कि ध्रुवीकरण को त्यागकर समावेशी आर्थिक एजेंडे पर आगे बढ़ा जाए जो देश के गरीब इलाकों में समृद्धि लाने पर केंद्रित हो। यदि ऐसा नहीं किया गया तो चुनाव तो जीते जा सकेंगे लेकिन देश के सफल अस्तित्व के मूल में जो बंधुता है उसे अपूरणीय क्षति पहुंचेगी।
(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं)