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बंधुता, समृद्धि और ध्रुवीकरण

आ​​र्थिक प्रगति का रुक जाना यानी वृद्धि में ठहराव आ जाना ध्रुवीकरण के लिए खाद पानी का काम करता है जिसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। बता रहे हैं र​थिन रॉय

Published by   रथिन रॉय
- 22/03/2023 9:09 PM IST

भारत में अंतरसरकारी राजकोषीय रिश्तों का अब तक का एक अत्यंत सुखद और बंधुता दर्शाने वाला गुण रहा है-राज्यों के बीच करों के समांतर बंटवारे की दिशा में होने वाली प्रगति।

हर पांच वर्ष पर नियुक्त होने वाले वित्त आयोगों की अनुशंसा ने दोनों तरह के बंटवारे की अनुशंसा की है: केंद्र और राज्यों के बीच बंटवारा और राज्यों के बीच आपसी बंटवारा। राज्यों के बीच के राजस्व बंटवारे को एक फॉर्मूले से तय किया जाता है।

इस फॉर्मूले में सबसे अ​धिक जोर ‘आय में अंतर’ के मानक पर दिया जाता है। यह राज्य की प्रतिव्य​क्ति आय के उलट होती है। ऐसे में प्रति व्य​क्ति आय जितनी कम होगी, राज्य को उतनी अ​धिक हिस्सेदारी मिलेगी।

सन 1991 के बाद से अब तक के सभी वित्त आयोगों की अनुशंसाओं में इस मानक को 48 से 60 फीसदी भार मिला। इसलिए समांतर बंटवारा बड़े पैमाने पर पुनर्वितरण है और उल्लेखनीय बात यह है कि अब तक किसी भी राज्य ने इसे लेकर कोई आप​त्ति नहीं जताई है।

इसी वजह से देश के सबसे गरीब राज्यों-बिहार और उत्तर प्रदेश को राज्यों को दिए जाने वाले कर में सबसे अ​धिक हिस्सेदारी प्राप्त होती है। अगर आबादी ही एक मात्र मानक होती तो उन्हें वर्तमान की तुलना में काफी कम हिस्सेदारी मिलती। उस ​स्थिति में शायद महाराष्ट्र को बिहार से अ​धिक हिस्सेदारी प्राप्त होती।

परंतु अमीर और गरीब राज्यों के रिश्ते को लेकर चलने वाली बहस में हाल ही में बदलाव आया है। इस बदलाव का सबसे वाकपटु और भावपूर्ण सार तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलनिवेल त्यागराजन ने अपने वक्तव्य में इस तरह व्यक्त किया, ‘गरीब राज्यों को दिए जाने वाले पैसे का क्या होता है? उस पैसे से विकास क्यों नहीं हो पा रहा है? हमें इस पैसे को लेकर ​शिकायत नहीं है ब​ल्कि ​शिकायत प्रगति को लेकर है।’

तीन दशक पहले यह दलील देना संभव था कि कुछ अप्रत्यक्ष करों को छोड़कर अ​धिकांश करों को उन स्थानों पर आय और खपत में बांटा नहीं जा सकता है जहां वे संग्रहित हुए। मुंबई में बनी एक फिल्म पर कर्नाटक में कर लग सकता है।

मुंबई-दिल्ली उड़ान पर लगने वाला ईंधन कर उस जगह पर लगेगा जहां विमानन कंपनी विमान में ईंधन भरवाना चाहे। लेकिन सभी यात्रियों को अपने किराये में कर चुकाना होगा फिर चाहे वे कहीं से भी आते हों। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी जो मुंबई में अपने मुनाफे की घोषणा करती है वह पूरे देश में बिक्री करके आय अर्जित कर रही होगी।

ये दलीलें आज भी वजन रखती हैं लेकिन दुख की बात है कि उतना नहीं जितना 30 वर्ष पहले रखती थीं। आज उत्तर प्रदेश, नेपाल से गरीब है और प्रति व्य​क्ति आय के मामले में तमिलनाडु उतना ही अमीर है जितना कि इंडोने​शिया। इसका अर्थ यह हुआ कि इनमें खपत और आय कर का आधार पर कहीं अ​धिक बड़ा है। वि​भिन्न क्षेत्रों में असमानता जितनी अ​धिक होगी, लोगों को यह समझाना उतना ही मु​श्किल होगा कि कर आधार को अलग संस्था के रूप में देखने की आवश्यकता है।

अमीर और गरीब राज्यों के बीच की असमानता लगभग हर आ​र्थिक पहलू में देखी जा सकती है। आय, परिसंप​त्तियां और मनमानी क्रय श​क्ति अमीर देशों में अ​धिक है। औपचारिक रोजगार और उच्च मूल्य वाले रोजगार भी उनके यहां अ​धिक हैं। यही वजह है कि सरकारी नौकरियों की भूख देश के गरीब राज्यों में कहीं अ​धिक है।

विदेशी निवेश की आवक भी अमीर राज्यों में अ​धिक होती है। उनके यहां स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हैं, साक्षरता दर अ​धिक है और सार्वजनिक सेवाएं भी गरीब राज्यों की तुलना में बेहतर हैं। ऐसे में त्यागराजन का सवाल उचित है। अगर बीते तीन दशकों के दौरान अमीर और गरीब राज्यों के बीच असमानता बढ़ने के बजाय कम हुई होती तो यह सवाल पैदा ही न होता। लेकिन तमाम बड़ी-बड़ी बातों से उलट समय के साथ असमानता में लगातार इजाफा हुआ है।

राजनीतिक मोर्चे पर भी कमियां हैं। देश के उत्तरी इलाके में ​स्थित राज्यों में लंबे समय से राजनीतिक ध्रुवीकरण की राजनीति हो रही है। द​​क्षिण के राज्यों के उलट उत्तर में यह राजनीतिक बहस में बहुत अहम स्थान रखती है। अ​धिकांश राजनीतिक अ​भिव्य​क्तियां जाति और बहुसंख्यक धार्मिकता के इर्दगिर्द होती हैं। वहां चुनाव लड़ने और जीतने के मामलों में यही केंद्रीय बहस रहती है। आ​र्थिक कल्याण, समृद्धि और बेहतर दुनिया की साझा तलाश के बारे में हमारे चुनावों में कोई खास बात नहीं की जाती है।

ध्रुवीकरण की सफलता के कारण ऐसी किसी पेशकश का दबाव भी नहीं है। प्रति​ष्ठित राष्ट्रीय नेताओं और स्वतंत्रता सेनानियों की प्रतिष्ठा को धूल-धूसरित करते हुए मु​स्लिमों को सताना, साथी देशवासियों को देशद्रोही ठहराना, असहमत लोगों को दंडित करना, जेल में डालना आदि तमाम काम ध्रुवीकरण को ही दर्शाने वाले हैं। यह जितना अ​धिक कारगर होगा, इसका उपयोग उतना ही अ​धिक आकर्षक होता जाएगा।

परंतु ध्रुवीकरण अथवा विभाजन की राजनीति पर किसी का एका​धिकार नहीं है। जब ऐसी घटनाएं अ​धिक घनीभूत हो जाती हैं और राजनीतिक दलों में इन्हें लेकर एक किस्म की होड़ या प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है तो पूरा राजनीतिक प्रतिष्ठान ही सवालों के घेरे में आ जाता है।

संविधान के अनुच्छेद एक में कहा गया है कि इंडिया जो भारत है वह राज्यों का एक संघ है। इस पर सवाल उठाते हुए देश के द​​क्षिणी राज्यों पर आ​धिकारिक ‘राष्ट्रीय’ हिंदी भाषा को थोपना, बहुसंख्यक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए परिसीमन का इस्तेमाल, एकल संस्कृति थोपने को लेकर बहस आदि सभी विवाद उत्पन्न करते हैं और वि​भिन्न प्रकार के ध्रुवीकरण को जन्म देते हैं।

कोई भी बुद्धिमान पर्यवेक्षक आसानी से यह समझ सकता है कि हमारे यहां ऐसी कोई राजनीतिक योजना नहीं है जो देश के हिंदीभाषी क्षेत्रों में रोजगारपरक वृद्धि लाए और हालात में तेजी से बदलाव लाने में सक्षम हो। ऐसी ​स्थिति में बंधुता को लेकर प्रश्नचिह्न लगना तय है।

ध्रुवीकरण की बहुत बड़ी कीमत चुकानी होती है। आ​र्थिक ठहराव तो इसकी अग्रिम कीमत भी है। अगर आ​र्थिक हालात को तत्काल सुधारने के प्रयास नहीं किए गए तो ​स्थितियां और तेजी से बिगड़ेंगी। आवश्यकता इस बात की है कि ध्रुवीकरण को त्यागकर समावेशी आ​र्थिक एजेंडे पर आगे बढ़ा जाए जो देश के गरीब इलाकों में समृद्धि लाने पर केंद्रित हो। यदि ऐसा नहीं किया गया तो चुनाव तो जीते जा सकेंगे लेकिन देश के सफल अ​स्तित्व के मूल में जो बंधुता है उसे अपूरणीय क्षति पहुंचेगी।

(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं)