लेख

इक्कीसवीं सदी का वित्त मंत्रालय

दुनिया भर में वित्त मंत्रालयों का काम आर्थिक सुधारों को बढ़ाना होता है। अब भारत में वित्त मंत्रालय का पुनर्गठन करना होगा ताकि कल की चुनौतियों से निपटा जा सके।

Published by
के पी कृष्णन   
Last Updated- March 21, 2025 | 11:22 PM IST

बीस साल से भी पहले तत्कालीन वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने विजय केलकर की अध्यक्षता में एक समिति गठित की, जिसने एक रिपोर्ट ‘इक्कीसवीं सदी का वित्त मंत्रालय’ पेश की। अच्छा वित्त मंत्रालय बनाने का विचार आज भी उसी रिपोर्ट से शुरू होता है।

वित्त अर्थव्यवस्था का दिमाग होता है और वित्त मंत्रालय केंद्र सरकार का दिमाग। शोधकर्ता फिलिप क्राउज ने ने कहा है कि वित्त मंत्रालय की भूमिका लेनदने यानी खातों में आए धन को खर्च के लिए देने से बढ़कर नीति से जुड़ गई है।

सुलझा हुआ वित्त मंत्रालय वृहद आर्थिक और वित्तीय संस्थाओं की व्यवस्था को बढ़ावा देता है, जिससे अर्थव्यवस्था नई ऊंचाई पर पहुंचती है तथा निजी एवं विदेशी निवेश आता है। यह वृद्धि की राह में आने वाली बाधाओं को पहचानना सिखाता है और बजट का इस्तेमाल सभी मंत्रालयों में सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए करता है।

आज वित्त मंत्रालय में छह विभाग आते हैं: आर्थिक मामलों का विभाग, राजस्व विभाग, व्यय विभाग, वित्तीय सेवा विभाग, निवेश एवं सार्वजनिक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग और सार्वजनिक उपक्रम विभाग। इस ढांचे की तुलना दूसरे मंत्रालयों के ढांचे से करना दिलचस्प होगा। मसलन गृह मंत्रालय या विदेश मंत्रालय से जहां मंत्रालय के भीतर कई विभाग नहीं हैं।

गृह सचिव और विदेश सचिव की तरह भारत सरकार का एक वित्त सचिव भी होता है। मगर वह विदेश सचिव की तुलना में कमजोर तथा गृह सचिव की तुलना में और भी कमतर होता है। गृह सचिव और विदेश सचिव अपने-अपने विभागों के प्रमुख होते हैं और उनके विभागों के सभी प्रमुख अधिकारी उनके मातहत ही आते हैं। ऐसी व्यवस्था में विभाग के भीतर विभिन्न इकाइयों का तालमेल और उनके मतभेदों का समाधान सचिव द्वारा कर दिया जाता है। इससे मंत्री को नीति तथा रणनीति से जुड़े बड़े मुद्दों पर ध्यान देने के लिए बहुत समय मिल जाता है।

वित्त मंत्रालय में किसी भी विभाग का सचिव वित्त सचिव के मातहत नहीं आता और तालमेल बिठाने का काम वित्त मंत्री को ही करना पड़ता है। वास्तव में वित्त सचिव एक पद भर है या ज्यादा से ज्यादा बाकी सचिवों से वरिष्ठ है मगर अपने विभाग के अलावा किसी दूसरे विभाग पर उसका कोई अधिकार नहीं होता। यही वजह है कि वित्त मंत्रालय अलग-अलग सुरों में बात करता है।

इस व्यवस्था के कई नतीजे होते हैं। उस रिपोर्ट में उन सभी पर विस्तार से विचार किया गया एकीकृत ढांचे की बात की गई, जिसमें विभाग एक ही होगा और उसके 16 खंड होंगे। सिफारिशों पर चर्चा करें तो समय और जगह कम पड़ जाएंगे। इसीलिए हम रिपोर्ट के केवल एक ही हिस्से – वित्तीय क्षेत्र की नीति पर बात करेंगे।

वित्तीय क्षेत्र में अकादमिक और बाजार समुदाय मानते हैं कि 2007-08 में बैंकिंग, बीमा और पेंशन को आर्थिक मामलों के विभाग से अलग करने का निर्णय कारगर नहीं रहा और वित्तीय नीति पर सोच एक सी होनी चाहिए।

आज वित्त मंत्रालय नियामकीय संस्थाओं से घिरा है जैसे भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी), भारतीय बीमा  नियामक एवं विकास प्राधिकरण, पेंशन फंड नियामकीय एवं विकास प्राधिकरण (पीएफआरडीए), अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण आदि। इनमें से हरेक की खास भूमिका है और वे एक दूसरे के क्षेत्र में दखल भी देती हैं। इसलिए वित्तीय क्षेत्र विकास परिषद (एफएसडीसी) जैसी किसी संस्था की जरूरत है जो उनके बीच तालमेल बिठाए और विवाद सुलझाए। यहां फिर वित्त मंत्री का हस्तक्षेप जरूरी है।

विभिन्न विशेषज्ञ एकीकृत नियामकीय एजेंसी की सिफारिश लगातार कर रहे हैं मगर निहित स्वार्थों के कारण इसका विरोध हो रहा है। फिर भी इस बात पर सहमति है कि बाजार भागीदारों, बाजार ढांचा संस्थाओं और उपभोक्ताओं को बेहतर नतीजे देने के लिए नियमन के सिद्धांत एक जैसे होने चाहिए। इससे नीतिगत मुद्दों पर खामियां दूर होंगी और नियामकों के बीच अतिक्रमण तथा विवाद से बचा जा सकेगा। ऐसा हुआ तो सही मायनों में राष्ट्रीय नीतियां बनाने में मदद मिलेगी।

दुनिया भर में ‘एक जैसा जोखिम तो एक जैसा नियमन’ का सिद्धांत जोर पकड़ रहा है। मगर हम अपने-अपने क्षेत्र से बंधे रहने के चक्कर में पिछड़ जाते हैं जैसे वैकल्पिक निवेश फंडों पर रिजर्व बैंक के कायदे चलते हैं, एटी1 बॉन्ड में म्युचुअल फंड निवेश पर सेबी की व्यवस्था, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का नियमन और परिचालन। मगर पेंशन योजनाओं पर सेबी, आईआरडीएआई और पीएफआरडीए तीनों के कायदे चलते हैं। अलग-अलग नियामक के पास नियम बनाने और उनकी समीक्षा करने की व्यवस्थाएं भी अलग-अलग हैं।

इसलिए वित्त मंत्रालय की नीति इकाई क्षेत्र विशेष का ध्यान रखे बगैर काम करे तौ वित्तीय क्षेत्र की बेहतर नीति तैयार हो जाएगी। वित्त मंत्रालय में एकीकृत नीति निर्माता इकाई वैश्विक मानकों को टक्कर देने वाले कायदे बनाएगी।

इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धियां – मुद्रास्फीति को लक्षित करना, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) वित्त मंत्रालय से ही आई हैं। अतीत में भी ऐसा ही हुआ है। प्रतिभूति अपील पंचाट, रोलिंग सेटलमेंट, एक्सचेंजों को सार्वजनिक कंपनी बनाना, राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली, मौद्रिक नीति समिति और आईबीसी आर्थिक मामलों के विभाग की नीतिगत टीमों की ही उपज हैं। पुराने पाठकों को याद होगा कि वित्तीय क्षेत्र के ये बुनियादी सुधार नियामकों की वजह से नहीं हुए बल्कि उनके कड़े प्रतिरोध के बाद भी हुए।

हमें वित्त मंत्रालय में हालिया बदलावों को इसी संदर्भ में देखना चाहिए। बीते चार महीनों में राजस्व विभाग में चार सचिव आए-गए, जो आम बात नहीं है। आवाजाही बजट के समय भी होती रही। 2014 से अब तक हम आर्थिक मामलों के विभाग में सात सचिव और राजस्व विभाग में आठ सचिव देख चुके हैं। लेकिन आर्थिक मामलों के वर्तमान सचिव हाल के दशकों में मोंटेक सिंह आहलूवालिया के बाद पहले सचिव होंगे, जो पद पर चार साल पूरे करेंगे। हमने अफसरशाही में कुछ अहम नियुक्तियां भी देखी हैं। एक वित्त सचिव कैबिनेट सचिव बने, दूसरे सेबी के चेयरपर्सन बने और वित्त मंत्रालय से तीसरे सचिव अब रिजर्व बैंक के गवर्नर हैं। वित्त मंत्रालय को संस्था का रूप देने के लिए हमें कार्यकाल तथा संरचना दोनों पर काम करने की जरूरत है।

First Published : March 21, 2025 | 10:32 PM IST