केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार को राष्ट्रीय अति महत्त्वपूर्ण खनिज मिशन पर मुहर लगा दी। इस अभियान या मिशन पर केंद्र सरकार 16,300 करोड़ रुपये व्यय करेगी और सार्वजनिक क्षेत्र एवं अन्य स्रोतों से भी 18,000 करोड़ रुपये का निवेश होगा। यह मिशन भारत में नीति निर्धारण को एक नई दिशा देता दिख रहा है। 21वीं शताब्दी में आर्थिक वृद्धि के लिए आपूर्ति व्यवस्था दुरुस्त एवं सुरक्षित बनाए रखना काफी अहम है और इसे बखूबी समझते हुए सरकार ने यह अभियान शुरू किया है। लीथियम और मॉलिब्डिनम जैसे महत्त्वपूर्ण खनिज मध्यवर्ती सामान तैयार करने में इस्तेमाल होते हैं। इन खनिजों का इस्तेमाल बैटरी से लेकर सेमीकंडक्टर आदि बनाने में होता है। हाल के वर्षों में यह बात साफ हो गई है कि ऊर्जा से लेकर वाहन आदि सभी महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में गतिविधियां इन मध्यवर्ती वस्तुओं की उपलब्धता पर निर्भर हो गई हैं इसलिए महत्त्वपूर्ण खनिजों की सुरक्षित, सस्ती और निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करना काफी अहम हो गया है। सेमीकंडक्टर उपलब्ध नहीं होने से कोविड महामारी के दौरान भारत के वाहन क्षेत्र में उत्पादन पर गंभीर असर हुआ था। अब सरकार ने इन खनिजों की आपूर्ति सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी उठा ली है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं कि इस प्रयास के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा भी जुड़ा है। दुनिया में इन महत्त्वपूर्ण खनिजों के खनन एवं प्रसंस्करण के क्षेत्र में चीन का खासा दबदबा है। अफ्रीका और इंडोनेशिया सहित जिन देशों में इन खनिजों का खनन और प्रसंस्करण होता है वहां चीन की कंपनियों (जिनमें कई चीन की सरकार से सीधा ताल्लुक रखती हैं) की तूती बोलती है। सरकारें एवं उनके नीति निर्धारक यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि आपूर्ति व्यवस्था एवं व्यापार का इस्तेमाल अब दुनिया में एक हथियार के रूप में होने लगा है। इसे देखते हुए सभी देशों के यह जरूरी हो गया है कि वह महत्त्वपूर्ण खनिजों की सूची अपने स्तर पर तैयार करें और उनकी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए रणनीति अपनाएं। भारत में ऐसे खनिजों का भंडार है परंतु इनकी खोज पूरी गंभीरता से नहीं हुई है और इनका इस्तेमाल होने में अभी कुछ समय और लग सकता है।
इसके अलावा, इन खनिजों के भंडार जहां मिले हैं उन्हें देखते हुए देसी निवेशक इस क्षेत्र में निवेश करने में हिचकिचाहट दिखा सकते हैं। इसका कारण यह है कि इनमें कई भंडार राजनीतिक रूप से संवेदनशील और जैव-विविधता वाले क्षेत्रों में हैं। तकनीक और राजनीतिक इच्छाशक्ति का इस्तेमाल कर इन चुनौतियों का समाधान किया जा सकता है। परंतु, यह भी सच है कि इसमें वक्त लगेगा और भारत के घरेलू संसाधनों को विकसित करने के लिए नीतियां तैयार करने की दिशा में भी पूरा प्रयास नहीं हुआ है। हाल में इन खनिजों की खोज से जुड़े लाइसेंस की नीलामी में निजी क्षेत्र ने खास दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। यह महज संयोग नहीं था।
विदेश में ऐसे संसाधनों में निवेश का भी महत्त्व इस लिहाज से बढ़ गया है। सरकार ने खनिज विदेश इंडिया लिमिटेड (काबिल) के नाम से एक नए सार्वजनिक उपक्रम का गठन किया है जिसका उद्देश्य विदेश में इन खनिज संसाधनों में निवेश को बढ़ावा देना है। फिलहाल इस कंपनी ने कोबाल्ट और लीथियम पर ही ध्यान केंद्रित रखा है और अब अर्जेंटीना और ऑस्ट्रेलिया के साथ साझेदारी करने की संभावनाएं तलाश रही है। मगर इस दिशा में काफी कुछ किया जाना बाकी है, इसलिए माना जा रहा है कि नए मिशन पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की मुहर लगने के बाद न केवल ‘काबिल’ के प्रयासों को बल भी मिलेगा बल्कि इस क्षेत्र में भारत के निजी क्षेत्र की भी रुचि बढ़ेगी। वैसे भी अंत में सारा दारोमदार निजी क्षेत्र की भागीदारी पर ही निर्भर है। इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले दशकों में इन खनिजों में भी लाभ कमाने के भरपूर अवसर होंगे।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2050 तक कुछ महत्त्वपूर्ण खनिजों के दाम 20 से 50 गुना तक बढ़ सकते हैं। अतीत में जब नए खनिज (कोयला से पेट्रोलियम तक) औद्योगिक एवं ऊर्जा खंडों की आपूर्ति व्यवस्था के लिए अहम हो गए थे तब बड़ी कंपनियां इनकी आपूर्ति सुचारु रूप से संभालने एवं इनकी बिक्री करने के लिए आगे आई थीं। इस कारोबार में उतरने के बाद उन्हें काफी आर्थिक लाभ भी हुए। यह सिलसिला 21वीं शताब्दी में महत्त्वपूर्ण खनिजों के साथ फिर दोहराया जाएगा। अगर इस कारोबार में भारत से भी कुछ कंपनियां उतरें तो यह भारत की आर्थिक वृद्धि एवं ऊर्जा सुरक्षा के हित में होगा। नए मिशन का कितना प्रभाव होगा इसका मूल्यांकन इस आधार पर किया जाएगा कि भारतीय कंपनियां कितने उत्साह के साथ इन प्रयासों में शामिल होती हैं।