घरेलू निजी निवेश की कमजोरी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में धीमी गति से हो रही वृद्धि के बीच केंद्र और राज्य सरकारों ने दावोस के स्विस स्की रिजॉर्ट में आयोजित हो रही विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) की वार्षिक बैठक में कामयाबी का हरसंभव प्रयास आरंभ कर दिया है। वहां हमारे देश के दो पविलियन होंगे। एक केंद्र सरकार के लिए और दूसरा छह राज्यों के प्रतिनिधियों के लिए जिनमें तीन मुख्यमंत्री शामिल हैं।
केंद्र का प्रतिनिधित्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव कर रहे हैं जिनके पास रेलवे, सूचना एवं प्रसारण तथा सूचना प्रौद्योगिकी जैसे अहम मंत्रालय हैं। उनका कहना है कि उनकी योजना देश के समावेशी वृद्धि के एजेंडे को प्रचारित करने की है। दावोस में अपना प्रतिनिधिमंडल भेजने वाले राज्य हैं महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल और उत्तर प्रदेश। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी भी वहां विदेशी निवेशकों को अपने-अपने प्रदेश में निवेश के लिए आकर्षित करने का प्रयास करने वाले हैं। इसमें कोई शक नहीं कि दावोस भारत के लिए बहुत मायने रखता है।
उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश वहां 15 करोड़ रुपये खर्च कर रहा है। नायडू वहां 19 बैठकों में शामिल होंगे और प्रदेश के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री 50 बैठकों में शामिल होंगे। लगभग सभी राज्यों ने अपनी-अपनी पहलों की ब्रांडिंग की है। उदाहरण के लिए ‘बुलिशऑन टीएन’, ‘तेलंगाना राइजिंग 2050’ आदि। यह बताता है कि मिशन कितना सक्रिय है और इस मान्यता की भी अपनी सीमाएं हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों को रोजगार के अवसर बढ़ाने तथा आर्थिक गतिविधियों को निरंतरता प्रदान करने के लिए भारी काम करना पड़ता है। परंतु इन प्रयासों की उपयोगिता पर भी सवाल उठते हैं क्योंकि इनमें राज्यों के पदाधिकारियों को बहुत अधिक समय तथा धन व्यय करना होता है।
निस्संदेह दावोस को उन अवसरों के लिए जाना जाता है जो वहां परदे के पीछे उत्पन्न होते हैं। इसलिए संभव है कि भारतीय अधिकारियों के ये प्रयास उपयोगी नतीजे निकालने वाले हों। परंतु अन्य मुख्यमंत्रियों द्वारा इससे पहले के सालों में वहां की यात्रा बहुत अधिक सफल नहीं रही। ऐसा इसलिए हुआ कि भारत को वहां अपेक्षित तरजीह नहीं मिलती। इस वर्ष जबकि चीन की अर्थव्यवस्था में धीमापन आ रहा है, हालात बदल सकते हैं।
उदाहरण के लिए नायडू के बारे में खबर है कि वह वहां दो राष्ट्र प्रमुखों से मुलाकात करने वाले हैं, हालांकि उन नेताओं की पहचान अभी सामने नहीं आई है। इसके साथ ही जिन विदेशी निवेशकों से संपर्क किया जा रहा है वे उचित ही यह पूछ सकते हैं कि आखिर घरेलू निवेशक अपने ही देश में निवेश करने से क्यों हिचकिचा रहे हैं। इसके बजाय दूसरे देशों में हो रहा भारतीयों का निवेश लगातार बढ़ रहा है। इसके अलावा इनमें से हर राज्य, हर वर्ष निवेशक सम्मेलन आयोजित करता है जहां देश भर से निवेश प्रस्ताव आते हैं। वह निवेश शायद ही कभी जमीनी परियोजनाओं में फलीभूत होता हो।
विदेशी निवेशक इन बातों से भली भांति अवगत हैं। उन्हें भारत में कारोबारी सुगमता की राह की अनेक बाधाओं के बारे में भी पता है। इनमें नीतिगत अनिश्चितता से लेकर अधोसंरचना की समस्या तक शामिल हैं। महामारी के बाद उपभोक्ता मांग की अंग्रेजी के ‘के’ अक्षर जैसी प्रकृति भी एक बाधा रहेगी। इलेक्ट्रिक वाहनों और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे उभरते क्षेत्रों में इनका यकीनन असर होगा। इन बातों के बावजूद जिन राज्यों ने दावोस में निवेश आकर्षित करने का निर्णय लिया है उनका स्वागत किया जाना चाहिए।
उत्तर प्रदेश को अपवाद मान लिया जाए तो अन्य पांच राज्य देसी और विदेशी दोनों तरह के निवेश के मामले में आगे हैं। ऐसे में यह सवाल भी पैदा होता है कि अन्य उत्तरी राज्य जिन्हें खराब गुणवत्ता वाले रोजगारों से निजात पाने के लिए और अधिक विनिर्माण गतिविधियों की आवश्यकता है वे विदेशी निवेश जुटाने के ऐसे ही प्रयास क्यों नहीं कर रहे हैं। एक तरह से देखा जाए तो उनकी अनुपस्थिति भी देश की एकांगी आर्थिक प्रगति के बारे में बहुत कुछ कह रही है।