संसद में 1 फरवरी को प्रस्तुत होने वाले बजट से पहले वित्तीय क्षेत्र के विश्लेषक अंग्रेजी वर्णमाला के ‘के’ अक्षर की चर्चा करते आ रहे हैं। यहां ‘के’ शब्द से आशय असमान आर्थिक प्रगति (के-आकृति का आर्थिक सुधार) से है। कोविड-19 महामारी के बाद देश में सभी आय वर्गों एवं आर्थिक क्षेत्रों की प्रगति में विषमता दिख रही है। कंपनियों के मुनाफे में वृद्धि, निर्यात में तेजी, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में बढ़ोतरी और उछाल भरते शेयर बाजार संपन्न एवं धनाढ्य लोगों को हुए फायदे का संकेत दे रहे हैं मगर दूसरी तरफ देश में कम वेतन पाने वाले लोगों, किसानों और छोटे एवं मझोले उद्यमों की हालत दयनीय बनी हुई है। सभी चाहते हैं कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण मंगलवार को पेश होने वाले बजट में वित्तीय तंगी झेल रहे लोगों की समस्याओं और असमान आर्थिक सुधार पर ध्यान दें। वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में सीतारमण ने वित्त वर्ष 2022 से 2025 के बीच 6 लाख करोड़ रुपये की परिसंपत्ति मुद्रीकरण योजना और 1.02 लाख करोड़ रुपये की नैशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन योजना का प्रस्ताव दिया था। उन्होंने लेखा प्रणाली में पारदर्शिता लाने और राजकोषीय घाटे की वास्ततविक तस्वीर पेश करने से जुड़े कदम उठाने की घोषणाएं भी की थीं। इन उपायों के लिए उनकी सराहना भी हुई थी।
पिछले बजट में कुछ दूसरे सुधारों की घोषणाएं भी हुई थीं। इनमें लघु एवं मझोले उद्यमों की परिभाषा दोबारा तय करने से लेकर सावजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण और भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के आरंभिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) की योजना शामिल थे। इनमें कितनी योजनाओं का क्रियान्वयन हुआ है? विभिन्न खंडों में सुधार के संकेत तो हैं मगर कितने वादे पूरे किए गए हैं?
कुछ प्रमुख आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय के पहले अग्रिम अनुमानों के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वित्त वर्ष 2022 में 9.2 प्रतिशत रहेगी। चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में 13.7 प्रतिशत दर से आगे बढऩे के बाद दूसरी छमाही में रफ्तार स्पष्ट रूप से कमजोर पड़ गई है। आधार प्रभाव के कारण यह सुस्ती तर्कसंगत लग रही है। भारतीय रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर 9.5 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने भारत के लिए वृद्धि दर का अनुमान 9.5 प्रतिशत से संशोधित कर 9 प्रतिशत कर दिया है। विश्व बैंक की वैश्विक आर्थिक संभावना रिपोर्ट में आर्थिक वृद्धि दर 8.3 प्रतिशत रहने की बात कही गई है। हालांकि आईएमएफ और विश्व बैंक दोनों भारतीय अर्थव्यवस्था के वृद्धि अनुमानों को लेकर उत्साहित हैं।
पिछले बजट में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 6.8 प्रतिशत तक सीमित रखने की बात कही गई थी। यह आंकड़ा प्राप्त किया जा सकता है। राजस्व से जुड़ा अनुमान कम रहने दिया गया था मगर वास्तविक आंकड़े अधिक रहने से राजकोषीय घाटा प्रबंधित करने में सरकार को कोई खास परेेशानी नहीं आएगी। सब कुछ योजनाबद्ध रूप से हुआ तो अगले वर्ष दोनों बैंकों का निजीकरण हो सकता है। एयर इंडिया के निजीकरण से सरकार को खास लाभ नहीं होगा मगर 3,0000 करोड़ रुपये जरूर मिलेंगे। एलआईसी का आईपीओ सरकार के लिए एक बड़ा दांव हो सकता है। अगर यह आईपीओ सफल रहा तो चालू वित्त वर्ष के लिए राजकोषीय घाटा संभवत: 6.8 प्रतिशत से कम रह सकता है।
तो क्या वित्त वर्ष 2023 में देश राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के पथ पर चलेगा? ऐसा नहीं होगा मगर राजकोषीय घाटा चालू वित्त वर्ष की तुलना में जरूर कम होगा। विश्लेषकों के अनुसार यह 5.8 से 6.3 प्रतिशत के बीच रह सकता है। सरकार का उधारी कार्यक्रम एक और महत्त्वपूर्ण विषय है। चालू वित्त वर्ष में शुद्ध उधारी 9 लाख करोड़ रुपये रही है जो बजट अनुमान 9.4 लाख करोड़ रुपये से थोड़ी कम है। यह आंकड़ा आराम से हासिल हो जाएगा।
अगले वित्त वर्ष के लिए उधारी कार्यक्रम 12.25 से 13.25 लाख करोड़ रुपये रह सकता है। मगर इससे जुड़े सभी पहलुओं पर विचार करें तो यह वित्त वर्ष 2022 के बराबर या थोड़ा कम रहना चाहिए। मगर राज्य सरकारें भी बाजार से उधार लेती हैं। चालू वित्त वर्ष में राज्यों की उधारी 7.7 लाख करोड़ रुपये रही है। सैद्धांतिक रूप में यह उधारी बढ़ सकती है मगर जीएसटी में कमी की भरपाई से जुड़ा समझौता जून 2022 से आगे भी खिसकने की उम्मीदें बढऩे से राज्यों के उधारी कार्यक्रम पर कोई खास असर नहीं होगा। जीएसटी संरचना तर्कसंगत बनाने की मांग लंबे समय से हो रही है मगर यह एक अलग मुद्दा है। जीएसटी संरचना में थोड़ी चतुराई से बदलाव हो सकता है। कुल मिलाकर चार श्रेणियों में 12 प्रतिशत और 18 प्रतिशत को मिलाकर एक की जा सकती है। इससे श्रेणियां कम होंगी मगर इससे प्रभावी कर संग्रह में इजाफा होगा। इस समय करीब 500 सेवाएं और कम से कम 1,300 उत्पाद चार बड़ी जीएसटी श्रेणियों में आती हैं।
क्या आरबीआई के लिए उधारी कार्यक्रम का प्रबंधन करना आसान होगा? क्या इससे कंपनियों एवं खुदरा ग्राहकों की तरफ से ऋण की मांग कम नहीं हो जाएगी? अब तक ऐसा नहीं किया है क्योंकि ऋण मांग कमजोर रही है। मगर बैंकरों के अनुसार ऋण की मांग बढऩी शुरू हो गई। यही वजह है कि भारत को वैश्विक बॉन्ड सूचकांकों में लाने का प्रयास तेज हो गया है। ऐसे सूचकांकों में भारत के शामिल होने से देसी बॉन्ड बाजार में विदेशी रकम आएगी जिससे बॉन्ड की कीमतें बढ़ जाएंगी और सरकार के लिए उधारी लागत कम हो जाएगी। इससे शेयर बाजार, कंपनियों के बॉन्ड और स्थानीय मुद्रा पर सकारात्मक असर होगा। आरबीआई पहले वैश्विक बॉन्ड सूचकांकों को लेकर उत्साहित नहीं था क्योंकि उसे अंदेशा था कि कोई भी गंभीर भू-राजनीतिक घटना पूरी संभावनाओं पर पानी फेर सकती है। मगर अब आरबीआई इस पर अपना रुख नरम कर रहा है। बॉन्ड सूचकांकों में भारत को शामिल करने की तैयारी के रूप में 2020 के बजट में विदेशी निवेशकों को असीमित मात्रा में विशेष सरकारी बॉन्ड खरीदने की इजाजत दी गई थी। हां, कराधान विवाद का विषय है मगर इसका समाधान खोजने के लिए गंभीर उपाय करने की दिशा में प्रयास चल रहा है।