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वर्ष 2021-22 का चीनी का मौसम (अक्टूबर से सितंबर) और उसके बाद अब तक की अवधि भारतीय चीनी क्षेत्र के लिए घटना प्रधान साबित हुए हैं। यह प्रमुख कृषि आधारित उद्योग जहां अपना अस्तित्व बचाने के लिए सरकारी सहायता और राहत पैकेज की मांग करता रहता था, वहीं अब यह एक जीवंत, आत्मनिर्भर क्षेत्र बन गया है जो बिना किसी सब्सिडी के सभी मोर्चों पर शानदार प्रदर्शन कर रहा है।
इस परिवर्तन की प्रमुख वजह है अधिशेष गन्ने तथा उसके उत्पादों मसलन चीनी और गन्ने के रस को बायोफ्यूल में बदलना। इस ईंधन का पारिस्थितिकी पर पड़ने वाला अवांछित असर चिंता का विषय अवश्य है लेकिन चीनी उद्योग और गन्ना उत्पादक दोनों इससे अवश्य लाभान्वित हुए हैं। गन्ने के उत्पादन ने जहां 2021-22 में 50 करोड़ टन की नई ऊंचाई छुई, वहीं चीनी उत्पादन भी 3.94 करोड़ टन के साथ नए स्तर पर पहुंच गया। इसमें से 36 लाख टन चीनी को एथनॉल के उत्पादन में उपयोग कर लिया गया।
चीनी निर्यात भी 1.1 करोड़ टन के रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ा। इसके लिए रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ने के बाद अनुकूल अंतरराष्ट्रीय कीमतें और ब्राजील से कम निर्यात आपूर्ति भी एक वजह रही जो दुनिया का सबसे बड़ा चीनी निर्यातक देश है। अतिरिक्त निर्यात से करीब 40,000 करोड़ रुपये तथा गन्ना आधारित बायोफ्यूल से करीब 20,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि अर्जित हुई जिससे उद्योग जगत की वित्तीय सेहत दुरुस्त करने में मदद मिली और वह गन्ना किसानों को समय पर भुगतान करने तथा एथनॉल उत्पादन इकाइयों के विस्तार में सक्षम हो सका। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसानों को चुकाई जाने वाली गन्ना कीमतों की बकाया राशि भी दो फीसदी के अब तक के न्यूनतम स्तर पर आ चुकी है।
यह क्षेत्र 2018-19 में विकट वित्तीय दिक्कतों का सामना कर चुका है और उसमें आए इस सकारात्मक बदलाव के लिए मोटे तौर पर छोटे लेकिन सुविचारित नीतिगत कदमों को जिम्मेदार माना जा सकता है जिनकी मदद से इस क्षेत्र की बाधाओं को दूर किया गया और आय उत्पादन के नए स्रोत तलाश किए गए। इनमें सबसे उल्लेखनीय था चीनी मिलों को अपने अतिरिक्त उत्पादन से एथनॉल बनाने की इजाजत देना। अगर यह इजाजत नहीं दी जाती तो अधिक उत्पादन के कारण कीमतें प्रभावित होतीं। बायोफ्यूल की उपलब्धता में इजाफे से तेल विपणन कंपनियों को पेट्रोल में एथनॉल का स्तर 10 प्रतिशत करने में मदद मिली और 2025 तक वे उसे 20 फीसदी करना चाहती हैं जबकि पहले इसके लिए 2030 का लक्ष्य तय किया गया था।
बहरहाल, एथनॉल के कारण हासिल होने वाले लाभ ने चीनी उद्योग को सरकारी मदद की जरूरत से राहत दिलाई है, वहीं गन्ने की खेती के कारण भूजल स्तर पर पड़ने वाले नकारात्मक स्तर को लेकर चिंता बढ़ी है। गन्ने के रकबे में ज्यादा इजाफा उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक समेत उन राज्यों में ही हुआ है जहां जल स्तर पहले ही तेजी से कम हो रहा है। जमीन और पानी की कमी वाले भारत जैसे देश के लिए पहली पीढ़ी की एथनॉल उत्पादन तकनीक के जरिये गन्ना, चीनी, शुगर सीरप, गन्ने के रस या फिर चावल, गेहूं, मक्का आदि से एथनॉल बनाना व्यावहारिक नहीं है।
ये सभी उत्पाद पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल होते हैं। इस नीति की समीक्षा करना आवश्यक है। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह कृषि क्षेत्र से उत्पन्न होने वाले अवशिष्ट का इस्तेमाल दूसरी पीढ़ी की एथनॉल उत्पादक तकनीक में करे और पानी की खपत वाले गन्ने या अनाजों का इस्तेमाल बंद करे। खाद्य और जल सुरक्षा तथा ईंधन और ऊर्जा सुरक्षा के बीच सही संतुलन कायम करना होगा। गन्ना, चीनी और अन्य उत्पादों की इस पूरी प्रक्रिया में सीमित भूमिका है।