निवेशकों में शिक्षा, संरक्षण और जागरुकता बढ़ाने के लिए भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने निवेशक संरक्षण और शिक्षा कोष ‘इनवेस्टर फंड’ बनाने का प्रस्ताव पेश किया है।
इस कोष के गठन के लिए सेबी ने अपनी ओर से 10 करोड़ रुपये का योगदान देने का प्रस्ताव पेश किया है। साथ ही कोष के गठन के लिए और वित्तीय सहायता प्राप्त करने के लिए दूसरे स्त्रोतों पर भी सेबी की निर्भरता रहेगी।
इस कोष को तैयार करने के प्रस्ताव का स्वागत किया गया है, पर यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि निवेशक कोष निवेशकों के संरक्षण और शिक्षा के लिए रकम जुटाने का एक और जरिया है। भारत में हर स्टॉक एक्सचेंज के पास निवेशक संरक्षण कोष है। कंपनी मामलों के मंत्रालय के अधिकारियों ने निवेशक संरक्षण कोष बनाने की पैरवी भी की है। हालांकि, इसे गैर मुनाफे वाले क्षेत्र के तौर पर ही देखा जाता है।
सेबी ने भले ही ऐसे कोष के गठन का प्रस्ताव तो पेश कर दिया है, पर उसका काम यहीं पूरा नहीं हो जाता है। सेबी की असली भूमिका तो अब उभर कर सामने आई है। अगर इस कोष का गठन हो जाता है तो भी यह देखना सबसे महत्वपूर्ण है कि क्या इस कोष का इस्तेमाल सही तरीके से हो पा रहा है। यानी कि कोष से रकम उस काम के लिए उपयोग में लाई जा रही है या नहीं जिसके लिए इसे तैयार किया गया था।
निवेशक कोष के सूचना और प्रशासन के लिए सेबी ने एक मसौदा नियामक भी प्रकाशित किया है। हालांकि, यहां यह भी दिलचस्प है कि इस कोष के लिए पैसे जुटाने के लिए जिन स्त्रोतों का प्रस्ताव रखा गया है, उनसे एक नई बहस छिड़ सकती है। सबसे पहले तो इस कोष के लिए सेबी योगदान देगा। साथ ही सेबी ने यह प्रस्ताव भी रखा है कि डिपोजिट्स, बैंक गारंटी, प्रतिभूतियों की बिक्री के जरिए पैसे जुटाए जाएंगे।
उन निवेशकों की प्रतिभूतियों की बिक्री की जाएगी जो सेबी के कानून के तहत डिफॉल्ट के दायरे में आएंगे। इसके अलावा नए आईपीओ लाने पर सेबी को सिक्योरिटी डिपॉजिट के तहत एक फीसदी की जो आय होती है, उसे भी निवेशक कोष में जमा करने का प्रस्ताव रखा गया है।
इन स्त्रोतों को शामिल करने से एक नई बहस छिड़ सकती है। उदाहरण के लिए अब अगर कोई अधिग्रहणकर्ता आईपीओ लाता है तो उसे एक निलंब लेखा खुलवाना पड़ेगा। पर अगर ये अधिग्रहणकर्ता कोई विदेशी होता है तो भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई), उसे निलंब लेखा में पड़ी राशि पर मिलने वाले ब्याज को विदेश ले जाने की अनुमति नहीं देती।
अगर कोई समस्या होती है तो सेबी ओपन ऑफर डॉक्युमेंट को हरी झंडी दिखाने में काफी वक्त लगा सकता है। अब अगर इस ऑफर डॉक्युमेंट पर कोई निपटारा होने में 6 से 12 महीने लगते हैं तो बैंक तक तक इस पैसे को अपनी मन मर्जी खर्च कर सकता है।
यही वजह है कि बैंक यह नहीं चाहता कि इस रकम पर ब्याज कमाने का कोई अवसर कानून के अनुसार भी इन्हें दिया जाए। ऐसी स्थिति में न तो अधिग्रहणकर्ता को ब्याज की रकम से कोई लाभ मिलता है, न ही निवेशक को इससे कोई फायदा होता है। निलंब लेखा से अगर किसी को फायदा होता है तो वह बैंक है।
जब एक्सचेंज नियंत्रण की वजह से अधिग्रहणकर्ताओं को कोई ब्याज रकम नहीं मिल पाती है तो निलंब लेखा पर ओवर नाइट कॉल मार्केट दर पर एक रकम वसूली जाती है। इस रकम को निवेशक कोष के हवाले सौंपने का प्रस्ताव है।
सेबी ने सरकार से यह मांग भी की है कि जिस मौजूदा वैधानिक ढांचे के तहत स्वीकृति आवेदन पास किए जाते हैं, उसमें भी बदलाव किया जाए। भले ही सेबी के बाकी सभी कानूनों के तहत अपराध के लिए कारावास का प्रावधान हो, पर सेबी ऐक्ट, 1992 में ऐसे अपराधों के लिए कोई कारावास नहीं है। स्वीकृति आवेदन के तहत जिस रकम का भुगतान किया जाता है, वह भी निवेश कोष के खाते में जमा होता है।
फिलहाल सेबी की ओर से जो भी जुर्माना लगाया जाता है, उससे प्राप्त रकम कंसोलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया में जमा कराई जाती है। इस रकम को पूंजी बाजार में नहीं उतारा जाता है। अगर अब भी इस रकम को अलग ही रखा जाए तो कम से कम स्वीकृति आवदेनों से होने वाली आय निवेशक कोष में ही जाएगी।
विदेश मंत्री पी चिदंबरम ने आश्वासन दिया था कि पुराने ढांचों को बदला जाएगा और सेबी को यह हक होगा कि वह स्वीकृत आवेदनों से हो रही आय को निवेशक कोष के लिए अपने पास रख सके।
ऐसी योजना है कि इस निवेशक कोष का इस्तेमाल शिक्षा कार्यक्रमों को बढ़ावा देने, शोध और विकास कार्यक्रमों को तैयार करने, निवेशकों के संरक्षण और शिक्षा के लिए परियोजनाओं को विकसित करने के लिए किया जाएगा। साथ ही सेबी के अंतर्गत पंजीकृत संगठनों के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए भी किया जाएगा।