किसी जमाने में चूड़ियों का जिक्र होता था तो एक ही नाम जेहन में कौंधता था – फिरोजाबाद। उत्तर प्रदेश में आगरा के करीब बसा यह शहर चूड़ियों की वजह से ही ‘सुहागनगरी’ के नाम से भी मशहूर रहा। मगर वहां नया रसूलपुर हो या इमामबाड़ा बाजार, चूड़ियों की दुकानों पर अब पहले जैसी रौनक नहीं रह गई। पिछले 200 साल से देश-दुनिया में लाखों कलाइयों पर चूड़ियां खनकाने वाले फिरोजाबाद के भीतर दुकानों पर अब कांच से ज्यादा धातु और दूसरी तरह की चूड़ियां सजी दिख रही हैं, जो राजस्थान और दिल्ली से आती हैं।
जब सुहागनगरी में न चूड़ी बन रही है और न ही बीते दौर के मशहूर झाड़-फानूस तो फिर बन क्या रहा है? जवाब आपको चौंका सकता है। फिरोजाबाद के कांच के कारखाने आज शराब की बोतलें बनाने में जुटे हुए हैं। पिछले पांच साल में इस शहर में शराब की बोतलें बनाने का कारोबार इस कदर चमका है कि चूड़ियों की रंगत फीकी पड़ गई है। यहां की बोतलें दुनिया भर में भेजी जा रही हैं।
फिरोजाबाद शहर में पहले महज 2-4 कारखानों में शराब और बीयर की बोतलें बनती थीं मगर अब 50 से ज्यादा कारखाने केवल यही काम कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने 2022-23 की आबकारी नीति में प्लास्टिक की बोतलों और टेट्रा पैक पर प्रतिबंध लगाकर केवल कांच की बोतलों में शराब बेचना अनिवार्य कर दिया। इसके बाद तो फिरोजाबाद में इस कारोबार को पंख ही लग गए। आलम यह है कि चूड़ी बनाने वाले कई उद्यमी भी बोतलें बनाने में जुट गए और इस शहर से शराब भरने के लिए रोजाना 5 से 7 लाख बोतलें विभिन्न कंपनियों को भेजी जा रही हैं।
मदिरा बनाने और बेचने वाली नामी गिरामी कंपनियों में रेडिको खेतान, मैकडॉवल, उन्नाव डिस्टिलरी, वेब डिस्टिलरी, किंगफिशर, इंडिया ग्लाइकॉल आदि को फिरोजाबाद से भी बोतलें भेजी जा रही हैं। शहर में जीएम ग्लास, आनंद ग्लास, मीरा ग्लास, नवीन ग्लास वर्क्स, मित्तल सिरैमिक, सीताराम ग्लास वर्क्स और एडवांस ग्लास समेत 20 से ज्यादा बड़े कारखानों में बन रही शराब और बीयर की बोतलें देश में तो खप ही रही हैं, इंगलैंड, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ्रीका, जापान, नेपाल और अर्जेंटीना जैसे देशों को भी भेजी जा रही हैं। बोतलों की थोक आपूर्ति करने वाले सुनील कुमार बताते हैं कि विदेश में शराब के अलावा तेल और दूध भरने तथा बेचने के लिए भी फिरोजाबाद में बनी बोतलों का इस्तेमाल होता है। भूटान में तो इनका बहुत अधिक इस्तेमाल है।
मगर सुनील का कहना है कि बोतलों के इस कारोबार में फिरोजाबाद को पश्चिम बंगाल, हरियाणा, राजस्थान और महाराष्ट्र के कांच कारखानों से बहुत कड़ी टक्कर मिल रही है। इन प्रदेशों में बड़ी मशीनों वाले कारखाने हैं, जो बहुत अधिक उत्पादन करते हैं। लेकिन चूड़ियों की वजह से बनी पुरानी साख के दम पर फिरोजाबाद को बोतलों के ऑर्डर मिलने में दिक्कत नहीं आ रही है। विडंबना यह है कि चूड़ियों के नाम पर बोतलों का कारोबार फल-फूल रहा है और शहर से चूड़ियां खत्म होती जा रही हैं। इसकी वजह बताते हुए कारोबारी बताते हैं कि चूड़ी के काम में कामगारों की जरूरत बहुत अधिक होती है मगर बोतल बनाने का ज्यादातर काम मशीनों पर ही होता है, जिससे लागत बहुत कम आती है।
पुराने चूड़ी कारोबारी शहरयार खान बताते हैं कि कोराना महामारी आने से पहले सुहागनरी में चूड़ी के 120 कारखाने थे मगर अब केवल 45-50 ही चल रहे हैं। बाकी या तो बंद हो गए या उनमें शराब की बोतलें बनने लगी हैं। खान कहते हैं कि मोटे अनुमान के मुताबिक फिरोजाबाद से हर साल 10,000 करोड़ रुपये के कांच के सामान का कारोबार होता है, जिसमें चूड़ियों की हिस्सेदारी अब केवल 1,000 करोड़ रुरये रह गई है। शहर में अब चूड़ी और शराब की बोतलों के अलावा कांच के सजावटी सामान भी कुछ कारखानों में बनने लगा है।
फिरोजाबाद के कारोबारी संजय द्विवेदी एक और बड़े बदलाव की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि झाड़फानूस और कट ग्लास का निर्माण पूरी तरह से बंद हो गया है। वह बताते हैं कि किसी समय देश-दुनिया के राजमहलों में फिरोजाबाद के झाड़फानूस लगे थे किंतु अब यह चलन खत्म हो गया है। उनका कहना है कि मशीनों से बने झाड़फानूस सस्ते पड़ते हैं और उनकी डिजाइन भी बेहतर रहती है। फिरोजाबाद के कारखाने ऑर्डर मिलने पर बनाते हैं।
फिरोजाबाद में चूड़ी छोड़कर शराब की बोतलें बनाने के बढ़ते चलन पर स्थानीय कारोबारी शम्मी गौतम कहते हैं कि चूड़ियों की मांग घटने और उत्पादन लागत बढ़ने की वजह से मोहभंग हो रहा है। गौतम ने बताया कि फिरोजाबाद में चूड़ियां हाथ से बनाई जाती थीं, जिनमें कामगारों की बड़ी भूमिका थी। चूड़ी बनाने के लिए सबसे पहले कांच को 1200 डिग्री सेल्सियस तापमान पर कोयले की परंपरागत भट्ठियों ममें पिघलाया जाता था। पिघले कांच की ढलाई चूड़ी की आकृति में की जाती थी। इन्हें भी अलग-अलग शैली, डिजाइन और आकार में बनाया जाता था। मगर पिछले कुछ समय में प्रदूषण संबंधी सख्त कानून आने और फिरोजाबाद को ताज ट्रैपिजियम जोन में लाए जाने के कारण कांच का सामान बनाने वालों को सीएनजी की भट्ठियां अपनाने पर मजबूर होना पड़ा।
दूसरा संकट मशीनों से बनने वाली चूड़ियों ने खड़ा कर दिया क्योंकि वे हाथ से बनी चूड़ियों के मुकाबले काफी सस्ती पड़ती हैं। चूड़ी के फैशन में आया बदलाव भी मांग घटने का कारण है क्योंकि राजस्थान और दिल्ली में बनी मेटल की चूड़ियां चलन में ज्यादा हैं। गौतम कहते हैं कि गांव-देहात को छोड़ दें तो बड़े शहरों में कांच की चूड़ी शगुन के लिए दो-चार दिन ही पहनी जाती है। बाकी समय मेटल या दूसरी सामग्री से बनी चूड़ी-कंगन पहनने का फैशन ही नजर आ रहा है।
फिरोजाबाद में आज भी 90 फीसदी से ज्यादा चूड़ी बनाने वाले दिहाड़ी पर काम करते हैं। मजदूरों की मंडी शहर में सदर बाजार, मक्खनपुर, पुराना बाईपास, पुरुषोत्तम नगर और रेलवे रोड पर लगती है, जहां से चूड़ी कारखानों के ठेकेदार मजदूरों को ले जाते हैं। मकान बनाने में जुटे मजदूरों को रोजाना 400-500 रुपये मिल जाते हैं मगर चूड़ी बनाने वालों को इतना भी नहीं मिल पाता। उनकी दिहाड़ी 300-350 रुपये ही है। सीजन में मजदूरी कुछ बढ़ जाती है।
इसीलिए बड़ी तादाद में लोग अपने घरों पर माल ले जाकर चूड़ी तैयार करते हैं। ठेके पर काम करने वाले ऐसे लोगों को गैस की आंच पर लोहे की पट्टी के ऊपर चूड़ी जोड़ने के 8 से 11 रुपये तोड़ा मिलते हैं। एक तोड़े में 300 चूड़ियां होती हैं। ठेके पर यह काम करने के लिए गैस या तेल के चूल्हे का खर्च मजदूरों को खुद ही उठाना पड़ता है।
चूड़ी के कारखानें में मेहनत और जोखिम ज्यादा है मगर बोतल बनाने का ज्यादातर काम मशीनों पर होने की वजह से बहुत सी कंपनियों ने स्थायी कामगार रखे हैं। बोतल बनाने के कारखानों में दिहाड़ी भी 400-500 रुपये से कम नहीं है और सुरक्षा का इंतजाम भी चाक-चौबंद है। शहरयार बताते हैं कि बोतल बनाने के लिए मजदूरों को किसी खास हुनर की जरूरत भी नहीं होती। इसलिए कोई भी नया आदमी दो दिन में काम सीख जाता है।
बोतलों के तमाम कारखानों में मजदूरों को कर्मचारी भविष्य निधि और कर्मचारी राज्य बीमा जैसी सामाजिक सुरक्षा की सुविधा भी मिलती है। इसीलिए लोग चूड़ी का काम छोड़कर बोतल बनाने पहुंच रहे हैं। जिस तरह बोतल बनाने का काम बढ़ रहा है, उसे दिखते हुए भी रोजगार की तलाश में लोग उनके कारखानों पर पहुंच रहे हैं। इधर चूड़ियों में गोल्ड वर्क और रंगाई जैसा बारीक काम करने वालों की तादाद घट रही है।