एक बहुत ही पुरानी लेकिन मशहूर कहावत है, दूध का जला हुआ छांछ भी फूक-फू क कर पीता है। शायद यही बात भारत सरकार के साथ लागू होती है जो विदेशी बैंकों के भारत में कारोबार को लेकर दिशानिदर्शों में छूट देने से कतरा रही है।
जब बैंकिंग क्षेत्र में सुधार का दूसरा दौर शुरू होगा तो भारत विदेशी बैंकों को यहां पर किसी बड़ी भागीदारी की अनुमति नहीं देने के बारे में गंभीरता से सोच रहा है। उल्लेखनीय है कि मौजूदा आर्थिक संकट का सबसे ज्यादा असर बैंकिंग क्षेत्र पडा है और विदेशी बैंकों के कारोबार में तेजी से गिरावट आ रही है।
गौरतलब है कि अमेरिका से शुरू हुई मंदी ने पूरे विश्व को सकते में डाल दिया जिसके कारण बैंकिंग क्षेत्र सहित सभी क्षेत्रों के कारोबार पर बुरा असर पड़ा है।
इन दिनों विदेशी बैंकों के भारत में कारोबार को लेकर बहस काफी तेज हुई है लेकिन मौजूदा वैश्विक मंदी और उससे पैदा हुई अनिश्चितता को देखते हुए भारत विदेशी बैंकों को अपने यहां बडी भूमिका देने से कतरा रहा है।
इस बाबत वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद विरमानी ने बिजनैस स्टैंडर्ड को बताया कि बैंकिंग एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें विश्व स्तर पर काफी अनिश्चितता होती है और जब वैश्विक बैंकों के भारत में कारोबार करने की बात होती है तो ऐसी हालत में तत्काल कोई फैसला लेने से पहले इंतजार करना ज्यादा बेहतर है।
गौरतलब है कि इस साल बैंकिंग क्षेत्र में दूसरे दौर का सुधार शुरू होने वाला है जिसमें विदेशी बैंकों को भारतीय बैंकों की तरह ही दर्जा दिए जाने जैसे मुद्दों पर विचार किया जाना है।
विदेशी बैंकों को भारतीय बैंकों की तरह दर्जा दिए जाने का सीधा मतलब यह निकलता है कि विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत इन बैंकों को भारत में यहां के स्थानीय बैंकों की तरह ही समान दर्जा दिया जाए।
इसके अलावा कुछ ऐसे भी मुद्दे हैं जिन पर दूसरे दौर केसुधार कार्यक्रम में विचार किया जा सकता है, जिनमें विदेशी बैंकों की पूर्णत: स्वामित्व वाली इकाइयों का भारत में सूचीबध्द किया जाना और विदेशी बैंकों के द्वारा भारतीय बैंकों के अधिग्रहण जैसे मुद्दे शामिल हैं।
विरमानी के अनुसार अगर आप विदेशी बैंकों के भारत में कारोबार शुरू करने की बात कर रहे हैं तो यह निश्चित तौर पर यह चिंता का विषय है क्योंकि मौजूदा समय में विदेशी बैंकों के कारोबार में तेजी से गिरावट आ रही है।
गौरतलब है कि बैंकिंग क्षेत्र में मार्च 2005 से लेकर मार्च 2009 तक चलाए जा रहे सुधार के तहत विदेशों बैंकों को भारत में अपनी पूर्ण स्वामित्व वाली कंपनी के जरिए या फिर अपनी शाखाओं को इस तरह की इकाइयों में तब्दील कर उपस्थिति दर्ज कराने की इजाजत दी गई।
हालांकि खर्च की संरचना और करों को देखते हुए विदेशी बैंकों ऐसा करने में कोई गुणवत्ता नहीं दिखाई दी और इस वजह से अपनी वे अपनी शाखाओं से ही कारोबार करना उचित समझा। विरमानी का कहना है कि वैश्विक आर्थिक संकट का सबसे ज्यादा असर बैंकिं ग क्षेत्र पर ही पडा है।
विरमानी के अनुसार इस समय अमेरिका में बैंक बहुत तेजी से धराशायी हो रहे हैं और इसे देखते हुए भारत के लिए इंतजार करना ही ज्यादा अच्छा रहेगा। विरमानी का कहना था कि जब भी सुधार की बात की जाती है तो उसके साथ जोखिम भी जुडा होता है।