Bihar Lok Sabha Elections 2024: बिहार में लोकसभा के 5 चरणों के चुनाव संपन्न हो चुके हैं। अब सिर्फ दो चरणों के चुनाव बाकी हैं। इन अंतिम के दो चरणों में बिहार की कुल 16 लोकसभा सीटों पर मतदान होगा। पांच चरणों के चुनाव के बाद राजनीतिक विशेषज्ञ परिणामों को लेकर कयास लगाने में जुट गए हैं । बनते बिगड़ते राजनीतिक समीकरण को लेकर ग्राउंड से भी बहुत सारी रिपोर्ट आ रही हैं। इसलिए छठे और सातवें चरण के चुनाव से पहले आज हम पड़ताल कर रहे हैं बिहार के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य की।
पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 39 पर एनडीए को जीत मिली थी जबकि कांग्रेस के खाते में इकलौती किशनगंज सीट गई थी। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले नीतीश कुमार के बीजेपी के साथ आने के बाद ज्यादातर ओपिनियन पोल का अनुमान था कि परिणाम कमोबेश 2019 की तरह ही रह सकते हैं । हालांकि नीतीश के बीजेपी के साथ आने से पहले यही ओपिनियन पोल महाराष्ट्र की तरह बिहार में भी रोचक लड़ाई का अनुमान जता रहे थे।
फिलहाल बिहार को लेकर जो बहुत सारी रिपोर्ट आ रही हैं उनमें अधिकतर का इशारा इस ओर है कि तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) ने बिहार में मुकाबले को बेहद रोचक बना दिया है। क्या वास्तव में ग्राउंड पर ऐसी स्थिति है? 2019 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर इस दावे की छानबीन करते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को शानदार सफलता मिली थी। लेकिन उसके बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को राजद/महागठबंधन से जबरदस्त चुनौती मिली। इतना ही नहीं 2020 के विधानसभा चुनाव में राजद बिहार विधानसभा में सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनकर उभरा। अब प्रश्न उठता है क्या 2020 के विधानसभा चुनाव की तर्ज पर ही महागठबंधन मौजूदा लोकसभा चुनाव में भी एनडीए को चुनौती दे रहा है या नहीं।
Lok Sabha Election 2024: क्या विपक्ष मुकाबले को बना पाएगा रोचक?
2019 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनाव को लेकर जो अलग अलग वोटिंग पैटर्न रहे, उसी के सहारे हम मौजूदा लोकसभा चुनाव के परिणामों को लेकर कयास लगा सकते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को एकतरफा जीत मिली थी। वोटिंग पैटर्न के हिसाब से देखें तो 2019 में मुस्लिम और यादव को छोड़कर अगड़ी जातियों, पिछड़ी जातियों और दलितों का अधिकतर वोट एनडीए को मिला था। यहां तक कि कई लोकसभा सीटों पर यादवों और मुस्लिमों के भी छिटपुट वोट एनडीए प्रत्याशी को मिले बशर्ते वहां एनडीए के उम्मीदवार यादव या मुस्लिम थे। उदाहरण के तौर पर पाटलिपुत्र सीट…. जहां से रामकृपाल यादव मीसा भारती को लगातार दूसरी बार हराकर सांसद बने। कुछ और भी सीटों पर कमोबेश इसी तरह का वोटिंग पैटर्न देखने को मिला था। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में वोटिंग पैटर्न में बदलाव आया। मुस्लिम और यादवों के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों, दलितों और यहां तक कि अगड़ी जातियों के छिटपुट वोट भी महागठबंधन को मिले। मगध क्षेत्र के परिणाम इस बात की पुष्टि करने के लिए काफी हैं। इस क्षेत्र के कई सीटों पर अगड़ी जातियों के वोट भी महागठबंधन को मिले थे।तभी तो 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को इस क्षेत्र में भारी पराजय का सामना करना पडा था।
लेकिन क्या यही वोटिंग पैटर्न मौजूदा लोकसभा चुनाव में भी देखन को मिल रहा है। स्थानीय जानकार तो ऐसा नहीं मानते हैं। उनके मुताबिक ज्यादातर सीटों पर 2020 जैसे समीकरण नहीं बन रहे हैं। मुस्लिम और यादव वोटर पूरी तरह से महागठबंधन के साथ खड़े हैं। लेकिन अन्य जातियों का समर्थन उस तरह से महागठबंधन को नहीं मिल रहा है जिस तरह से 2020 के विधानसभा चुनाव में मिला था। दूसरी ओर 2019 के लोकसभा चुनाव की तरह ही इस बार भी नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का क्रेज वोटरों के बीच बरकरार है। महागठबंधन के कोर वोटर्स इस बात से इनकार कर सकते हैं। साथ ही हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे से भी लोगों का जुड़ाव देखने को मिल रहा है। स्थानीय मुद्दे खासकर जाति और प्रत्याशी के चयन को लेकर कहीं-कहीं असंतोष जरूर है लेकिन जानकार बता रहे हैं कि हजार ना-नुकुर के बाद भी वे आखिर मतदान एनडीए/बीजेपी की तरफ ही करेंगे। कुछ सीटों पर प्रत्याशी के चयन का मुद्दा जरूर एनडीए को नुकसान पहुंचा सकता है। उदाहरण के तौर पर जहानाबाद लोकसभा सीट। ग्राउंड से जो रिपोर्ट आ रही हैं उसके मुताबिक इस सीट पर एनडीए के कोर वोटर्स यानी भूमिहार जाति के वोटर्स मौजूदा सांसद चंदेश्वर चंद्रवंशी को टिकट दिए जाने से बेहद नाराज हैं। उनकी नाराजगी इस कदर है कि वे अपनी जाति के प्रत्याशी अरुण कुमार और आशुतोष कुमार को वोट देने पर विचार कर रहे हैं। हालांकि एनडीए के बड़े नेताओं की तरफ से उनको मनाने की पूरी कोशिश जारी है। कुछ और सीटों पर भी इस तरह की स्थिति है।
स्थानीय जानकार मानते हैं कि बेरोजगारी, महंगाई और संविधान जैसे मुद्दे को लेकर जिस तरह का नैरेटिव खडा किया जा रहा है। उससे शायद ही एनडीए को नुकसान हो । इन मुद्दों को महागठबंधन के वोटर्स जिस तरह से उठा रहे हैं, कई राजनीतिक विश्लेषक यह मान बैठे हैं कि वास्तव में यह चुनाव का मुद्दा बन गया है। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। महागठबंधन के कोर वोटर्स के बीच ही यह मुद्दा है। बाकी वोटरों के लिए यह बातचीत का विषय हो सकता है लेकिन इन मुद्दों के आधार पर वे वोट करेंगे, ऐसा तो बिल्कुल नहीं दिख रहा है। लेकिन साथ में यही जानकार मानते हैं कि आने वाले विधानसभा चुनाव में वोटिंग पैटर्न बदल सकता है।
इनकी मानें तो कई दफा रैलियों में दिख रही भीड़ को लेकर राजनीतिक विश्लेषक कन्फ्यूज्ड हो जाते हैं। वैसे वोटर्स जो बहुत मुखर हैं या रैलियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं उसके आधार पर अनुमान लगाना या नैरेटिव गढ़ना बेमानी है। क्योंकि कुल वोटरों की तुलना में ऐसे आक्रामक कोर वोटर्स की संख्या बहुत कम होती है। दूसरे यह भी देखना चाहिए कि आखिर किस सामाजिक और धार्मिक समूह के वोटर ज्यादा मुखर हैं। बिहार को लेकर बात करें तो स्पष्ट है कि यादव और मुस्लिम महागठबंधन की तरफ पूरी तरह से खड़े हैं और मुखर भी हैं। उसी तरह से बीजेपी की तरफ से अगड़ी जातियों के वोटर्स। लेकिन अधिकतर वोटर ऐसे भी हैं जो मुखर नहीं है। ऐसे वोटर ही बिहार में परिणाम पर असर डालेंगे। वैसे देखें तो यादव और मुस्लिम तो 2004/2005 के बाद भी हर चुनाव में कमोबेश राजद की तरफ ही रहे हैं। लेकिन 2015 विधानसभा चुनाव को छोड़कर राजद को हमेशा हार का ही सामना करना पडा है। 2015 में राजद जीती भी थी जेडीयू के साथ गठबंधन कर।
अब बात करते हैं आखिर इस चुनाव में जेडीयू और नीतीश कुमार (Nitish Kumar) कहां हैं। कुछ रिपोर्ट बता रहे हैं कि बार बार पाला बदलने की वजह से नीतीश कुमार की साख को धक्का लगा है। नीतीश कुमार की साख को लेकर मीडिया में जो भी चर्चा हो लेकिन ग्राउंड पर ऐसी स्थिति नहीं है। राजद और बीजेपी के कोर वोटर्स के अलावे जो वोटर्स हैं उनमें नीतीश कुमार की कमोबेश स्वीकार्यता अभी भी है। खासकर पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों में। नीतीश कुमार आज भी किसी भी गठबंधन की जीत के लिए उतने ही अपरिहार्य हैं जितना वह पहले थे। अगर ऐसा नहीं होता तो बीजेपी जेडीयू के साथ चुनाव में क्यों जाती। ज्यादातर चुनावी समीक्षक अभी भी मानते हैं कि फिलहाल राजद और बीजेपी राजनीतिक रूप से इतने मजबूत नहीं हैं कि वह अपने दम पर जीत सकें। इतने पाला बदलने के बावजूद यदि नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक हैसियत बनाए हुए हैं तो इसकी वजह उनकी बेदाग छवि है। साथ ही उनकी व्यापक स्वीकार्यता। जो लोग नीतीश कुमार को वोट नहीं भी कर रहे हैं वह भी उनकी छवि, स्वीकार्यता और प्रशासनिक कुशलता को लेकर सवाल खड़ा नहीं करते।
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)