हमारी तरह आपने भी ऐसे नीम-हकीमों के तमाम विज्ञापन देखे होंगे, जिसमें मिर्गी या लकवा जैसे असाध्य रोगों को भी बस एक ही चमत्कारिक खुराक में ठीक करने का दावा किया जाता है।
अब यह खुराक लेकर इन मरीजों का क्या हश्र होता है, यह तो वे ही जानते होंगे। मगर हैरत तो तब होती है, जब मरणासन्न अवस्था की ओर जा रहे देश के किसानों और कृषि क्षेत्र को मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम सरीखे अर्थशास्त्र के डॉक्टर भी एक ही खुराक में ठीक करने का मंसूबा पाल बैठे हैं।
अब इसे चमत्कारिक खुराक कहिए या फिर इसके बहाने से खुद अपनी चुनावी सेहत ठीक करने की कवायद, सरकार लगभग 72 हजार करोड़ रुपये का किसानों का कर्ज माफ करने का ऐतिहासिक कदम उठा चुकी है। उसका मानना है कि इससे बीमार किसानों और कृषि की सेहत चमत्कारिक तौर पर सुधर जाएगी।
वैसे, छोटे और सीमांत किसानों की कर्ज माफी की बात तो समझ में भी आती है, जिनके लिए सचमुच कर्ज का रोग लाइलाज होता जा रहा था, मगर बड़े किसानों को भी इस पैकेज के दायरे में लाने का वित्त मंत्री का हालिया ऐलान तो समझ से परे की चीज है।
यही नहीं, सरकार की इस चमत्कारिक खुराक से कृषि की सेहत सुधरेगी या नहीं, इस पर भले लोगों को शुबहा हो मगर इसमें तो शायद सभी एक मत होंगे कि इस खुराक के साइड इफेक्ट्स कई होंगे, जो देशभर को विभिन्न नतीजों के रूप में झेलने पड़ेंगे। मसलन, इस बड़ी रकम से मिली राहत के बाद बाजार में, खासतौर पर ग्रामीण बाजारों में आई नकदी की बाढ़ से महंगाई का दिनों-दिन बढ़ता रोग और गंभीर हो सकता है।
इसके अलावा, बैंकों के लिए भले ही सरकार इसका बोझ अपने खजाने पर डालकर राहत पहुंचा रही हो, लेकिन पहले ही लाखों करोड़ की फंसी रकम से झुक चुकी कृषि ऋण प्रणाली की कमर के तो इस खुराक से टूटने के पूरे आसार हैं। वह ऐसे कि इतने बड़े पैमाने पर की गई कर्ज माफी विशेषज्ञों की नजर में कर्ज लेने वालों के बीच यह संदेश पहुंचाएगी कि कृषि के नाम पर लिया गया कर्ज लौटाने की जरूरत ही नहीं है, देर-सबेर कोई न कोई सरकार इसे माफ कर ही देगी।
यह धारणा उन लोगों के दिमाग में भी घर कर जाएगी, जो लोन पूरा या आंशिक रूप से चुका चुके होंगे। यह धारणा कब समूची कृषि ऋण प्रणाली में अफरा-तफरी बदल जाएगी, यह कोई नहीं जानता। बहरहाल, मसला यह नहीं है कि इस पैकेज से क्या बीमारियां फैलेंगी, बल्कि यह है कि मरणासन्न कृषि क्षेत्र की सेहत पर यह क्या असर डालेगा।
और इसकी तह में जाने के लिए समूचे बाग यानी कृषि क्षेत्र की बजाय सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि बागबां यानी खुद किसानों को इस कर्ज माफी से क्या फायदा होने वाला है? विशेषज्ञों का मानना है कि यह खुराक उन्हें फौरी तौर पर राहत तो पहुंचा सकती है लेकिन पुराने कर्ज से छुटकारा पाते ही वह जल्द ही फिर नए कर्ज के जाल में भी निश्चित तौर फंसेंगे।
सरकार अगर उनकी माली हालत को बजाय कर्ज देने या उसकी माफी करने से इतर ठोस और दूरदर्शी तरीकों से सुलझाती तो बेहतर होता। भले ही इसके लिए उसे एकबारगी खुराक देने की बजाय होम्योपैथिक डोज की तरह लंबे समय तक की नीतियां बनानी पड़तीं। ताकि कर्ज के एवज में खून की एक-एक बूंद तक चूस कर आत्महत्या के लिए मजबूर कर देने वाले साहूकारों के चंगुल में फंसने से देश के गरीब किसान हमेशा के लिए बच जाते।
वैसे भी, सरकार की यह खुराक देश के करीब 60 फीसदी किसानों तक तो पहुंचेंगी ही नहीं, जो कर्ज के लिए बैंकों पर नहीं, साहूकारों पर ही निर्भर हैं। जाहिर है, जिस पैकेज से कर्ज के जाल में फंसे सभी किसानों का ही भला नहीं होने वाला, उससे समूचे कृषि क्षेत्र का भला होने की खामख्याली पालने की गलती सरकार क्यों कर रही है, यह वाकई चौंकाने वाली बात है।
आश्चर्य तब और भी बढ़ जाता है, जब सरकार ऐसे ऐलान करने से पहले पीछे की ओर मुड़ कर भी नहीं देखती। दशकों पहले नहीं बल्कि हाल ही के बरसों की तरफ भी वह पीछे मुड़कर देखती तो उसे साफ नजर आ जाता कि ब्याज माफी या अन्य रियायती ऐलानों के बावजूद विदर्भ में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला बदस्तूर जारी ही है।
जो खुराक देश के एक छोटे से हिस्से के मरणासन्न किसानों को जीवनदान नहीं दे पाई, उससे देशभर के किसानों और कृषि की हालत सुधरेगी या नहीं, यह वाकई गंभीर और विचारणीय विषय है। लिहाजा देशभर के प्रबुध्द पाठकों और दो कृषि विशेषज्ञों के बीच बिजनेस स्टैंडर्ड ने व्यापार गोष्ठी का आयोजन किया। हालांकि इस मंथन से क्या निकल कर आया, इसका फैसला तो आपको ही करना है।