भारतीय नौसेना का प्रोजेक्ट 17 पूरा होने के कगार पर है। देश में ही डिजाइन और बनाए गए शिवालिक क्लास के स्टेल्थ युध्दपोत अगले कुछ महीनों में नौसेना के बेड़े में शामिल हो जाएंगे।
अब सारा ध्यान नौसेना के प्रोजेक्ट 17 ए की तरफ है। इसके तहत नौसेना ने सात स्टेल्थ युध्दपोतों को बनाने की योजना बनाई है, जो शिवालिक क्लास के युध्दपोतों से भी बेहतर होंगे।
17 हजार करोड़ रुपये का यह सौदा, नौसेना के इतिहास की सबसे महंगी खरीद होगी। कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति (सीसीएस) ने इस सौदे को बहुत पहले ही हरी झंडी दे दी है, लेकिन रक्षा मंत्रालय ने इस बाबत अब तक कोई ऑर्डर नहीं दिया है। बिजनेस स्टैंडर्ड को मिली जानकारी के मुताबिक शिपयार्ड और नौसेना के बीच विवाद की वजह से इसमें देरी हो रही है।
5000 टन के युध्दपोतों के निर्माण की क्षमता रखने वाले मझगांव डॉक लि. (एमडीएल), मुंबई और गार्डन रीच शिपबिल्डर्स एंड इंजीनियर्स, कोलकाता (जीआरएसई) के मुताबिक इन युध्दपोतों का निर्माण पूरी तरह से भारत में ही होना चाहिए।
वहीं नौसेना के मुताबिक इनमें से पहले दो युध्दपोतों का निर्माण विदेशी शिपयॉर्ड में हो और उससे सीख लेकर देसी शिपयॉर्ड बाकी के पांच युध्दपोतों का निर्माण करें। विवाद में नया मुद्दा यह उभरा है कि इन युध्दपोतों का निर्माण अत्याधुनिक मॉडयूलर शिपबिल्डिंग तरीके से हो।
साथ ही, आगे भी युध्दपोतों को बनाने के लिए इसी तरीके का इस्तेमाल किया जाए। पारंपरिक रूप से पोतों का निर्माण काफी सरल तरीके से होता है। पहले एक स्टील के पेंदे को बनाया जाता है। फिर उसमें इंजन, पाइप्स, वायरिंग, फिटिंग्स, हथियार और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों को एक-एक करके जोड़ा जाता है। लेकिन मॉडयूलर शिपबिल्डिंग काफी जटिल प्रक्रिया है।
इसमें युध्दपोत को 300-300 टन के ब्लॉक्स या मॉडयूल्स से जोड़कर बनाया जाता है। हर ब्लॉक में पाइप्स, वायरिंग और फिटिंग्स पहले हुई लगाया जा चुका होता है। इसके बाद इन्हें क्रेनों के सहारा एक जगह पर लाया जाता है और उन्हें जोड़ एक युध्दपोत को बनाया जाता है।
इस कारण एक बिल्कुल अलग तरह की दिक्कत पैदा होती है। हरेक ब्लॉक की दीवारें, पाइप्स, केबल और इलेक्ट्रोनिक उपकरण एक दूसरे से अच्छी तरह से जुड़ने के लायक होनी चाहिए। हरेक ब्लॉक डिजाइनिंग अलग-अलग होती है, लेकिन उन्हें आखिर में एक दूसरे बिल्कुल सीध में होनी चाहिए। इस तरीके का इस्तेमाल इससे पहले न तो एमडीएल ने किया है और न ही जीआरएसई ने।
वे एक विदेशी डिजाइन सहयोगी की जरूरत को स्वीकारते भी हैं, लेकिन ब्रह्मपुत्र और शिवालिक क्लास के युध्दपोतों को बनाने के बाद उनका दावा है कि विदेशी डिजाइन सहयोगी के डिजाइन के आधार पर उनके पास प्रोजेक्ट 17 ए क्लास के युध्दपोतों को बनाने की महारत है।
एमडीएल के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक एडमिरल एचएस मल्ही का कहना है कि, ‘डिजाइन के लिए हमें भले ही विदेशी सहयोगी की जरूरत हो, लेकिन मॉडयूलर कंस्ट्रक्शन के वास्ते हमें किसी तकनीकी हस्तांतरण की जरूरत नहीं है।’
नौसेना के मुताबिक अगर एमडीएल और जीआरएसई ने इन युध्दपोतों को बनाते वक्त ही मॉडयूलर कंस्ट्रक्शन पर महारत हासिल करने की कोशिश की, तो काफी देर हो सकती है। डाइरेक्टर ऑफ नेवल डिजाइन, रियर एडमिरल एम.के. बधवार का कहना है कि इसकी जगह पर विदेशी डिजाइन सहयोगियों को पहले दो युध्दपोतों का निर्माण अपने शिपयार्ड में ही करना चाहिए, जहां भारतीय श्रमिक और इंजीनियर उनके काम को देखकर उनसे कुछ सीख सकें।
उनका कहना है कि, ‘इससे वेंडरों को काम करके दिखाने का मौका मिलता है। उन्हें यह दिखाना ही चाहिए कि उनके डिजाइन को चार साल में मॉडयूलर कंस्ट्रक्शन के सहारे अमली जामा पहनाया जा सकता है। यह देसी शिपयार्डों के लिए भी मानक स्थापित कर सकता है।’
रक्षा मंत्रालय को ऐसे में चुनाव करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। दरअसल, दो युध्दपोतों को विदेशों में बनवाने का मतलब है मोटा खर्च। एमडीएल ने जिन स्टेल्थ युध्दपोतों को बनाया है, उनकी कीमत दो से ढाई हजार करोड़ रुपये की आई है। लेकिन विदेशों में इन्हें बनवाने पर ठीक दोगुना खर्च होता।
