हस्तशिल्प उद्योगों के लिए विभिन्न प्रकार की धातुओं की आपूर्ति करने वाले छोटे व मझोले उत्पादक इन दिनों खतरे में हैं।
बढ़ती लागत के कारण वे अपनी दुकानों को स्थायी रूप से बंद करने को मजबूर नजर आ रहे हैं। या फिर किसी अन्य कारोबार की ओर अपना रुख करने का मन बना रहे हैं। भारत में इस प्रकार के उत्पादकों की संख्या लगभग 10,000 है।
हस्तशिल्प उद्योग को तांबा, पीतल, एल्युमिनियम व जिंक जैसी धातुओं की आपूर्ति करने वाले ये उद्यमी पिछले एक साल से इन धातुओं की बढ़ती कीमत से जूझ रहे हैं। बताया जाता है कि जब से लंदन मेटल एक्सचेंज (एलएमई), कॉमेक्स व शंघाई के वायदा बाजार में तांबे के व्यापार में संस्थागत निवेशक व अन्य सटोरियों ने निवेश करना शुरू किया है तभी से इन छोटे व मझोले उद्योगों की दशा दयनीय होने लगी है।
बीते एक साल से इन धातुओं की कीमतों में इन निवेशकों की वजह से काफी उछाल देखा गया है। जानकारों का मानना है कि बढ़ती लागत के दबाव से अगर ये इकाइयां बंद हो जाती हैं तो हस्तशिल्प के मामले में भारत अपनी अनोखी पहचान खो देगा। क्योंकि तब भारत को आयातित तांबे का इस्तेमाल इन उत्पादों के लिए करना पड़ेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन उत्पादों की कीमत वर्तमान उत्पादों के मुकाबले 15-20 फीसदी अधिक होगी।
जानकार कहते हैं कि ये उद्यमी धातुओं के इस बाजार में निवेश करने की हैसियत में नहीं होते। जबकि संस्थागत निवेशक धातु बाजार में अपने हिसाब से निवेश करते हैं। निवेश करने की उनकी क्षमता भी काफी अधिक होती है। ऐसे में हस्तशिल्प से जुड़े छोटे व मझोले उद्यमी अपने जोखिम को सुरक्षित नहीं कर पाते है।
बॉम्बे मेटल एक्सचेंज के पूर्व अध्यक्ष रोहित शाह कहते हैं, ‘इन दिनों सबसे बड़ी चुनौती कीमत की है।’ शाह ने तांबे से जुड़ी अपनी प्रक्रमण इकाई को बंद कर दिया है। इस इकाई की सालाना क्षमता 18,000 टन थी। वे कहते हैं कि हस्तशिल्प उद्योगों को तांबे की आपूर्ति करने वाले कमोबेश सभी उद्यमी इन दिनों मूल्यों के उतार-चढ़ाव से जूझ रहे हैं।
उन्हें तांबे की इस बढ़ी हुई कीमत पर काम करने में काफी परेशानी हो रही है। शाह कहते हैं कि विश्व बाजार में तांबे के दाम में हर समय बदलाव देखा जा रहा है। जबकि तांबे की आपूर्ति के लिए तीन महीने में एक बार अनुबंध किया जाता है। इसलिए आपूर्ति के लिए आर्डर देने व आपूर्ति के समय तक अगर मूल्य में बढ़ोतरी हो जाती है तो वह घाटा उद्यमियों को सहना पड़ता है। ऐसे में वे अपने कारोबार को न तो बढ़ाने की स्थिति में होते हैं और न ही वे उनपर ठीक से ध्यान दे पाते हैं।
शाह के मुताबिक ये तांबे को प्रक्रमण करने वाली अधिकतर इकाइयां जामनगर, राजकोट, मुरादाबाद व मिर्जापुर जैसी जगहों पर स्थित है। इस कारण से तांबे की ढुलाई पर होने वाले खर्च में भी काफी बढ़ोतरी हो जाती है। लिहाजा इनकी लागत बढ़ जाती है। शाह ने शिकायत के लहजे में बताया कि इन उद्यमियों को प्रदूषण बोर्ड व उत्पाद विभाग के इंस्पेक्टरों को भी झेलना पड़ता है।
दोनों ही विभाग के अफसर आए दिन इन इकाइयों में चक्कर लगाते रहते हैं। बीते तीन-चार सालों से भारत में तांबे को प्रोसेसिंग करने वाली इकाइयों की हालत खास्ता है। इस प्रकार की इकाइयां देश के कुल धातु उत्पादन के आधे भाग का उत्पादन करती है। एक जानकार ने कहा कि बढ़ी हुई कीमत से ज्यादा उसमें होने वाले उतार-चढ़ाव के कारण उत्पादन ज्यादा परेशान है। जानकारों का यह भी कहना है कि आने वाले समय में भी इनकी लागत में बढ़ोतरी होने वाली है।