महाराष्ट्र और खास तौर पर देश की वाणिज्यिक राजधानी कहलाने वाले मुंबई को कोरोना महामारी की शायद सबसे तगड़ी मार झेलनी पड़ी थी मगर वायरस का जोर हल्का पडऩे के साथ ही कारोबारी तथा दफ्तर पूरी ताकत के साथ दोबारा काम पर जुट गए हैं। दफ्तर चल पड़े हैं तो उनमें काम करने वालों की भूख का ख्याल रखने वाले डब्बावाले भी पहले की तरह सड़कों पर उतर गए हैं। अपनी कुशल प्रबंधन क्षमता के लिए दुनिया भर में मशहूर हुए डब्बावालों ने फिर से खाने के डिब्बे दफ्तरों में पहुंचाने शुरू कर दिए हैं। हालांकि कोरोना के कारण जब समूचा मुंबई शहर बंद हो गया था तो डब्बावालों को एकाएक झटका लगा था और उनका कारोबार पूरी तरह बिखर गया था। मगर आर्थिक तंगी के बीच मुंबईकरों की दरियादिली के सहारे घर चलाकर डब्बावाले एक बार फिर सफेद कुर्ते और गांधी टोपी में अपनी साइकलों पर सवार होकर चमचमाते स्टील के डब्बे दफ्तरों में पहुंचाने लगे हैं।
काम तो शुरू हो गया है मगर पटरी पर आने में अभी वक्त लगेगा। डब्बावालों को अभी केवल 25-30 फीसदी काम ही मिल रहा है। मुंबई डब्बावाला एसोसिएशन के अध्यक्ष सुभाष तलेकर कहते हैं कि महामारी रोकने के लिए दो साल पहले जब लॉकडाउन हुआ था, उस समय मुंबई शहर में ही 5,000 से अधिक डब्बावाले घरों से रोजाना 2 लाख डिब्बे यानी टिफिन दफ्तर, दुकान और स्कूलों में पहुंचाते थे। लॉकडाउन खत्म होने से काम आना शुरू हुआ है मगर अभी 20 से 30 फीसदी काम ही पटरी पर आ पाया है। तलेकर इसकी वजह भी गिनाते हैं। उनका कहना है कि घरों से उठने वाले 50 फीसदी टिफिन स्कूलों में जाते थे। अभी ज्यादातर स्कूल बंद हैं और जिनमें 1 अप्रैल से पढ़ाई शुरू हुई है, वे भी अप्रैल के अंत में बंद हो जाएंगे और जून में ही खुलेंगे। कुछ स्कूलों में परीक्षा चल रही हैं मगर 3-4 घंटे के लिए कोई टिफिन नहीं मंगा रहा है। इस वजह से बड़ी तादाद में डिब्बे बंद हैं। दफ्तर भी खुल तो गए हैं मगर महामारी के दौरान चला वर्क फ्रॉम होम का चलन अब भी जारी है और 30-40 फीसदी कर्मचारी ही दफ्तर पहुंच रहे हैं। इसीलिए टिफिन सेवा लंबे अरसे तक बंद रह सकती है। हां, दुकानों में डिब्बे पहले की तरह चलने लगे हैं और डब्बावालों को उम्मीद है कि जून से उनका कारोबार काफी हद तक पटरी पर लौट आएगा।
महामारी का दर्द
डब्बावाले अपने जुझारू जज्बे और मेहनत के लिए मशहूर हैं मगर लॉकडाउन ने एक तरह से उनकी कमर ही तोड़ दी थी। डब्बावालों का घर भी दफ्तर, बाजार खुले होने पर ही चलता है और लंबे लॉकडाउन में उन के लिए घर चलाना ही मुश्किल हो गया था। इसलिए ज्यादातर डब्बावाले अपने गांव लौट गए थे, जिनमें से बमुश्किल 30-35 फीसदी ही मुंबई लौटे हैं। मुंबई में टिफिन पहुंचाने का काम करने वाले ज्यादातर लोग पुणे के ही हैं। जो लोग गांव लौटे थे, उन्होंने पुणे के एमआईडीसी में ही काम शुरू कर दिया। कई ने दूसरे धंधे पकड़ लिए। ग्रांड रोड इलाके में टिफिन पहुंचाने वाले कैलाश शिंदे कहते हैं कि लॉकडाउन में सबको नए काम तलाशने पड़े। कुछ रिक्शा चलाने लगे तो कुछ ने चौकीदारी का काम शुरू कर दिया और कई ने दिहाड़ी मजदूरी कर अपना परिवार पाला। तीन बच्चों के पिता शिंदे ने कहा कि घर चलाना बहुत मुश्किल था, इसलिए डब्बावालों को जो भी काम मिला, वे करने लगे। शिंदे ने दोबारा काम शुरू किया है और अभी उनकी टीम में 5 लोग हैं, जबकि महामारी से पहले 15 लोग थे।
शिंदे की ही तरह दशरथ केदारी भी पीढिय़ों से डब्बावाला कहलाते थे मगर वह टेंपो चलाने के लिए मजबूर हो गए। दशरथ कहते हैं कि टेंपो चलाने से ही उनका घर चल पाया। उनके दो बेटे हैं। बड़ा बेटा 11वीं में पढ़ता है और छोटा चौथी कक्षा में है। छोटे बच्चे की फीस नहीं भर पाने के कारण स्कूल वालों ने नाम ही काट दिया। वह कहते हैं कि घर में राशन की कमी तो नहीं हुई क्योंकि लोगों ने भरपूर मदद की मगर केवल राशन से काम नहीं चलता। उन्होंने कहा कि घर का किराया, बच्चों की फीस और दूसरे खर्च के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है। हालंाकि उन्हें भरोसा है कि डब्बावाले एक बार फिर अपना काम शुरू करेंगे और रिक्शा, बेगारी, मजदूरी छोड़ देंगे। कल्याण इलाके में डब्बा पहुंचाने वाले शरद मोरे भी लॉकडाउन के दौरान गांव जाकर खेती करने लगे थे मगर अब काम पर लौट आए हैं। मोरे कहते हैं कि वर्क फ्रॉम होम ने उनकी जिंदगी पूरी तरह उलट दी थी। इस साल जनवरी से हालात बेहतर हुए हैं और काम रफ्तार पकड़ रहा है मगर वायरस से चिंतित काफी लोग अब भी काम देने से कतराते हैं क्योंकि डब्बावाले टिफिन देने दूर-दूर तक जाते हैं, जिसे लोग संक्रमण की आशंका मानते हैं। मगर ज्यादातर डब्बावाले अशिक्षित हैं और दूसरे काम भी नहीं कर सकते।
ग्राहकों का बदला मिजाज
ऑनलाइन खाना पहुंचाने का बढ़ता चलन भी डब्बावालों के लिए चुनौती बन गया है। लॉकडाउन के दौरान लोग घरों पर ही खाना मंगाने लगे थे। अब दफ्तर, बाजार खुल गए मगर लोगों को ऐसी आदत पड़ गई है कि वे खाना ऑनलाइन ही ऑर्डर कर रहे हैं। डब्बावाले इस चुनौती को समझ रहे हैं मगर उन्हें उम्मीद है कि घर के खाने के आदी लोग ज्यादा समय तक बाहर का नहीं खा पाएंगे और लौटकर उनके पास ही आएंगे। इसी भरोसे के कारण कैलाश शिंदे कहते हैं कि उनके कारोबार को कोई कंपनी छीन नहीं सकती। उन्होंने कहा कि पिछले 130 साल में कई कंपनियों ने कोशिश की मगर डब्बावालों का काम चलता रहा और आगे भी चलता रहेगा।
जून से पूरी रफ्तार की उम्मीद
मुंबई में यूं तो सब कुछ सामान्य हो गया है और कोविड से पहले के दौर की तरह दफ्तर-बाजार खुल गए हैं मगर डब्बावालों का कारोबार पूरी तरह वापस नहीं आया है। वे कहते हैं कि काम शुरू हो गया है और दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। उन्हें लगता है कि जून से काम रफ्तार पकड़ेगा और बारिश के बाद पूरी तरह पटरी पर आ जाएगा। इस भरोसे की सबसे बड़ी वजह स्कूलों का खुला है। डब्बावाले कह रहे हैं कि जिस तरह दुकानदार अपने टिफिन मंगा रहे हैं उसी तरह जून से स्कूल के कर्मचारी भी घरों से खाना मंगवाने लगेंगे।
दरियादिली को सलाम
महामारी के दौर में मुंबई वालों ने डब्बावालों की खूब मदद की। मुंबई डब्बावाला एसोसिएशन के अध्यक्ष सुभाष तलेकर कहते हैं कि डब्बावालों ने 130 साल तक मुंबई वालों को खाना खिलाया और यहां के बाशिंदों ने लॉकडाउन में उनका पूरा ध्यान रखा। मुंबई वालों की दरियादिली की वजह से ही किसी भी डब्बावाले के घर राशन की कमी नहीं रही। कई कंपनियों, एनजीओ और ग्राहकों ने फोन कर उनका हाल पूछा और बिना मांगे ही घर में राशन पहुंचा दिया। डब्बावाला कैलाश शिंदे भी कहते हैं कि जब उनके साथी गांव चले गए थे तो कई लोगों ने मुंबई से गांव तक राशन पहुंचा दिया।
सरकार से नाराजगी
कोविड महामारी के समय महाराष्ट्र सरकार ने डब्बावालो के लिए कई तरह की घोषणाएं की थीं। उनमें से ज्यादातर पूरी नहीं हुईं और जो पूरी हुईं, उनका कोई फायदा ही नहीं। डब्बावाले ग्राहकों को टिफिन पहुंचाने के बाद ही खाना खाते हैं। वे लोग बहुत समय से डब्बावाला भवन की मांग कर रहे थे ताकि एक ही जगह एक साथ खाना खा सकें। सरकार ने हाल ही में बांद्रा इलाके में डब्बावाला भवन बना दिया मगर डब्बावालों के अध्यक्ष कहते हैं कि भवन के नाम पर एक इमारत का 3,000 वर्ग फुट का हॉल दे दिया गया है, जिसका कोई मतलब नहीं है। उन्होंने कहा कि डब्बावालों ने दक्षिण मुंबई में रेलवे स्टेशन के पास इमारत मांगी थी, जहां डब्बावाले टिफिन पहुंचाने के बाद तसल्ली से खाना खा सकें। मगर जो हॉल दिया गया है, वह स्टेशन से बहुत दूर है, जिससे मकसद पूरा नहीं होता। सरकार से उन्हें और भी शिकायतें हैं। महामारी के समय राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार और दूसरे नेताओं ने डब्बावालों को आर्थिक मदद देने का ऐलान किया था मगर अभी तक कुछ भी नहीं दिया गया।
130 साल से पहुंचा रहे खाना
मुंबई के डब्बावालों की शुरुआत 1890 में तब हुई, जब एक पारसी बैंकर अपने दफ्तर में घर से बना खाना चाहता था। उसी ने पहली बार एक डब्बावाले को यह जिम्मेदारी दी। कई लोगों को यह बात पसंद आई और डब्बों की डिलिवरी बढ़ती चली गई। शुरुआत में यह अनौपचारिक और व्यक्तिगत स्तर का प्रयास था। वहीं काम कर रहे महादेव हवाजी बाचे को इसमें अच्छा मौका दिखा और उन्होंने करीब 100 डब्बावालों की टीम के साथ दोपहर का खाना पहुंचाना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे शहर का दायरा बढ़ा, डब्बा डिलिवरी की मांग भी बढ़ती गई। सही टिफिन एकदम सही जगह पर पहुंचाने के लिए उस समय कोडिंग प्रणाली शुरू की गई, जो आज तक चल रही है। सफेद कपड़े और गांधी टोपी में तब से अभी तक ये डब्बावाले खाना पहुंचा रहे हैं।
कुशल प्रबंधन की कायल दुनिया
डब्बावालों की टिफिन सेवा भारत ही नहीं पूरी दुनिया भर में मशहूर है। उन्हें डब्बे पहुंचाने में महारत हासिल है और घर से टिफिन उठाने तथा सही व्यक्ति तक पहुंचाने में कभी उनसे गलती नहीं होती। इस सटीक प्रबंधन क्षमता के कायल दुनिया भर के प्रबंधन स्कूल हैं। शीर्ष मैनेजमेंट कॉलेजों में उनके बारे में पढ़ाया जाता है। माहिर कारोबारी भी समझ नहीं पाते कि देर, गड़बड़ या गलती के बगैर टिफिन कैसे पहुंचा दिया जाता है। इस पर कई कंपनियां शोध कर चुकी हैं। 2005 में आईआईटी ने इस पर शोध किया था और डब्बावालों का नाम गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज है।
ब्रिटेन के शाही खानदान से भी ताल्लुक
मुंबई के डब्बावालों और ब्रिटेन के शाही खानदान का संबंध साल 2003 से है। शाही खानदान ने इनकी काफी तारीफ सुनी थी और उस समय प्रिंस हैरी तथा उनके पिता प्रिंस चाल्र्स मुंबई में डब्बावालों से मिलने चले आए थे। इसी मुलाकात में प्रिंस चाल्र्स ने डब्बावालों को अपनी शादी में आने के लिए आमंत्रित किया था। प्रिंस चाल्र्स और कैमिला पार्कर की शादी 2005 में हुई थी उस समय भी मुंबई के डब्बावालों के दो प्रतिनिधि शामिल हुए थे। प्रिंस हैरी और मेगन मर्केल की 2018 में हुई शाही शादी में भी मुंबई के डब्बावालों ने अपना योगदान दिया था। शादी वाले दिन डब्बावालों ने अपने टिफिन के रोजाना के मेन्यू के साथ शादी की मिठाई भी बांटी थी। प्रिंस चाल्र्स के दादा बनने पर उनके नवजात पोते के लिए डब्बावालों ने मराठी परंपरानुसार तोहफा भेजा था।