कर्नाटक विधानसभा चुनावों में शानदार जीत से गदगद कांग्रेस के उत्साह का विश्लेषण सावधानी के साथ वास्तविकता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। आमतौर पर ऐसे अनुमान जताए जा रहे थे कि राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस दमदार प्रदर्शन कर सकती है। इसका कारण यह था कि दशकों से कर्नाटक में कोई भी सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में लौटकर नहीं आई है।
कांग्रेस ने 1989 के बाद अपने मत प्रतिशत में सर्वाधिक वृद्धि दर्ज कर सबको चौंका दिया। हालांकि, एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस और ना ही दूसरे विपक्षी दल कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों को 2024 में होने वाले संसदीय चुनावों के संभावित रुझान के रूप में देखने की जल्दबाजी दिखा सकते हैं।
इसका कारण 2019 के लोकसभा चुनावों से जुड़ा है। उन चुनावों से पहले तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़- के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। मगर इन चुनावों के कुछ महीने बाद ही हुए लोकसभा चुनावों में इन तीनों राज्यों ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पक्ष में मतदान किया। राजस्थान में तो कांग्रेस अपना खाता तक नहीं खोल पाई।
यद्यपि, भाजपा का प्रदर्शन उम्मीद से अधिक कमजोर रहा है मगर चुनाव विश्लेषकों को पार्टी की हार का विश्लेषण सतर्कता से करना चाहिए। कर्नाटक में भाजपा सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही थी। यह भी कहा जा रहा है कि कमजोर चुनावी रणनीति के कारण लिंगायत समुदाय उससे दूर हो गया। इस समुदाय के कई नेता चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल हो गए।
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मगर लिंगायत समुदाय के नेताओं के कांग्रेस में शामिल होने का असर स्पष्ट तौर पर नहीं दिख रहा है। इसका कारण यह है कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार हुबली मध्य-धारवाड़ सीट पर भाजपा के प्रत्याशी से बड़े अंतर से हार गए। शेट्टार छह बार से इस विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।
चुनाव नतीजों का विश्लेषण किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वाधिक नुकसान जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) को हुआ है। इस बार के चुनावों में जेडीएस का मत प्रतिशत 18 से घटकर केवल 13 प्रतिशत रह गया। जेडीएस के मत प्रतिशत में आई कमी का सीधा लाभ कांग्रेस को मिला जिसका मत प्रतिशत 38 से बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया।
हालांकि, भाजपा का मत प्रतिशत लगभग स्थिर रहा है। इससे यह संकेत मिल रहा है कि पश्चिम बंगाल की तरह ही कर्नाटक में भी विधानसभा चुनाव दो तरफा हो गए थे। जेडीएस राज्य में लगातार अपनी राजनीतिक जनाधार खो रही है। एक समय वह भी था जब पार्टी के पास एक चौथाई मत हुआ करते थे।
अब प्रश्न है कि जेडीएस के मतदाता भाजपा की तरफ ना जाकर कांग्रेस की तरफ क्यों चले गए। यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है जिसका गंभीरता से विश्लेषण कांग्रेस सहित सभी दलों के लिए जरूरी हो सकता है। अगर कांग्रेस देश में राष्ट्रीय स्तर पर एक विश्वसनीय विपक्ष की भूमिका निभाना चाहती है तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह कर्नाटक में जीत का श्रेय केंद्रीय नेतृत्व और राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को देने की गलती ना करें।
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राहुल की यात्रा का प्रभाव कितना रहा है यह अभी अस्पष्ट है। ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य में डी के शिवकुमार और सिद्धरमैया का स्थानीय दबदबा कांग्रेस की जीत में सहायक रहा है। ये दोनों ही नेता राज्य में मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। ऐसे में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के लिए इस समस्या का पूरी परिपक्वता और गंभीरता से हल खोजने की जरूरत है।
कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के ढीले रवैये से ही पंजाब और मध्य प्रदेश हाथ से निकल गए थे। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के भीतर टकराव काफी समय से दिख रहा है। दोनों ही राज्यों में इस वर्ष के अंत में चुनाव होने वाले हैं, इसे देखते हुए कांग्रेस को यह संकट जल्द से जल्द सुलझाना होगा।
भाजपा ने राज्य में मुस्लिमों के लिए आरक्षण खत्म करने और मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने का विरोध करने को चुनावी मुद्दा बनाया था। उसके लिए इन चुनावों से मिले संकेत स्पष्ट हैं। तुलनात्मक रूप से देश के अधिक शिक्षित दक्षिण भाग में ध्रुवीकरण की राजनीति अब काम करने वाली नहीं है।